ट्रायल के पहले और ट्रायल के बाद जेल के पीरियड को कैसे एडजस्ट किया जाता है?

Update: 2024-11-26 03:59 GMT

क्रिमिनल केस में किसी दोषसिद्ध व्यक्ति को उसके दोषसिद्ध होते होते संज्ञेय अपराध के मामले में लंबे समय तक कारावास में रहना होता है। न्यायालय द्वारा अभियुक्त को जमानत पर छोड़ दिए जाने का अधिकार प्राप्त होता है। विचारण की समाप्ति के पश्चात अभियुक्त को दंडादेश दिया जाता है। अपील के निपटारे तक भी अभियुक्त को जमानत पर छोड़ा जाता है तथा उसके दंड का निलंबन अपील के निपटारे तक किया जाता है।

BNSS की धारा 468 ऐसी व्यवस्था का उल्लेख करती है जिसके अंतर्गत कोई अभियुक्त जांच ,अन्वेषण और विचारण तथा अपील के निपटारे तक जिस कारावास को भोग लेता है उस कारावास की अवधि को उसे दिए गए कारावास के दंडादेश की संपूर्ण अवधि में से घटा दिया जाता है। इस प्रक्रिया को निरोध की अवधि का कारावास के दंडादेश के विरुद्ध सेट ऑफ किया जाना कहा जाता है।

जहां अभियुक्त के दोषसिद्ध होने पर उसे किसी अवधि के लिए कारावास से दंडित किया गया है वहां उसी मामले में जांच, अन्वेषण और विचारण के दौरान और दोषसिद्धि के पहले उसके द्वारा भोगे गए निरोध यदि कोई हो की अवधि को उसे दिए गए कारावास की अवधि से सेट ऑफ़ किया जाता है।

BNSS की धारा 468 का एक महत्वपूर्ण उपबंध यह भी है कि यदि कोई व्यक्ति निवारक निरोध (प्रिवेंशन डिटेंशन) में था तो इस अवधि की सेट ऑफ़ अपराधी के दोषसिद्ध होने पर कारावास के दंड के विरुद्ध नहीं की जा सकती है।

राज्य को अपराध रोकने हेतु अनेक मामलों में अभियुक्तों को निवारक निरोध (prevention ditention) के अंतर्गत निरुद्ध रखना होता है। ऐसे निवारक निरोध के अंतर्गत यदि किसी अभियुक्त को निरुद्ध रखा जाता है जितने समय के लिए उस अभियुक्त को निरुद्ध रखा गया है उस समय अवधि को किसी दोषसिद्धि के दंडादेश की समय अवधि में से नहीं घटाया जाता है।

करतार सिंह बनाम हरियाणा राज्य के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने आजीवन कारावास के कैदी को धारा 428(CRPC) के अधीन सेट ऑफ के फायदे का हकदार नहीं माना है लेकिन इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने भागीरथी बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में उलट दिया। विचाराधीन( Under trial) बंदियों की करावधि को उनकी दोषसिद्धि के पश्चात दी गई कारावास की सजा में से सेट ऑफ करने का यह प्रावधान कारागृह में कैदियों की भीड़ को कम करने का एक प्रभावी उपाय माना गया है।

बाउचर पियरे एंड्री विरुद्ध अधीक्षक केंद्रीय जेल सुप्रीम कोर्ट के मामले में महत्वपूर्ण मार्गदर्शक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं वह सिद्धांतों में निम्न है-

इस धारा के उपबंध तभी लागू होंगे जब विचाराधीन कैदी को दोषसिद्धि के फलस्वरुप किसी अवधि के कारावास के दंड से दंडित किया गया हो।

यदि करावधि संहिता के लागू होने के पूर्व ही समाप्त हो चुकी हो तो इस धारा के उपबंधों को लागू होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

निरोध की अवधि को कारावास की अवधि में से सेट ऑफ ना किए जाने के लिए यह कारण पर्याप्त नहीं होगा कि अभियुक्त को कारावास का दंडादेश देते समय उसकी दोषसिद्धि के पूर्व निरोध की अवधि को ध्यान में रखा गया है।

धारा 468 के अधीन सेट ऑफ का फायदा ऐसे व्यक्ति को नहीं दिया जा सकेगा, जो सेना न्यायालय (कोर्ट मार्शल) द्वारा सिद्धदोष किया गया है। अतः सेना न्यायालय में विचारण के दौरान उसके निरोध को कारावास की अवधि में से मुजरा नहीं किया जाएगा। सेना, नौसेना तथा वायु सेना अधिनियम विशेष विधियां हैं जिन पर BNSS के प्रावधान लागू नहीं होते।

जहां अभियुक्त को हत्या तथा नशाखोरी के लिए अलग-अलग अपराधों के लिए दोषसिद्ध किया गया है और उसे हत्या के अपराध के विचारण के लिए निरुद्ध रखा गया है तथा नशाखोरी के अपराध के मामले में ऐसी सेट ऑफ की मांग नहीं कर सकेगा।

विचारण और अन्वेषण की अवधि में अभियुक्त यदि उतने समय तक कारागार में निरुद्ध होता है जितने समय का उसे सिद्धदोष होने पर दंडादेश दिया गया है तो ऐसी परिस्थिति में अभियुक्त को किसी भी अवधि के लिए परिरुद्ध नहीं रखा जा सकता है अर्थात यदि अभियुक्त को 6 माह का कारावास दोषसिद्ध होने पर दिया जाता है और अभियुक्त ऐसे दंडादेश के पूर्व ही अन्वेषण और जांच की अवधि में 6 माह का कारावास काट चुका है तो उसे पुनः करवासित नहीं किया जाएगा।

रघुवीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिश्चित किया कि किसी पूर्ववर्ती मामले में कारावास का दंड भोगते हुए जो करावधि किसी अन्य मामले की जांच या विचारण में व्यतीत होती है पश्चातवर्ती मामले में दी गई करावधि से सेट ऑफ नहीं किया जा सकेगा।

अभियुक्त को सेट ऑफ का अधिकार केवल उस ही प्रकरण में प्राप्त होता है जिस प्रकरण में उसे दोषसिद्ध किया गया है तथा उसी प्रकरण में उसे अन्वेषण और जांच के अंतराल में करवासित किया गया था। दो अलग-अलग प्रकरणों में सेट ऑफ नहीं किया जाएगा।

अब्दुल अजीज बनाम सहायक कलेक्टर केरल के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि कारावास के दंड में से उसकी निवारक निरोध की अवधि का सेट ऑफ धारा 428(CRPC) इसके अंतर्गत अनुज्ञेय नहीं है क्योंकि निवारक निरोध को करावधि नहीं माना गया है।

किसी भी व्यक्ति को निवारक निरोध के अंतर्गत करवासित इसलिए नहीं किया जाता है क्योंकि उसे कोई कोई दंडादेश दिया गया है अपितु उसे करवासित इसलिए किया जाता है क्योंकि राज्य उस के संदर्भ में उसके द्वारा किसी अपराध के घटित होने का संदेह रखता है तथा निवारक निरोध कानून अपराधों को रोकने के लिए होता है तथा कोई दंडादेश किसी व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध के पश्चात दिया जाता है।

एक मामले में अभियुक्तों को न्यायालय द्वारा दोषमुक्त कर दिया गया था। इसके पश्चात उसे निवारक निरोध में रखा गया इसके बाद राज्य द्वारा अभियुक्त की दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की जाने पर उसे सिद्धदोष ठहराया गया। अभियुक्त ने निवारक निरोध की अवधि को कारावास की सजा में से सेट ऑफ की मांग की थी। इस पर कोर्ट ने यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त का निरोध ना तो दोषसिद्धि के अनुसरण में था और ना ही विचारण की अवधि में था तथा उसे धारा 428(CRPC) के अधीन कारावास के दंड में से सेट ऑफ नहीं किया जा सकता।

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