पति पत्नी के बीच विवादों के अधिक बढ़ जाने पर घरेलू हिंसा के केस अत्यंत चर्चित होते हैं। दो लोग साथ रहकर गृहस्थी बनाते हैं लेकिन आपसी मतभेद बड़े विवादों को जन्म देते हैं और फिर मामला अदालत तक जा पहुंचता है। ऐसे में महिलाओं द्वारा पति और उसके रिश्तेदारों पर घरेलू हिंसा कानून में कार्यवाही की जाती है।
क्या है घरेलू हिंसा कानून
भारत में महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा की रोकथाम के उद्देश्य से बनाया गया चर्चित अधिनियम 'घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005' है। वर्ष 2005 में भारत की संसद द्वारा यह अधिनियम पारित किया गया है। यह कानून गृहस्थी में रहने वाली कोई भी महिला घर के दूसरे सदस्यों के विरुद्ध घरेलू हिंसा का मुकदमा लगा सकती है।
इस कानून में एक बात ध्यान देने योग्य है कि इसमें आमतौर पर केवल पत्नियों द्वारा ही पति और सुसराल के लोगों पर मुकदमा लगाया जाता है लेकिन यह कानून इससे कही ज्यादा विस्तृत है। गृहस्थी में रहने वाली कोई भी महिला अपने साथ हिंसा होने पर घर के पुरुष या महिला किसी भी सदस्य या सदस्यों पर मुकदमा लगा सकती है। एक मां भी अपने पुत्रों पर एवं बहुओं पर घरेलू हिंसा का प्रकरण लगा सकती है या फिर लिव इन में रहने वाली महिला पार्टनर अपने पुरुष पार्टनर पर घरेलू हिंसा का केस लगा सकती है, इस ही तरह एक बेटी भी अपने माता पिता पर घरेलू हिंसा का मुकदमा दर्ज करवा सकती है।
वह सदस्य जिन पर घरेलू हिंसा का केस लगाया जा सकता है
घरेलू हिंसा का प्रकरण घर के पुरुष महिला दोनों तरह के सदस्यों पर लगाया जा सकता है। घर के सदस्यों में केवल एक छत के नीचे रहना भी आवश्यक नहीं है अपितु नातेदारी आवश्यक है। महिला का यदि कोई नातेदार उसके विरुद्ध हिंसा कारित कर रहा है या कर रही है तब पीड़ित महिला यह मुकदमा लगा सकती है।
वह अदालत जहां मुकदमा लगाया जा सकता है
घरेलू हिंसा का मुकदमा अधिनियम की भिन्न भिन्न धाराओं के अंतर्गत अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है। अलग अलग धाराओं में अलग अलग तरह की रिलीफ दिए जाने के प्रावधान है। आमतौर पर यह मुकदमा सीधे क्षेत्र के मजिस्ट्रेट के पास लगाया जाता है जो घरेलू हिंसा के प्रकरण सुनने के लिए जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा या फिर उच्च न्यायालय द्वारा सशक्त किया जाता है।
इस मजिस्ट्रेट को न्यायिक दंडाधिकारी प्रथम श्रेणी कहा जाता है। सभी जिलों में यह मजिस्ट्रेट सरलता से जिला न्यायालय में उपलब्ध होते हैं। किसी ग्रामीण इलाके के लोग भी अपनी संबंधित कोर्ट के मजिस्ट्रेट के पास यह आवेदन लगा सकते हैं। यह आवेदन अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत प्रस्तुत किया जाता है।
पीड़ित महिला को क्या सहायता मिलती है
इस अधिनियम के तहत घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला को तरह तरह की सहायता मजिस्ट्रेट द्वारा अलग अलग धाराओं में उपलब्ध करवाई जाती है। पहले महिला को अपने साथ होने वाली घरेलू हिंसा को साबित करना होता है फिर मजिस्ट्रेट दी जाने वाली राहतों में पीड़ित महिला द्वारा मांगी गई राहत उपलब्ध करवाता है।
मजिस्ट्रेट द्वारा पीड़ित महिला को दी जाने वाली राहतों में जैसे अधिनियम की धारा 17 के तहत पीड़ित महिला को सांझी गृहस्थी में रहने का अधिकार है। एक महिला को गृहस्थी से अलग नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो मजिस्ट्रेट आदेश देकर महिला को पुनः घर में प्रवेश दिलवाते हैं। धारा 18 के तहत महिला को संरक्षण दिए जाने का आदेश भी पारित किया जाता है।
ऐसे आदेश में मजिस्ट्रेट महिला के साथ होने वाली मानसिक एवं शारीरिक हिंसा की रोकथाम करता है एवं आरोपियों के विरुद्ध संरक्षण आदेश पारित करता है। धारा 19 के तहत घर से निकाली गई महिला को निवास आदेश दिए जाने का प्रावधान है। धारा 20 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट विशेष आदेश भी दे सकता है जैसे इलाज इत्यादि का खर्च।
अंतरिम राहत भी दी जा सकती है
घरेलू हिंसा के प्रकरण में किसी पीड़ित महिला को अपना केस साबित करना ही आवश्यक नहीं है। अपितु किसी भी पीड़ित महिला को मजिस्ट्रेट धारा 23 के अंतर्गत अंतरिम राहत भी दे सकता है जैसे किसी भरण पोषण की मांग करने वाली महिला को अंतरिम रूप से भरण पोषण दिए जाने का आदेश भी किया जा सकता है। मतलब जब तक केस पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता महिला को भरण पोषण दिया जाता रहेगा।
कितना खर्च है
घरेलू हिंसा के केस में अधिक रुपए खर्च नहीं होते हैं। पीड़ित महिला को किसी सिविल केस की तरह काफी सारी कोर्ट फीस जमा नहीं करनी होती है अपितु नाममात्र की कोर्ट फीस पर यह प्रकरण लगाए जा सकते हैं। यदि महिला के पास वकील नियुक्त करने के रुपये नहीं हैं तो उसे विधिक सेवा से मुफ्त में वकील भी उपलब्ध होता है।
ऐसा मुकदमा लगाने के पूर्व महिलाओं के लिए बनाए गए वन स्टॉप सेंटर भी महिलाओं की प्राथमिक स्तर पर मदद करते हैं और उन्हें परामर्श देकर अपनी रिपोर्ट भी मजिस्ट्रेट के पास प्रस्तुत करते हैं। यह वन स्टॉप सेंटर प्राथमिक स्तर पर मामला राजीनामा के ज़रिए सुलहवार्ता इत्यादि से निपटाने का प्रयास करते हैं। अन्यथा मामला मजिस्ट्रेट को सौंप देते हैं।