धारा 167(2) राज्य की जांच प्रक्रिया और व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के बीच संतुलन कैसे करती है?
सुप्रीम कोर्ट ने फखरे आलम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में फिर से यह स्पष्ट किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code) की धारा 167(2) आरोपी के मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) की रक्षा में कितनी महत्वपूर्ण है।
इस निर्णय ने इस बात को रेखांकित किया कि संवैधानिक गारंटी (Constitutional Guarantees) और वैधानिक प्रावधानों (Statutory Provisions) के बीच संतुलन कैसे बनाए रखा जाए। अदालत ने प्रक्रियात्मक सुरक्षा (Procedural Safeguards) और संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत दिए गए अधिकारों को आपस में जोड़ा है।
धारा 167(2) और डिफॉल्ट बेल: मौलिक अधिकार (Fundamental Right)
Cr.P.C. की धारा 167(2) यह सुनिश्चित करती है कि यदि जांच एजेंसी समय-सीमा (Time Limit) के भीतर चार्जशीट (Charge Sheet) दाखिल नहीं करती है, तो आरोपी को डिफॉल्ट बेल (Default Bail) का अधिकार होगा।
यह समय-सीमा गंभीर अपराधों (Serious Offenses) के लिए 90 दिन और अन्य मामलों के लिए 60 दिन है। इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि राज्य की प्रक्रिया में देरी के कारण किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता (Liberty) का हनन न हो।
फखरे आलम के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बिक्रमजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (2020) के फैसले को दोहराया, जिसमें यह कहा गया था कि धारा 167(2) के तहत डिफॉल्ट बेल केवल एक वैधानिक अधिकार (Statutory Right) नहीं है, बल्कि यह मौलिक अधिकार है।
यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया" (Procedure Established by Law) से निकलता है।
UAPA के तहत समय-सीमा का महत्व (Significance of Timelines Under UAPA)
विशेष कानूनों जैसे कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) के तहत चार्जशीट दाखिल करने की समय-सीमा 180 दिन होती है, बशर्ते जांच एजेंसी (Investigating Agency) सक्षम न्यायालय (Competent Court) से अनुमति प्राप्त करे।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उत्तर प्रदेश राज्य में उस समय विशेष अदालतों (Special Courts) की अनुपस्थिति समय-सीमा के उल्लंघन का आधार नहीं हो सकती।
अदालत ने विनय त्यागी बनाम इरशाद अली (2013) मामले का हवाला दिया, जिसमें प्राथमिक चार्जशीट (Primary Charge Sheet) और पूरक चार्जशीट (Supplementary Charge Sheet) के बीच अंतर को स्पष्ट किया गया था। अदालत ने कहा कि पूरक चार्जशीट दाखिल करना वैध है, लेकिन यह 180 दिनों की समय-सीमा का विस्तार करने का आधार नहीं हो सकता।
डिफॉल्ट बेल: प्रक्रियात्मक और संवैधानिक आयाम (Procedural and Constitutional Dimensions)
सुप्रीम कोर्ट ने राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य (2017) के फैसले को दोहराते हुए कहा कि डिफॉल्ट बेल के लिए मौखिक आवेदन (Oral Application) भी पर्याप्त है, यदि आरोपी धारा 167(2) के तहत दी गई शर्तों को पूरा करता है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि प्रक्रियात्मक तकनीकी (Procedural Technicalities) मौलिक अधिकारों के प्रयोग में बाधा नहीं बन सकती।
अदालत ने UAPA के कठोर परिणामों पर भी जोर दिया, जिनमें कड़ी सजा (Stringent Punishment) और जमानत के सीमित अवसर शामिल हैं। इस कारण, अदालत ने प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की कड़ी व्याख्या को अनिवार्य बताया।
न्यायिक निगरानी और अनुच्छेद 21 (Judicial Oversight and Article 21)
इस फैसले ने न्यायपालिका की भूमिका को मौलिक अधिकारों की संरक्षक (Guardian of Rights) के रूप में रेखांकित किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 167(2) राज्य की जांच प्रक्रिया और व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के बीच संतुलन बनाती है।
समय-सीमा का सख्ती से पालन कर अदालत यह सुनिश्चित करती है कि प्रक्रियात्मक देरी को असीमित हिरासत (Indefinite Detention) का माध्यम न बनाया जाए।
फखरे आलम का फैसला यह याद दिलाता है कि प्रक्रियात्मक सुरक्षा (Procedural Safeguards) मौलिक अधिकारों की रक्षा का अभिन्न अंग है। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 167(2) की व्याख्या इस प्रकार की है कि यह संवैधानिक प्रावधानों (Constitutional Mandates) के साथ तालमेल रखे।
अदालत ने यह सुनिश्चित किया है कि प्रशासनिक लापरवाही (Administrative Inefficiencies) या प्रक्रियात्मक चूक (Procedural Lapses) के कारण व्यक्ति की स्वतंत्रता से समझौता न हो। यह निर्णय कानून के शासन (Rule of Law) और न्याय के प्रति न्यायपालिका की प्रतिबद्धता का प्रतीक है।