The Indian Contract Act में Lawful Consideration का महत्व

Update: 2025-08-18 10:42 GMT

किसी भी करार में विधिपूर्ण प्रतिफल का होना नितांत आवश्यक होता है। विधिपूर्ण प्रतिफल के साथ विधिपूर्ण उद्देश भी होना चाहिए। यदि किसी करार में विधिपूर्ण उद्देश्य नहीं होता है तथा विधिपूर्ण प्रतिफल का अभाव होता है तो उस करार को शून्य करार कहा जाता है अर्थात ऐसे करार का प्रारंभ से ही कोई अस्तित्व नहीं रहता है। यदि किसी करार के सक्षम पक्षकार नहीं होते हैं और किसी करार में स्वतंत्र सहमति नहीं होती है तो इस प्रकार के करार को व्यथित पक्षकार की इच्छा पर शून्यकरणीय कोर्ट द्वारा घोषित कर दिया जाता है परंतु यहां पर जो करार शून्य करार होते हैं वह किसी भी पक्षकार की इच्छा पर प्रवर्तनीय नहीं होते हैं क्योंकि यह करार तो प्रारंभ से ही शून्य करार होते हैं, इन करार का कोई अस्तित्व ही नहीं होता है।

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 24 और 25 किसी करार के इस कारण शून्य होने की घोषणा करती है कि उस करार में विधिपूर्ण प्रतिफल नहीं होता है। अधिनियम की धारा 24 के अनुसार यदि प्रतिफल और का उद्देश्य भगताः विधि विरुद्ध है ऐसी स्थिति में करार शून्य होंगे अर्थात किसी करार का प्रतिफल का कुछ भाग यदि विधि विरुद्ध है तो वह करार शून्य होगा। यदि एक से अधिक उद्देश्यों के लिए किसी एक प्रतिफल का भाग या किसी एक उद्देश्य के लिए कई प्रतिफलों में से कोई एक या किसी एक का कोई भाग विधि विरुद्ध हो तो ऐसी स्थिति में किसी करार का कोई भाग विधि विरुद्ध होने पर शून्य करार होगा।

रवि श्याम की किसी फैक्ट्री में जहां लोहा बनाने का काम चलता है सुपरवाइजर का काम करता है तथा ऐसा काम करने के लिए श्याम ने उसे दस हज़ार रूपये प्रति माह देने का वचन दिया परंतु श्याम की फैक्ट्री में चोरी के लोहे को गला का लोहा बनाया जा रहा था तो ऐसी परिस्थिति में यह प्रतिफल वैध नहीं होगा तथा यदि श्याम रवि को रुपये देने से इंकार कर दे तो रवि श्याम से किसी प्रकार का अनुतोष नहीं पा सकता है।

नारायणमूर्ति बनाम रामलिंगम 1933 मद्रास 187 के प्रकरण में पक्षकारों द्वारा यह अभिवचन नहीं प्रस्तुत किया जाता है कि करार अवैध है वहां यदि कोर्ट यह पाता हैं कि संविदा अवैध है तो यह कोर्ट का कर्तव्य है कि उक्त संविदा को इंफोर्स न होने दें।

एक अन्य प्रकरण में इलाहाबाद हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने यह बात स्पष्ट की है कि यदि इस बात की कोई अवधारणा नहीं है कि संविदा अवैध है दूसरी और यह उपधारणा है कि अन्य रूप में पक्षकार जो संविदा अवैध होने की धारणा करता है तो उसे कोर्ट के सम्मुख वैसा साबित करना पड़ेगा तथा कोर्ट संविदा की वैधता पर विचार करेगा।

यह विधि का सिद्धांत है कि जब दोनों पक्षकारों का दोष बराबर होता है तो विधि उनके मध्य हस्तक्षेप नहीं करती है। हानि जहां होती है वहीं रहने दी जाती है कोई भी एक पक्ष कारण कोई धन्य संपदा अथवा मुद्रा दूसरे पक्षकार को दी है तो ऐसी स्थिति में जो कोई मुद्रा या वस्तु पक्षकार द्वारा दी गई है और मुद्रा या वस्तु कोर्ट के जरिए वसूल नहीं किया जा सकता पर दोनों पक्षकार बराबर के दोषी नहीं है तो इस स्थिति में करार के अधीन वह हस्तांतरित मुद्रा या वस्तु को वापस ले सकता है।

इस प्रश्न से संबंधित व्यथा भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 65 में हल होती है। इस धारा के अनुसार उस व्यक्ति को जो करार कर रहा है करार के शून्य होने की जानकारी नहीं है जबकि करार प्रारंभिक रूप से ही शून्य था और बाद में यह पता चलता है कि करार शून्य हैं तो ऐसी स्थिति में करार के अंतर्गत लाभ प्राप्त करने वाला व्यक्ति उस लाभ को वापस करने के लिए बाध्य होगा।

काली कुमारी बनाम मोनोमोहिनी 1935 कोलकाता 748 के प्रकरण में कोलकाता हाईकोर्ट ने कहा है कि जब कोई करार अवैध होता है अथवा अनैतिक होता है तो उक्त करार के अधीन दिए गए ऋण की वसूली नहीं की जा सकती है।

वादी और प्रतिवादी दोनों के मध्य विश्वास का संबंध है तो वादी अवैध संविदा के अंतर्गत दी गई रकम की वसूली करने के लिए अधिकृत होगा।

किसी वचन के लिए दिया गया प्रतिफल अविधिपूर्ण है तो उसका प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता परंतु यदि प्रतिज्ञा का प्रतिफल आंशिक रूप से विधिपूर्ण और आंशिक रूप से विधि विरुद्ध है ऐसी स्थिति में उक्त दोनों भागो को अलग अलग कर दिया जा सकता है तथा प्रतिज्ञा अथवा वचन का वह भाग जिसका विधिपूर्ण प्रतिफल है यह प्रवर्तनीय होगा परंतु जो भाग विधि विरुद्ध है वह शून्य होगा और उसे प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता है।

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