जानिए संस्वीकृतियों की रिकॉर्डिंग के सन्दर्भ में (दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164)- भाग-1
वी. राम कुमार, केरल हाईकोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश
प्रस्तावना
1. जिस बात ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया वह हाल ही में केरल हाई कोर्ट की डिवीज़न बेंच द्वारा 25 फरवरी 2019 को सुनाए गए निर्णय अली के. बी. बनाम केरल राज्य [2019 (1) KHC 898] के मामले में दिए गए कुछ कथन हैं।
2. हाई कोर्ट के समक्ष मामला मर्डर का था। माननीय न्यायमूर्ति, PW 2 जो कि एक मात्र चश्मदीद गवाह था, उसकी गवाही पर विचार कर रहे थे। यह गवाह और कोई नहीं बल्कि मृत व्यक्ति की पुत्री थी। वर्ष 2008 में, जब यह घटना हुई वह गवाह 11 वर्ष की थी। तफ्तीश के दौरान उसका बयान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164(5) के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड किया गया, जिन्होंने उसे शपथ (ओथ) नहीं दिलाई थी और जैसा कि बताया गया, उस समय वह 11 वर्ष की थी।
इसके पश्च्यात, जब उसने ट्रायल कोर्ट के समक्ष साक्ष्य दिए तब वह 18 वर्ष की हो गयी थी। डिफेंस का कहना था कि क्योंकि उस चाइल्ड विटनेस को शपथ (ओथ) नहीं दिलाई गयी थी, अत: उसका बयान विश्वास करने योग्य नहीं है। डिफेंस के इस तर्क पर 2 जज बेंच ने कहा कि ओथ एक्ट, 1969 की धारा 4(1) के मद्देनजर 12 वर्ष से कम उम्र के नाबालिग को ओथ दिलवाना आवश्यक नहीं है, अगर कोर्ट का यह मत है कि, हालाँकि नाबालिग सत्य कहने की जिम्मेदारी को समझता है पर वह ओथ की प्रकृति को नहीं समझता है। न्यायमूर्ति ने केरल क्रिमिनल रूल ऑफ़ प्रैक्टिस नियमों, 1982 के नियम 55 को भी ध्यान में लिया, जिसके अनुसार यह कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वह एक नाबालिग की साक्ष्य देने की क्षमता की प्रारंभिक जांच करे।
नाबालिग का इस प्रारंभिक जांच के दौरान परीक्षण voir dire परीक्षण कहलाता है जो कि एक फ्रेंच शब्द है, और जिसका अर्थ होता है 'सच बोलना'। न्यायमूर्ति ने ओथ एक्ट, 1969 की धारा 7 का भी उल्लेख किया, जो अन्य बिंदुओं के अतिरिक्त यह भी कहती है कि ओथ न लेने या ओथ लेने में हुई कोई गड़बड़ी की वजह से कार्यवाही और साक्ष्य अमान्य नहीं होंगे। फिर न्यायमूर्ति ने धारा 164, दंड प्रक्रिया संहिता के बयान की प्रोबेटिव वैल्यू पर चर्चा की। बेंच ने कहा कि-
"19 यह कानून की स्वीकार्य स्थिति है कि मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 164(5) के तहत रिकॉर्ड किया गया बयान भी, मात्र विरोधभास प्रस्तुत करने के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकता है। धारा 164(5) के तहत रिकॉर्ड किये गए बयान का अन्यथा कोई महत्व नहीं है, और उसे कोर्ट के समक्ष साक्ष्य के तौर पर नहीं प्रस्तुत किया जा सकता है। उसका धारा 161 के तहत पुलिस द्वारा रिकॉर्ड किये गए बयान के सामान ही मूल्य है और उसका प्रयोग मात्र उन्हीं उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है जो धारा 162 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 145 में दिया गया है। अत: अगर धारा 164(5) के तहत बयान रिकॉर्ड करने में कुछ अनियमितता हो भी गयी तो भी अभियुक्त को किसी तरह का प्रेज्यूडिस नहीं पहुंचता है। प्रस्तुत मामले में यह बिंदु PW1, जो कि एक नाबालिग गवाह है, द्वारा धारा 164 के तहत दिए गए बयान के सन्दर्भ में है।"
3. लेखक, न्यायमूर्ति से इस बिंदु पर सहमति नहीं रखते हैं। यह कथन कि धारा 164(5) के तहत रिकॉर्ड किया गया बयान, धारा 161 के तहत पुलिस द्वारा रिकॉर्ड किये गए बयान के सामान ही मूल्य का है और उसका प्रयोग मात्र उन्हीं उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है जो धारा 162 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 145 में दिया गया है, एक गलत कथन है (जैसा कि इस लेख में आगे प्रस्तुत किया जायेगा)। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत दिए गए ऐसे बयान का प्रयोग मात्र साक्ष्य विधि की धारा 145 के तहत विरोधाभास के लिए ही नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसका प्रयोग साक्ष्य विधि की धारा 157 के तहत पुष्टि करने के लिए भी किया जा सकता है।
धारा 162(1) के प्रोविजो को भी धारा 164 के तहत रिकॉर्ड किये गए बयान में विरोधाभास प्रस्तुत करने के लिए नहीं लागू किया जा सकता क्योंकि ऐसा बयान मजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड किया जाता है पुलिस द्वारा नहीं। साथ ही यह कथन (जो कि रिपोर्टेड फैसले में दिया गया है) कि धारा 164(5) के तहत रिकॉर्ड किये गए बयान का अन्यथा कोई महत्व नहीं है और उसे कोर्ट के समक्ष साक्ष्य के तौर पर नहीं प्रस्तुत किया जा सकता, वह विधायिका द्वारा धारा 164 (5A) में जोड़ी गयी उपधारा (b), जो कि 3 फरवरी 2013 को लागू की गयी है, के मद्देनजर पूर्णत: उचित नहीं है। उपधारा (b) के अनुसार, धारा (5A) उपधारा (a) के तहत रिकॉर्ड किया गया बयान, अगर उस व्यक्ति का है जो मानसिक या शारीरिक रूप से नि:शक्त है, तो उस बयान को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 137 के तहत मुख्य परीक्षा के स्थान पर दिया गया बयान माना जायेगा। अत: उपर्युक्त सीमित उद्देश्य के लिए 164 के तहत दिया गया बयान साक्ष्य माना जायेगा।
धारा 164
4. धारा 164 Cr.P.C. आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 13/2013 और 22/2018 के बाद, निम्नानुसार है:
(1) कोई महानगर मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट, चाहे उस मामले में उसकी अधिकारिता हो अथवा नहीं, इस अध्याय के अधीन या तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि के अधीन किसी अन्वेषण के दौरान या तत्पश्चात जांच या विचारण प्रारंभ होने के पूर्व किसी समय अपने से की गई किसी संस्वीकृति या कथन को अभिलिखित कर सकता है:
· परंतु ये कि इस उपधारा के अधीन की गई संस्वीकृति या कथन अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के अधिवक्ता के समक्ष ओडियो-विडियों इलेक्ट्रॉनिक साधनों से भी अभिलिखित किया जा सकेगा,
· परंतु यह और कि पुलिस अधिकारी द्वारा संस्वीकृति अभिलिखित नहीं की जावेगी, जिस पर मजिस्ट्रेट की शक्ति तत्समय प्रवृत किसी विधि के अधीन प्रदत की गई हो।
(2) मजिस्ट्रेट किसी ऐसी संस्वीकृति को अभिलिखित करने से पूर्व उस व्यक्ति को, जो संस्वीकृति कर रहा है, यह समझाएगा कि वह ऐसी संस्वीकृति करने के लिए आबद्ध नहीं है और यदि उसे करेगा तो वह उसके विरूद्ध साक्ष्य में उपयोग में लाई जा सकती है, और मजिस्ट्रेट कोई ऐसी संस्वीकृति तब तक अभिलिखित न करेगा जब तक उसे करने वाले व्यक्ति से प्रश्न करने पर उसको यह विश्वास करने का कारण न हो कि वह स्वेच्छा से की जा रही है।
(3) संस्वीकृति अभिलिखित किए जाने से पूर्व यदि मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने वाला व्यक्ति यह कथन करता है कि वह संस्वीकृति करने के लिए इच्छुक नहीं है तो मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति के पुलिस की अभिरक्षा में निरोध को प्राधिकृत नहीं करेगा।
(4) ऐसी संस्वीकृति किसी अभियुक्त व्यक्ति की परीक्षा को अभिलिखित करने के लिए धारा 281 में उपबंधित रीति से अभिलिखित की जाएगी और संस्वीकृति करने वाले व्यक्ति द्वारा उस पर हस्ताक्षर किए जाएंगे, और मजिस्ट्रेट ऐसे अभिलेख के नीचे निम्नलिखित भाव का एक ज्ञापन लिखेगा -
'मैंने...... (नाम) को यह समझा दिया है कि वह संस्वीकृति करने के लिए आबद्ध नहीं है और यदि वह ऐसा करता है तो कोई संस्वीकृति, जो वह करेगा, उसके विरूद्ध साक्ष्य भी उपयोग में लाई जा सकती है और मुझे विश्वास है कि यह संस्वीकृति स्वेच्छा से की गई है। यह मेरी उपस्थिति में और मेरे सुनते हुए लिखी गई है और जिस व्यक्ति ने यह संस्वीकृति की है उसे यह पढ़कर सुना दी गई है और उसने उसका सही होना स्वीकार किया है और उसके द्वारा किए गए कथन पूरा और सही वृत्तान्त इसमें है।
(हस्ताक्षर) क. ख. मजिस्ट्रेट"।
(5) उपधारा (1) के अधीन किया गया (संस्वीकृति से भिन्न) कोई कथन साक्ष्य अभिलिखित करने के लिए इसमें इसके पश्चात उपबंधित ऐसी रीति से अभिलिखित किया जाएगा जो मजिस्ट्रेट की राय में, मामले की परिस्थतियों में सर्वाधिक उपयुक्त हो, तथा मजिस्ट्रेट को उस व्यक्ति को शपथ दिलाने की शक्ति होगी जिसका कथन इस प्रकार अभिलिखित किया जाता है।
(5क)(क) भारतीय दंड संहिता की धारा 354, धारा 354-क, धारा 354-ख, धारा 354-ग, धारा 354-घ, धारा 376 की उपधारा (1) या उपधारा (2), धारा 376-क, धारा 376-कख, धारा 376-ख, धारा 376-ग, धारा 376-घ, धारा 376-घक, धारा 376-घख, धारा 376-ड या धारा 509 के अधीन दंडनीय मामलों में न्यायिक मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति का, जिसके विरूद्ध उपधारा (5) में विहित रीति में ऐसा अपराध किया गया है, कथन जैसे ही अपराध का किया जाना पुलिस की जानकारी में लाया जाता है, अभिलिखित करेगा:
· परंतु यदि कथन करने वाला व्यक्ति अस्थायी रूप से मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है, तो मजिस्ट्रेट कथन अभिलिखित करने में किसी द्विभाषिए या विशेष प्रबोधक की सहायता लेगा:
· परंतु यह और कि यदि कथन वाला व्यक्ति अस्थायी या स्थायी रूप से मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है तो किसी द्विभाषिए या विशेष प्रबोधक की सहायता से उस व्यक्ति द्वारा किए कथन की विडियों फिल्म तैयार की जाएगी,
(ख) ऐसे किसी व्यक्ति के, जो अस्थायी या स्थायी रूप से मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है, खंड (क) के अधीन अभिलिखित कथन को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 137 में यथा विनिर्दिष्ट मुख्य परीक्षा के स्थान पर एक कथन समझा जाएगा और ऐसा कथन करने वाले की, विचारण के समय उसको अभिलिखित करने की आवश्यकता के बिना, ऐसे कथन पर प्रतिपरीक्षा की जा सकेगी।
(6) इस धारा के अधीन संस्वीकृति या कथन को अभिलिखित करने वाला मजिस्ट्रेट, उसे उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा जिसके द्वारा मामले की जांच या विचारण किया जाना है।
धारा 164 के तहत कौन संस्वीकृति या बयान रिकॉर्ड कर सकता है?
5. धारा 164(1) किसी भी मेट्रोपोलिटिन या न्यायिक मजिस्ट्रेट को संस्वीकृति या बयान रिकॉर्ड करने की शक्ति देती है।
यह धारा, यह इंगित करती है कि एक न्यायिक मजिस्ट्रेट ही संस्वीकृति या बयान रिकॉर्ड कर सकता है। किसी एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 164(1) के तहत रिकॉर्ड की गई संस्वीकृति पूर्णत: अस्वीकार्य (inadmissible) है। (अस्सिटेंट कमिश्नर ऑफ़ सेंट्रल एक्साइज बनाम डंकन एग्रो इंडस्ट्री लिमिटेड AIR 2000 SC 2901)। धारा 164(1) का प्रोविजो 2 यह स्पष्ट करता है कि एक पुलिस ऑफिसर जिसे किसी कानून के तहत मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ दी गयी हैं, वह धारा 164(1) के तहत संस्वीकृति या बयान रिकॉर्ड नहीं कर सकता है।
हालाँकि मात्र इस बात पर प्रतिबन्ध है कि, न्यायिक मजिस्ट्रेट के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति द्वारा धारा 164 के तहत संस्वीकृति नहीं रिकॉर्ड की जा सकती, पर कोई भी व्यक्ति, एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट 'एक्स्ट्रा जुडिशियल कन्फेशन' रिकॉर्ड कर सकता है। परन्तु एक पुलिस ऑफिसर, भारतीय साक्ष्य विधि की धारा 25 के नियम के कारण संस्वीकृति नहीं रिकॉर्ड कर सकता है।
करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1994) 3 SCC 569 = 1994 Cri.L.J 3139 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जज बेंच ने यह प्रतिपादित किया है कि चूँकि एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट या स्पेशल मजिस्ट्रेट Terrorist and Disruptive Activities (Prevention) Act, 1987 (TADA) की धारा 20(3) के तहत क्रिमिनल कोर्ट की तरह कार्य करने की शक्ति रखते है, अत: वे TADA के तहत अपराध के सम्बन्ध में संस्वीकृति रिकॉर्ड कर सकते है।
क्या मजिस्ट्रेट को जुरिस्डिक्शनल मजिस्ट्रेट होना चाहिए?
6. नहीं। मेट्रोपोलिटिन या कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 (1) के तहत संस्वीकृति या बयान रिकॉर्ड कर सकता है फिर चाहे वह मामला उसके सीमा क्षेत्र का हो या न हो। अत: न्यायिक मजिस्ट्रेट, जो धारा 164(1) के तहत संस्वीकृति या बयान रिकॉर्ड करता है, उसके लिए जरुरी नहीं कि वह जुरिस्डिक्शनल मजिस्ट्रेट हो। यह बात धारा 164(6) से और साफ़ हो जाती है, क्योंकि इस धारा के मुताबिक यह मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह संस्वीकृति या बयान रिकॉर्ड करने के बाद उसे उस मजिस्ट्रेट के पास भेजे जो मामले की इन्क्वायरी कर रहा है या मामले की सुनवाई कर रहा है।
भाग -2 के लिए जुड़े रहिये।
न्यायमूर्ति वी. राम कुमार केरल हाई कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश हैं। इस लेख का हिंदी अनुवाद लाइव लॉ हिंदी टीम ने किया है।