किसी भी क्रिमिनल केस में ट्रायल की शुरुआत चार्ज से ही होती है। चार्ज किसी ट्रायल की बुनियाद होता है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अध्याय 18 में चार्ज के लिए चेप्टर दिया गया है जिसमें धारा 234 से लेकर 247 तक चार्ज संबंधित सभी प्रावधान डाल दिए गए हैं।
चार्ज अभियोजन की प्रथम कड़ी होती है तथा चार्ज के बाद ही अभियोजन की अगली कार्यवाही की जाती है। चार्ज के अभाव में अभियोजन प्रारंभ नहीं हो सकता है, चार्ज अभियुक्त के विरुद्ध अपराध की जानकारी का ऐसा लिखित कथन होता है जिसमें चार्ज के आधार के साथ साथ अपराध की 'विधि' 'समय' 'स्थान' उसमें शामिल 'व्यक्ति' एवं 'वस्तु' का भी उल्लेख रहता है।
चार्ज के आधार पर ही अभियुक्त अपना बचाव प्रस्तुत करता है। सामान्यता चार्ज तभी लगाया जाता है जब मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि चार्जी के विरुद्ध प्रथम दृष्टया अपराध बनता है।
चार्जित प्रकार की जानकारी होती है जो अभियुक्त को दी जाती है। यह नैसर्गिक न्याय है कि किसी भी अभियुक्त पर जब अभियोजन चलाया जाए तो उसको अभियोजन से संबंधित संपूर्ण जानकारी दे दी जाए। चार्ज मजिस्ट्रेट द्वारा लगाए जाते है ना की अभियोजन द्वारा लगाए जाते है। अभियोजन पक्ष अपनी रिपोर्ट लेकर आता है। अंतिम प्रतिवेदन के पेश होने के उपरांत मजिस्ट्रेट चार्ज लगाता है। कोर्ट चार्ज को लिखता है तथा अभियुक्त व्यक्ति को यह संज्ञान देता है कि उस पर क्या चार्ज लगाए गए है और किन अपराध का विचारण उस अभियुक्त पर आगे चलाया जाएगा।
बीएनएसएस की धारा 234 चार्ज के प्रारूप का वर्णन करती है। इस धारा में चार्ज की अंतर्वस्तु के बारे में उपबंध दिए गए है। साधरण भावबोध में चार्ज शब्द से तात्पर्य अभियुक्त को उसके अपराध के बारे में जानकारी देने का एक साधन है। जिसमें चार्ज के आधारों के साथ-साथ समय स्थान तथा उस व्यक्ति या वस्तु का उल्लेख रहता है जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है।
कोर्ट द्वारा चार्ज उसी सूरत में लगाया जाता है जब कोर्ट को यह समाधान हो जाता है कि प्रथम दृष्टया कोई अपराध बनता है। अजय कुमार बनाम झारखंड राज्य के एक प्रसिद्ध मामले में कोर्ट ने यह कहा है कि चार्जों को तय करने से पहले अभियोजन के साक्षियों का प्रति परीक्षण करने का अवसर अवश्य दिया जाना चाहिए परंतु विजयन बनाम केरल राज्य के मामले में कोर्ट ने कहा है कि जब मजिस्ट्रेट को यह प्रथम दृष्टया समाधान होता है की कोई अपराध किया गया है तो उस आधार पर ही चार्ज तय होते है तथा दोनों पक्षों को बहस मात्र कर लेने से ही चार्ज तय करने का अधिकार कोर्ट को प्राप्त हो जाता है।
क्या क्या होता है चार्ज में अभियुक्त पर चार्जित अपराध
उस अपराध का सृजन करने वाली विधि यदि उस अपराध का कोई विनिर्दिष्ट नाम देती हो तो चार्ज में उसका वर्णन उसी नाम से किया जाएगा।
अपराध का सृजन करने वाली विधि उसे कोई विनिर्दिष्ट नाम ना देती हो तो उस अपराध की इतनी परिभाषा देनी चाहिए जिससे अभियुक्त को इस बात की सूचना हो जाएगी उस पर किस अपराध का चार्ज है।
चार्ज में संबंधित विधि और उसकी निश्चित धारा का उल्लेख होना चाहिए जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है।
यह तथ्य कि चार्ज लगा दिया गया है इस बात का प्रमाण होगा कि मामले में विधि द्वारा अपेक्षित प्रत्येक शर्त पूरी हो गई है।
चार्ज कोर्ट की भाषा में लिखा जाना चाहिए
यदि अभियुक्त किसी पूर्व दोष सिद्धि के कारण अतिरिक्त या वर्धित दंड का भागी है तो उस दशा में चार्ज में पूर्व दोष सिद्धि की तिथि समय तथा स्थान आदि का उल्लेख किया जाएगा।
एक मामले में कहा गया है कि- चार्ज में इस बात को भी दर्शाया गया है कि अभियुक्तों में से प्रत्येक अभियुक्त अपराध में किस प्रकार संबंधित है तथा उनमें से प्रत्येक ने किस तरह से अपराध में भाग लिया है
यह सभी कुछ चार्ज की अंतर्वस्तु है कोर्ट द्वारा लगाए जाने वाले किसी भी चार्ज में इन सभी अंतर्वस्तु का महत्वपूर्ण स्थान है और इन सभी को किसी भी चार्ज में होना ही चाहिए।
जब धारा 234 एवं 235 में वर्णित विशिष्टियां अभियुक्त पर उस पर लगाए गए चार्ज या चार्जों के बारे में समुचित जानकारी देने के लिए अपर्याप्त हो तो मजिस्ट्रेट द्वारा चार्ज में उस रीति का उल्लेख भी किया जाना चाहिए जिस प्रकार से अभी कथित अपराध किया गया है। आशय यह है कि अभियुक्त को उसके विरुद्ध चार्ज के बारे में यथेष्ठ सूचना दी जानी चाहिए ताकि वह अपना बचाव कर सकें।
जब धारा 234 एवं 235 यह संपूर्ण जानकारी देने में अपर्याप्त होती है कि अभियुक्त ने अपराध किस तरीके से किया है तो इसके बाद धारा 236 की सहायता से अपराध किए जाने की रीति कथित की जाने का प्रावधान रखा है।