जानिए क्यों अदालतें किसी गवाह की गवाही/साक्ष्य को हलफनामे (Affidavit) पर प्राप्त करने से कर देती हैं इनकार?
हमने 'लाइव लॉ हिंदी' के पोर्टल पर गवाहों को लेकर ऐसे तमाम लेख आपके समक्ष प्रस्तुत किये हैं जहाँ हमने अदालत के समक्ष किसी मामले में प्रस्तुत होने वाले गवाह और उसके साक्ष्य/गवाही के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की है।
इसी क्रम में, आज के इस लेख में हम इस बात को संक्षेप में समझने का प्रयास करेंगे कि आखिर क्यों अदालतें, किसी भी गवाह की गवाही/साक्ष्य को एफिडेविट पर प्राप्त करने से इनकार कर देती हैं।
मौजूदा लेख में हम इस बात को भी समझने का प्रयास करेंगे कि आखिर क्यों, अदालतें यह जोर देकर हर मामले में कहती हैं कि गवाह को अदालत के सामने आकर अपनी गवाही/साक्ष्य देनी होगी और क्यों अदालतों द्वारा, रिकॉर्ड पर अपने सामने गवाह को बुलाकर कर प्राप्त किये गए साक्ष्य पर ही भरोसा किया जाता है?
लेख को शुरू करने से पहले हमे यह ध्यान में रखना होगा और जैसा कि हम जानते भी हैं कि साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के अनुसार, मौखिक साक्ष्य (Oral Evidence) या दस्तावेजी साक्ष्य (Documentary Evidence) को ही "साक्ष्य" (Evidence) माना जाता है और उसपर ही अदालत द्वारा परीक्षण (Trial) के उद्देश्य हेतु विचार किया जाता है।
यह साफ़ है कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत एफिडेविट/हलफनामा नहीं आता है। इसी समझ के साथ आइये इस लेख की शुरुआत करते हैं।
जीवित व्यक्ति का साक्ष्य अदालत के समक्ष देने पर ही है कारगर
जैसा कि हम जानते हैं कि एक जीवित व्यक्ति के मामले में, गवाह को अदालतों द्वारा अपने समक्ष पेश करते हुए न्यायिक कार्यवाही में सबूत प्राप्त किये जाते हैं।
गौरतलब है कि मुनीर अहमद बनाम राजस्थान राज्य, AIR 1989 SC 705 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह देखा गया था कि एक जीवित व्यक्ति के मामले में, न्यायिक कार्यवाही में साक्ष्य को गवाह के स्टैंड पर बुलाकर उससे साक्ष्य प्राप्त किया जाना चाहिए और जब तक कानून ऐसा करने की अनुमति नहीं दे देता है, तब तक एक हलफनामे (एफिडेविट) को, गवाह को सामने पेश करवाकर प्राप्त किया गए साक्ष्य से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है।
[NOTE: हमारे पाठकों द्वारा यह ध्यान में रखा जा सकता है कि सीआरपीसी की धारा 295 और 407 (3) के अंतर्गत, न्यायालय द्वारा उच्च विशेष मामलों में स्पष्ट रूप से हलफनामे के द्वारा साक्ष्य देने की अनुमति दी जाती है।]
उदाहरण के लिए, किसी मामले में बचाव पक्ष की ओर से एक साक्षी का हलफनामा दायर किया जाता है, जिसमे यह बताया और जोर देकर कहा जाता जाता है कि अपीलकर्ता/आरोपी, उक्त हत्या के मामले में शामिल नहीं था।
अब मान लीजिये यदि हलफनामा दायर करने वाला व्यक्ति, मृतक का करीबी रिश्तेदार हो तो बचाव पक्ष की ओर से यह एक तर्क अदालत में दिया जा सकता है कि वह व्यक्ति (गवाह) अपने करीबी की मृत्यु के बावजूद, बेवजह ही क्यों अपीलकर्ता/आरोपी के पक्ष में (कि उसने मृतक की हत्या नहीं की) एक हलफनामा दायर करने के लिए आगे आएगा?
इसलिए, बचाव पक्ष अदालत से तर्क के आधार पर यह मांग कर सकता है कि उक्त गवाह (मृतक के करीबी रिश्तेदार) के हलफनामे को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। हालाँकि, बावजूद इसके ऐसे गवाह का वह हलफनामा, अदालत द्वारा साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
गौरतलब है कि यदि बचाव पक्ष को ऐसे व्यक्ति (मृतक के करीबी रिश्तेदार/गवाह) के साक्ष्य पर भरोसा करना ही है, तो उचित मार्ग या तरीका यह होगा कि वह उस गवाह को अदालत के समक्ष साक्ष्य देने के लिए बुलाए और फिर उस गवाह की मुख्य परीक्षा (Chief Examination) हो और उसका प्रति-परीक्षण (Cross-Examination) करने का अभियोजन पक्ष को मौका दिया जाए, फिर उसका साक्ष्य विचार करने योग्य कहलायेगा।
यहाँ एक बार फिर इस बात को दोहराना उचित है कि साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के अंतर्गत, मौखिक साक्ष्य या दस्तावेजी साक्ष्य को ही साक्ष्य माना जाता है और उसपर ही अदालत द्वारा परीक्षण (Trial) के उद्देश्य हेतु विचार किया जाता है।
हलफनामे पर साक्ष्य लेने में दिक्कत क्या है?
यदि हम गौर करें तो हम यह पाएंगे कि बचाव/अभियोजन पक्ष के लिए यह बहुत आसान होगा कि वे अपने पक्ष में गवाहों के हलफनामे को पहले से ही हासिल करलें और अदालत के सामने पेश कर दें।
हालाँकि, बचाव/अभियोजन पक्ष द्वारा इस तरह के प्रयासों को अदालतों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इस तरह के प्रयासों का उद्देश्य, एक प्रकार से अदालत के सामने प्रमुख गवाहों को सच बोलने से रोकना होता है।
बहुत हद तक ऐसा भी हो सकता है कि गवाहों के तथाकथित हलफनामे या तो पके-पकाए/पहले से तैयार किये गए होंगे जिससे बचाव/अभियोजन पक्ष को फायदा पहुंचे, और यह भी हो सकता है कि गवाहों के साथ धोखाधड़ी से हलफनामा प्राप्त किया गया हो।
उच्चतम न्यायालय ने राचापल्ली अब्बुलु बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, एआईआर 2002 एससी 1805 में मुख्य रूप से यह टिप्पणी की थी कि आपराधिक न्याय में इस प्रकार के हस्तक्षेप (अदालत में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से पहले से ही हलफनामा प्राप्त कर लेना) को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता है और ऐसे किसी भी प्रयास को अदालतों द्वारा गंभीरता से देखा और लिया जाना चाहिए।
दरअसल, इस मामले में बचाव पक्ष ने DW-1 की मुख्य-परीक्षा की थी, जोकि एक पब्लिक नोटरी था, जिसने अभियोजन गवाह नंबर -1 से लेकर अभियोजन गवाह नंबर -10 के सम्बन्ध में इस आशय का सबूत दिया था कि उन सभी ने उसके (DW-1/ पब्लिक नोटरी) कार्यालय का दौरा किया था और उसने उन्हें शपथपत्रों पर शपथ दिलाई थी, जिसकी सामग्री को इन गवाहों ने पढ़ा था और उसके बाद हलफनामों पर हस्ताक्षर किया था। यह हलफनामे, सत्र न्यायालय के समक्ष दायर किए गए थे।
इन हलफनामों के जरिये, अभियोजन गवाह नंबर - 1 से लेकर अभियोजन गवाह नंबर - 10 ने यह कहा था कि उन्होंने उक्त घटना नहीं देखी थी। गौरतलब है कि उनके इस बयान से बचाव पक्ष को फायदा मिल रहा था।
हालांकि, जब हलफनामों के साथ इन सभी गवाहों का सामना कराया गया, तो इन गवाहों ने उन हलफनामों को पहचानने से इनकार कर दिया, अर्थात यह माना कि यह उनके द्वारा नहीं तैयार किया गया था और उन गवाहों ने अदालत के सामने प्रस्तुत होकर गवाही/साक्ष्य देना चुना।
यदि बात सिविल मामलों की हो तो उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती सुधा देवी बनाम एमपी नारायणन, AIR 1988 SC 1381 के मामले में यह कहा गया था कि हलफनामों को साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत, 'साक्ष्य' (Evidence) की परिभाषा में शामिल नहीं किया गया है। और हलफनामे को सबूत के रूप में केवल तब इस्तेमाल किया जा सकता है, जब पर्याप्त कारणों के चलते, अदालत ने सीपीसी के आदेश XIX, नियम 1 या 2 के तहत एक आदेश पारित किया हो।
पक्षकारों को साक्ष्य देने का है पूरा अधिकार
उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने मध्य प्रदेश राज्य बनाम चिंतामन सदाशिव वैशम्पायन, AIR 1961 SC 1623 के मामले में यह कहा था कि प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के नियमों की यह आवश्यकता है कि एक पक्षकार को उन सभी प्रासंगिक साक्ष्य को अदालत के समक्ष लाने का अवसर दिया जाना चाहिए, जिस पर वह अपने मामले में निर्भर करता है।
इसके अलावा, विपरीत पक्षकार/दूसरी पार्टी का साक्ष्य भी उसकी उपस्थिति में लिया जाना चाहिए, और उसे दूसरे पक्ष द्वारा जांचे गए गवाहों का प्रति-परिक्षण करने का अवसर दिया जाना चाहिए।
भारत संघ बनाम टी. आर. वर्मा, AIR 1957 SC 882 एवं उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सरोज कुमार सिन्हा, AIR 2010 SC 313 के मामले में भी यह साफ़ किया गया था कि गवाहों को प्रति-परिक्षण (Cross-examine) करने का उक्त अवसर प्रदान नहीं करना, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन माना जाता है।
हालाँकि, किसी पक्षकार द्वारा अपने पक्ष में, अपने या अपने गवाह के बयान के हलफनामे को दाखिल करना, किसी न्यायालय या ट्रिब्यूनल के विचार हेतु पर्याप्त सबूत नहीं माना जा सकता है, जिसके आधार पर वह किसी विशेष तथ्य-स्थिति के संबंध में निष्कर्ष पर आ सके।
इसका मुख्य कारण यही है कि ऐसे हलफनामे को यदि अदालत स्वीकार करलेगी तो सामने वाले पक्षकार का उस गवाह की प्रति-परीक्षा करने का अधिकार खो जायेगा जोकि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।
अंत में, जैसा कि ऊपर हमने जाना, साक्ष्य अधिनियम की धारा के अंतर्गत, हलफनामे को साक्ष्य के रूप में नहीं माना जाता है। हालांकि, अय्यूबखान बनाम महाराष्ट्र राज्य, AIR 2013 SC 58 के मामले में यह साफ़ किया गया था कि ऐसे मामले में, जहां गवाह, क्रॉस-एग्जामिनेशन के लिए उपलब्ध है, और दूसरे पक्ष को उसको क्रॉस-एग्जामिन करने का अवसर दिया जाता है (भले ही वह उसको क्रॉस-एग्जामिन न करे), वहां उस गवाह के साक्ष्य पर विचार किया जा सकता है।