एग्रीकल्चर लैंड के बंटवारे का मतलब होता है किसी भी ज़मीन के सभी मालिकों को या फिर कुछ मालिकों को अपने हिस्से की ज़मीन का सेपरेट ओनर बना देना।
बंटवारे की प्रोसेस
जैसे एक व्यक्ति के पास में कुछ खेती की जमीन थी और उस व्यक्ति की मृत्यु बगैर कोई वसीयत किए हो जाती है तब ऐसे व्यक्ति की जमीन उसके उत्तराधिकारियों के पास चली जाती है। अब यहां पर उस व्यक्ति के दो बेटे और एक विधवा है। इस स्थिति में तीनों ही बराबर के हिस्सेदार होते हैं। अगर खतौनी में नाम उस मरने वाले व्यक्ति का दर्ज है तब यह तीनों ही उत्तराधिकारी अपना नाम दर्ज करवाने के अधिकारी होते हैं।
यदि यह चाहे तो एक साधारण सी प्रक्रिया के पूरा होने के बाद पटवारी के पास आवेदन लगाकर खतौनी में उन तीनों का नाम जुड़वा सकते हैं लेकिन अगर इन तीनों पक्षकारों में कोई एक पक्षकार या कोई दो पक्षकार एक साथ नाम जोड़े जाने के पक्ष में नहीं होते हैं तब उन्हें बंटवारे के लिए एक सिविल सूट लगाना होता है। उसके बाद ही ऐसी खेती की जमीन का बंटवारा हो सकता है।
कहां दर्ज़ होता है सिविल सूट
बंटवारे का ऐसा सिविल सूट एसडीएम की कोर्ट में दर्ज होता है जिसे हिंदी में उपखंड अधिकारी कहा जाता है। यह आमतौर पर उस गांव की लगने वाली तहसील में बैठते हैं जहां वह जमीन स्थित होती है। यहां पर एक सिविल सूट दाखिल करना होता है जिसमें जो पक्षकार बंटवारा चाहता है वह उस जमीन में अपना हित साबित करता है। यह साबित करता है कि जमीन उसके पिता की है उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है ऐसी स्थिति में उस जमीन के तीन उत्तराधिकारी हैं, उन तीन उत्तराधिकारियों में एक उत्तराधिकारी वह हैं और उसे अपनी जमीन संयुक्त खतौनी में नहीं चाहिए अपितु वह उस जमीन को अलग से अपने नाम पर रजिस्टर्ड करवाना चाहता है।
ऐसे सिविल सूट में बाकी के उत्तराधिकारियों और राज्य सरकार को भी पार्टी बनाया जाता है। सभी पक्षकारों को इससे संबंधित नोटिस जारी किए जाते हैं और उपखंड अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर अपना पक्ष रखने को कहा जाता है। जिस पक्षकार के पास अपना पक्ष रखने की जो बात होती है वह न्यायालय के समक्ष रख देता है। उन सभी बातों का अवलोकन किया जाता है और विवाद के तथ्य लिखे जाते हैं जिन्हें इश्यू कहा जाता है।
ऐसे इश्यू लिखने के बाद उनसे संबंधित सबूतों को उपखंड अधिकारी मंगवाता है जो पक्षकार अपने सबूत अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करते हैं उसके वाद को स्वीकार कर लिया जाता है और यदि बंटवारा होने के लिए स्थिति उत्पन्न है और जिस पक्षकार द्वारा बंटवारे का दावा किया गया है उसके पास जमीन में उत्तराधिकार स्पष्ट रूप से दिख रहा है वहां उपखंड अधिकारी डिक्री पारित कर देता है।
यदि उपखंड अधिकारी द्वारा बंटवारे की डिक्री पारित कर दी जाती है तब उस गांव के पटवारी को बुलवाया जाता है। उपखंड अधिकारी पटवारी को यह आदेश करता है कि वह बंटवारे से संबंधित प्रस्ताव न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें। पटवारी का यह कर्तव्य होता है कि वह बंटवारे के संबंध में कुछ प्रस्ताव बना कर लाए जैसे कि कोई एक हेक्टर जमीन है और उसके तीन अधिकारी हैं तब पटवारी तीनों के हिस्से जमीन में अलग-अलग लिखकर लाता है और न्यायालय से यह कहता है कि उसके अनुसार जमीन को इन तीन हिस्सों में इस तरह बांटा जा सकता है जिससे सभी पक्षकारों को अपने-अपने रास्ते प्राप्त हो जाए और किसी भी प्रकार का अन्याय नहीं हो।
इसके बाद प्रस्ताव रखे जाते हैं। पक्षकारों की सहमति उन प्रस्ताव के संबंध में ली जाती है जिन प्रस्तावों पर पक्षकार सहमत हो जाते हैं उसके अनुसार भूमि का बंटवारा कर दिया जाता है लेकिन अगर पक्षकार सहमत नहीं होते हैं तब उपखंड अधिकारी का निर्णय अंतिम निर्णय होता है। उपखंड अधिकारी जिस प्रकार के बंटवारे की आज्ञा देता है बंटवारा उस प्रकार से कर दिया जाता है। जमीन का सीमांकन सभी पक्षकारों के हक में बराबर बराबर कर दिया जाता है। जितना अधिकार जिस पक्षकार के पास होता है उसे उतना मिल जाता है और उसके नाम से एक अलग खतौनी जिसे जमीन का खाता भी कहा जा सकता है बना दिया जाता है तथा राजस्व के रिकॉर्ड में दर्ज कर दिया जाता है।
कितनी होती है कोर्ट फीस
जैसे कि किसी भी सिविल सूट में कोर्ट फीस देना होती है यह कोर्ट फीस न्यायालय में जमा होती है खेती की जमीन के मामले में कोर्ट फीस अत्यंत नाम मात्र की होती है।
इसके बाद जिस व्यक्ति के नाम राजस्व में जमीन को दर्ज कर दिया जाता है वह व्यक्ति जमीन का स्वामी हो जाता है तथा फिर वह जमीन के संबंध में कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होता है। ऐसे बंटवारे की डिक्री इसका सबूत होती है और साथ ही पटवारी द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रस्ताव भी इसके सबूत होते हैं तथा जिस प्रकार से जमीन उसके पूर्वजों को प्राप्त हुई थी उसके दस्तावेज सभी पक्षकारों को उपलब्ध करवा दिए जाते हैं।
लेकिन यहां ध्यान देना चाहिए कि अगर जमीन पर किसी प्रकार का कोई कर्ज़ है तब उस जमीन का बंटवारा नहीं होता है। पहले पक्षकारों से उस कर्ज़ को अदा करने के लिए कहा जाता है। कर्ज की अदायगी के बाद ही उस का बंटवारा होता है क्योंकि पक्षकारों का यह दायित्व है कि जिस जमीन को उत्तराधिकार में प्राप्त कर रहे हैं उस जमीन से संबंधित सभी कर्ज को भी अदा करें।
यही प्रक्रिया स्वयं द्वारा अर्जित की गई संपत्ति के मामले में भी लागू होती है। जैसे कि कभी-कभी यह होता है सभी पक्षकार मिलकर कोई एक जमीन खरीदते हैं और किसी एक खतौनी में सभी पक्षकारों के नाम दर्ज होते हैं तब वह भी इस प्रक्रिया से जमीन का बंटवारा कराने के अधिकारी होते हैं।