भारत में काफी तरह की कोर्ट हैं, जिन्हें अलग अलग पॉवर्स मिले हुए हैं किसी भी व्यक्ति को सज़ा दिए जाने के लिए। जैसे मजिस्ट्रेट की कोर्ट, सेशन कोर्ट इत्यादि। कोर्ट व्यक्तियों का अपराध में विचारण कर सकते हैं तथा इन व्यक्तियों को उस विचारण के परिणामस्वरूप दंड भी दे सकते हैं। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 21 के अंतर्गत कोर्ट का उल्लेख किया गया है जो किसी क्राइम का विचारण करते हैं तथा भारत में किसी क्राइम के संबंध में विचारण करने की शक्ति इन्हें प्राप्त है।
इस धारा के अंतर्गत निम्न न्यायालयों को किसी भी अपराध में विचारण करने की शक्ति प्राप्त होगी-
हाईकोर्ट-
सेशन कोर्ट-
वह न्यायालय जिसका उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है-
'बलात्कार के मामले में केवल स्त्री पीठासीन अधिकारी ही मामले का विचारण कर सकती है'
यदि कोई विशेष विधि है और उस विशेष विधि के अंतर्गत किसी मामले का विचारण करने के लिए किसी न्यायालय को शक्तियां दी गई है तो उस विशेष न्यायालय द्वारा मामले का विचारण कर लिया जाएगा यदि उस विशेष विधि में यह उल्लेखित नहीं किया गया है कि किस न्यायालय द्वारा मामले का विचारण किया जाएगा तो ऐसी परिस्थिति में-
हाईकोर्ट
ऐसा न्यायालय जिसका उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है।
सुधीर बनाम मध्यप्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां एक ही घटना से संबंधित दो मामले हो जिनमें एक की सुनवाई की अधिकारिता सेशन कोर्ट को हो तथा दूसरे की मजिस्ट्रेट को तो ऐसी दशा में उन दोनों ही मामलों की सुनवाई सेशन कोर्ट द्वारा की जा सकती है तथा मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण योग्य मामलों को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित किया जाना आवश्यक नहीं है।
इस धारा में कहीं भी विचारण के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का नाम नहीं आता है। किसी भी विचारण को सुप्रीम कोर्ट नहीं करता है अपराधों का विचारण बीएनएसएस के अंतर्गत केवल इन्हीं कोर्ट द्वारा किया जाता है।
हाईकोर्ट और सेशन कोर्ट क्या सज़ा दे सकते हैं
यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि हाई कोर्ट एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे और कितनी कितनी अवधि के दंड दिए जाने की शक्ति इन दोनों न्यायालयों को प्राप्त है।
इस प्रश्न का उत्तर हमें बीएनएसएस की धारा 22 में प्राप्त होता है जहां यह बताया गया है कि हाई कोर्ट एवं सेशन कोर्ट क्या दंड दे सकेंगे एवं दंड देने में इन दोनों न्यायालय को क्या शक्तियां प्राप्त है।
बीएनएसएस की धारा 22 के अंतर्गत मुख्य तीन न्यायालयों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा दंड दिया जाता है।
हाई कोर्ट-
हाईकोर्ट विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंड दे सकता है जिस दंड को भारतीय दंड विधि में भारतीय संसद द्वारा पारित अधिनियम के माध्यम से अधिनियमित किया गया है,वह दंड हाई कोर्ट द्वारा दिया जा सकता है। ऐसा दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है।
दंड दिए जाने के संबंध में हाई कोर्ट भारतीय दंड व्यवस्था की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था है। जो किसी भी भांति का दंड दे सकती है प्रवृत विधि में जो भी दंडो का उल्लेख किया गया है वह दंड हाई कोर्ट द्वारा दिए जा सकेंगे।
सेशन कोर्ट द्वारा दी जाने वाली सज़ा
बीएनएसएस की धारा 22 के अंतर्गत सेशन कोर्ट का उल्लेख किया गया है। सेशन कोर्ट को कितने भागों में बांटा जा सकता है एवं कौन-कौन से कोर्ट सेशन कोर्ट कहलाएंगे एवं जिन के पीठासीन अधिकारी जज कहलाएंगे। जज को दंड देने की शक्ति कहां तक होगी।
सेशन जज
कोई भी सेशन जज विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी सज़ा दे सकता है लेकिन सेशन कोर्ट द्वारा दिया जाने वाला मृत्युदंड हाई कोर्ट द्वारा पुष्ट किए जाने की आवश्यकता होगी।
किसी भी सेशन जज द्वारा दिया गया मृत्युदंड हाई कोर्ट द्वारा पुष्ट किया जाता है। जब हाई कोर्ट किसी भी सिद्धदोष को दिए मृत्युदंड को पुष्ट कर देता है तो ही वह मृत्युदंड मान्यता रखता है।
अपर सेशन जज
कोई भी अपर सेशन जज वह सभी दंड दे सकता है जो सेशन जज दे सकता है।
असिस्टेंट सेशन जज
असिस्टेंट सेशन जज मृत्यु दंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक की कारावास की अवधि के सिवाय कोई भी दंडादेश दे सकता है। असिस्टेंट सेशन जज मृत्युदंड आजीवन कारावास और 10 वर्ष के ऊपर का कारावास नहीं दे सकता है। उसे केवल किसी भी सिद्धदोष को 10 वर्ष तक कारावास दिए जाने की शक्ति प्राप्त है।
किसी भी मामले में जज कितना दंड देंगे, दंड की अवधि जज के विवेक पर निर्भर होगी। हाई कोर्ट ने मध्यप्रदेश राज्य बनाम घनश्याम सिंह के वाद में यह स्पष्ट किया है कि उस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जिसके लिए किसी अभियुक्त को दंडित किया जाता है यह सर्वसाधारण नियम नहीं बनाया जा सकता कि विचारण में अत्यधिक विलंब के सभी मामलों में अभियुक्तों को न्यूनतम दंड से दंडित किया जाना उचित होगा। दूसरे शब्दों में या कहा जा सकता है कि विचारण का लंबे समय तक लंबित रहना स्वयमेव अभियुक्त को कम दंड दिए जाने का उचित कारण नहीं माना जाना चाहिए।
किसी भी कोर्ट द्वारा सज़ा की अवधि जज के विवेक पर निर्भर करती है परंतु ऐसा विवेक भी युक्तियुक्त होना चाहिए। कोई भी अपराध में दंड अपराध की गंभीरता को देख कर दिया जाना चाहिए।
कर्नाटक राज्य बनाम राजू के बाद में कुछ ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें 10 वर्ष की बच्ची का बलात्कार करने वाले अभियुक्त को 7 वर्ष के कारावास से दंडित किया गया था लेकिन कर्नाटक हाई कोर्ट की एकल पीठ में दंड को कम करके 3 वर्ष 6 माह का कर दिया था।
हाईकोर्ट ने इस निर्णय की भर्त्सना की थी तथा कम से कम 10 वर्ष तक का दंड इस अपराध में दिए जाने के संदर्भ में उल्लेख किया था। हालांकि बाद में बलात्कार जैसे अपराध में भारतीय दंड संहिता में संशोधन कर दिए गए तथा बलात्कार में मृत्युदंड तक का प्रावधान रख दिया गया है।