हिन्दू विधि भाग 9 : जानिए हिन्दू मैरिज एक्ट के अधीन पत्नी को तलाक के क्या विशेषाधिकार प्राप्त हैं और पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद क्या होता है
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ( (The Hindu Marriage Act, 1955) की धारा 13 के अंतर्गत तलाक की व्यवस्था की गई है। लेखक द्वारा इससे पूर्व का लेख धारा 13 के अंतर्गत विवाह के पक्षकार पत्नी और पत्नी दोनों को समान रूप से प्राप्त विवाह के आधारों पर विस्तारपूर्वक लिखा गया था।
यह लेख केवल पत्नी को प्राप्त तलाक के कुछ विशेषाधिकार और पारस्परिक विवाह विच्छेद के संबंध में लिखा जा रहा है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 की उपधारा (2) के अनुसार पत्नी को तलाक के कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इन विशेषाधिकारों की संख्या चार है। चार आधार ऐसे हैं, जिन पर केवल पत्नी द्वारा जिला न्यायालय के समक्ष तलाक की अर्जी प्रस्तुत की जा सकती है। यह अधिकार विवाह के पक्षकारों में केवल पत्नी को प्राप्त होते हैं तथा इन अधिकारों के अंतर्गत पति तलाक की अर्जी प्रस्तुत नहीं करता है।
धारा 13 उपधारा 2- (हिन्दू विवाह अधिनियम 1955)
उपधारा 2 के अधीन पत्नी को विवाह विच्छेद की अर्जी प्रस्तुत करने के लिए दिए गए आधार निम्न हैं-
1)- पति द्वारा एक से अधिक पत्नियां रखना-
वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम एक पत्नी के सिद्धांत पर अधिनियमित किया गया है। यह अधिनियम बहुपत्नी प्रथा का समर्थन नहीं करता है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 की उपधारा 2 के खंड 1 के अंतर्गत कोई भी हिंदू पत्नी इस अधिनियम के अंतर्गत अनुष्ठापित किए गए किसी मान्य विवाह में अपने पति द्वारा एक से अधिक पत्नियां रखने पर तलाक की अर्जी जिला न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर सकती है। इस प्रावधान की शर्त यह है कि जिस समय पत्नी तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर रही है उस समय पति द्वारा की गई दूसरी पत्नी जीवित होना चाहिए।
एक पत्नी के रहते हुए यदि पति दूसरी महिला से भी विवाह रचा लेता है तो ऐसी परिस्थिति में इस विवाह अधिनियम के अंतर्गत मान्य विवाह के अनुसार पत्नी तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर सकती है।
वैंकेयाटम्मा बनाम पटेल वेंकटस्वामी एआईआर 1963 मैसूर 118 के प्रकरण में यह कहा गया है कि कभी-कभी पति के लिए ऐसी परिस्थिति दुखदायक हो सकती है, जिसमें दोनों पत्नियों का साथ खोना होता है। एक पत्नी तो मृत्यु को प्राप्त हो गई और दूसरी को विवाह विच्छेद का उपचार मिल गया। न्यायालय इस प्रावधान को लागू करने के लिए बाध्य है क्योंकि इसकी भाषा पूर्णता स्पष्ट है, जहां पति ने अधिनियम के लागू होने के पश्चात विवाह कर लिया हो वहां प्रथम पत्नी इस प्रावधान के अधीन विवाह विच्छेद के लिए आवेदन कर सकती है। दूसरी पत्नी को यह अधिकार प्राप्त नहीं है क्योंकि दूसरा विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 के अनुसार मान्य हिंदू विवाह नहीं होता है।
लक्ष्मी बनाम अलगिरी एआईआर 1975 मद्रास 211 के प्रकरण में पति की दो पत्नियां अधिनियम के पारित होने के 6 वर्ष पूर्व से साथ साथ रह रही थी। वह दोनों की ही कोई संतान नहीं थी। यह निर्धारित किया गया कि दूसरी पत्नी विवाह विच्छेद की याचिका प्रस्तुत नहीं कर सकती। याचिका प्रस्तुत करने के पश्चात और विचारण के दौरान दूसरी पत्नी से विवाह विच्छेद भी हो जाता है प्रथम पत्नी की विवाह विच्छेद की याचिका को प्रभावित नहीं करेगी।
राम सिंह बनाम सुशीलाबाई एआईआर 1970 मैसूर 20 में पति ने दूसरी महिला के साथ ताली और कलावा बांधा था। यह एक शास्त्रीय पुरोहित की उपस्थिति में किया गया था। न्यायालय ने यह अभिमत प्रकट किया कि केवल हाथ में ताली बांधने से भी विवाह सिद्ध नहीं हो जाता है क्योंकि शास्त्रीय पुरोहित संस्कृत नहीं जानता था अतः वह सप्तपदी नहीं करा सकता था।
इन आधारों पर न्यायालय ने अभिमत प्रकट किया कि अभियुक्त पति ने विपक्षी पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह नहीं किया वह प्रथम पत्नी ही उसकी सभी प्रयोजनों के लिए पत्नी थी। हालांकि बाद के निर्णय में यह आलोच्य माना गया क्योंकि इसके पहले के निर्णय पक्षकारों के आशय से संबंधित थे तथा इस निर्णय में पक्षकारों के आशय की अवहेलना की गई।
उपधारा (2) खंड (2)- 2)-
बलात्कार, गुदामैथुन और पशुगमन-
बलात्कार, गुदामैथुन और पशुगमन तीनों गंदी मानसिकता से जुड़े हुए अपराध हैं तथा विभत्स स्वरूप के हैं। बलात्कार का अपराध दिनों दिन बढ़ रहा है। शेष दो कारण गुदामैथुन और पशुगमन अर्थात पशुओं के साथ सेक्स करना। यह समाज के बहुत घृणित और गंदे अपराध है। हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत हिंदू विवाह एक पवित्र संस्कार है तथा पत्नी अर्धांगिनी होती है। विधि किसी भी पत्नी को किसी इस प्रकार से घृणित कार्य करने वाले व्यक्ति के साथ साहचर्य का पालन करने के लिए बाधित नहीं कर सकती।
इस विचार को ध्यान में रखते हुए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 की उपधारा (2) के खंड 2 के अनुसार जानवरों के साथ सेक्स करने वाले व्यक्ति और गुदा में सेक्स करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध पत्नी को जिला न्यायालय के समक्ष तलाक की अर्जी प्रस्तुत किए जाने का अधिकार दिया गया है। अप्राकृतिक मैथुन को हिंदू विवाह के अधीन मान्यता नहीं दी गई है। एक प्रकरण में पत्नी का यह कथन था कि पति उसके साथ अप्राकृतिक मैथुन करता है। पति ने अपनी सफाई में अप्राकृतिक मैथुन को करना स्वीकार किया लेकिन इस प्रकार के मैथुन को पत्नी की सहमति से करना बताया। सहमति स्वैच्छिक प्रमाणित नहीं की जा सकीं यह अभिनिर्धारित किया गया कि पति अप्राकृतिक मैथुन का दोषी है। अतः पत्नी इस आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने की अधिकारी है।
3)- भरण पोषण की डिक्री पारित होने के बाद सहवास नहीं होना
हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह का यह उद्देश्य है कि विवाह के उपरांत विवाह के पक्षकार एक दूसरे को साहचर्य उपलब्ध करे तथा साथ साथ रहकर परिवार रूपी गाड़ी को चलाएं परंतु कभी-कभी पक्षकारों के आपसी मतभेद के परिणामस्वरूप यह स्थिति उत्पन्न होती है कि विवाह के पक्षकार एक दूसरे से अलग रहने लग जाते हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन पत्नी को अपने पति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है तथा न्यायालय उसे अलग निवास के लिए भी डिक्री पारित कर देता है। यदि किसी न्यायालय द्वारा किसी पत्नी के संबंध में भरण पोषण की ऐसी डिक्री पारीत की गई है जिसमें वह अलग निवास भी कर रही है ऐसी डिक्री पारित होने के पश्चात यदि 1 वर्ष तक विवाह के पक्षकारों पति और पत्नी में कोई सहवास नहीं हुआ है तो पत्नी जिला न्यायालय के समक्ष तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर सकती है।
पत्नी के अलग रहने के तथ्य के बावजूद भी न्यायालय द्वारा भरण पोषण की राशि निर्धारित की जाती है। 1 वर्ष तक पक्षकारों में सहवास का प्रारंभ नहीं होना यह तय करता है कि पक्षकार इस बंधन से स्वतंत्र होना चाहते हैं, फिर भी इस आधार पर तलाक की अर्जी प्रस्तुत करने का आधार पत्नी को ही दिया है। भरण पोषण की डिक्री पत्नी के पक्ष में पारित होने की दिनांक से 1 वर्ष या उससे ऊपर की कालावधि में पक्षकारों के मध्य सहवास का नहीं होना चाहिए।
इस अवधि में पति पत्नी के बीच सहवास नहीं होता है तो पत्नी को इस आधार पर वर्तमान उपखंड के द्वारा तलाक का अधिकार दिया गया। इस उपखंड के अधीन पत्नी द्वारा तलाक की अर्जी प्रस्तुत की जाती है तथा उससे तलाक होने पर भी पत्नी का भरण पोषण बंद नहीं किया जाता है। भरण पोषण तो ज्यों का त्यों चलता रहता है।
4)- बाल विवाह के आधार पर
यदि किसी स्त्री का विवाह 15 वर्ष की उम्र से पूर्व कर दिया गया है तो ऐसी स्त्री 18 वर्ष तक की आयु प्राप्त करने के पूर्व न्यायालय के समक्ष तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर सकती है। किसी हिंदू स्त्री को इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले विवाह में बाल विवाह से संरक्षण दिया गया है। ऐसा विवाह आयोजित करना धारा 5 (3)के प्रावधानों का उल्लंघन होने से इस अधिनियम की धारा 18 के द्वारा दंडनीय अपराध है। पत्नी को यह अधिकार है कि वह चाहे तो 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर विवाह को यथावत रखें। यह धारा 13(2) (4) के प्रावधानों के अधीन याचिका प्रस्तुत की जाती है।
सावित्री बनाम सीताराम एआईआर 1986 एमपी 2018 में यह कहा गया है कि विवाह के समय की आयु स्कूल के सर्टिफिकेट के अभाव में अन्य प्रकार से भी प्रमाणित की जा सकती है। हालांकि बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 1978 के बाद हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन इस खंड का अधिक विशेष महत्व नहीं रह गया है क्योंकि विवाह की एक आयु निर्धारित की गई। विवाह के समय वर की आयु 21 वर्ष और वधू की आयु 18 वर्ष कर दी गई है। यथार्थ में यह सिद्धांत मुस्लिम विधि के ख़्यार उल बुलुग के सिद्धांत पर आधारित है।
पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद (Divorce by Mutual Consent)
पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद आधुनिक परिकल्पना है। प्राचीन शास्त्रीय हिंदू विधि के अधीन विवाह एक संस्कार है तथा जन्म जन्मांतरों का संबंध है परंतु आधुनिक परिवेश में तलाक भी समाज की बड़ी आवश्यकता बन कर उभरी है। यदि आपसी मतभेद के बीच रह रहे पति पत्नी के बीच तलाक नहीं हो तो यह बड़े अपराधों को जन्म दे सकता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में जिस समय भारत की संसद द्वारा बनाया गया था तब इसमें पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद का कोई प्रावधान नहीं था। हिंदू विवाह अधिनियम 1979 में किए गए संशोधनों के अधीन हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत धारा 13बी के अनुसार पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद का प्रावधान दिया गया है।
इस धारा के अनुसार पति पत्नी यदि साथ नहीं रहना चाहते हैं तथा वह इस बात पर पूर्ण रूप से सहमत हो चुके हैं कि विवाह विच्छेद हो जाना चाहिए तो धारा 13बी उन्हें विवाह विच्छेद का अधिकार उपलब्ध करती है। इस धारा का उद्देश्य वैवाहिक संबंधों के कारण बड़े अपराधों को रोकना है। कभी-कभी वैवाहिक संबंधों को बनाए रखने के परिणामस्वरूप विवाह के पक्षकारों के मध्य बड़े अपराधों का जन्म हो जाता है जैसे विवाह के पक्षकार एक दूसरे की हत्या तक कर देते है।
जब विवाह के दो पक्षकार आपसी सहमति से ही साथ रहना नहीं चाहते हैं तथा अब विवाह आगे चल पाना संभव ही नहीं है तो ऐसी परिस्थिति है विवाह के पक्षकारों के मध्य संबंध विच्छेद कर दिया जाना ही ठीक होगा। जब दो पक्षकार इस बात पर सहमत हो जाते हैं कि न्यायालय उनके वैवाहिक संबंधों की समाप्ति की घोषणा कर दे तो धारा 13बी में विहित प्रक्रिया के अधीन न्यायालय विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर सकता है।
पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद के लिए तीन बातों का होना अति आवश्यक हैं।
1)- विवाह के पक्षकार याचिका प्रस्तुत करने के पूर्व कम से कम 1 वर्ष से अलग अलग रह रहे हों।
2)- दोनों पक्षकार पति-पत्नी की तरह जीवन जीने पर सहमत नहीं है तथा एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करना नहीं चाहते हों।
3)- दोनों पक्षकारों ने विचार-विमर्श करके विवाह को विघटित कराने का निर्णय कर लिया है।
इस धारा के अधीन दोनों को संयुक्त प्रार्थना पत्र देना होता है। न्यायालय प्रार्थना पत्र प्राप्त करने के 6 माह की अवधि तक कोई कार्यवाही नहीं करता है। 6 माह के बाद भी यदि पक्षकारों के मध्य कोई समझौता नहीं होता है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय पारस्परिक विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर देता है।
सुरेश सीता देवी बनाम ओम प्रकाश एआईआर 1992 सुप्रीम कोर्ट 1904 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 13बी की आवश्यक शर्तें विवाह विच्छेद का आदेश निर्गत किए जाने के लिए विवाह विच्छेद करने के लिए पति-पत्नी परस्पर सहमत हो साथ ही परस्पर सहमति विवाह विच्छेद की डिक्री जारी किए जाने तक बनी रहे।
यह 6 माह का समय पक्षकारों के मध्य किसी सुलाह (Conciliation) हेतु प्रतीक्षा के लिए होता है क्योंकि पक्षकार कभी-कभी क्रोध में त्वरित फैसले लेते हैं। क्रोध के कारण किसी परिवार को टूटने से बचाने हेतु विधायिका का यह प्रयास है कि वह एक समय पक्षकारों को और दे, उसके उपरांत न्यायालय विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करे। 6 माह की प्रतीक्षा के बाद यदि विवाह के पक्षकार पारस्परिक सहमति के आधार पर प्रस्तुत किए गए विवाह विच्छेद के आवेदन पर यह कहते हैं कि अभी भी हम एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करने के लिए तैयार नहीं है तथा हम पति-पत्नी की तरह एक साथ नहीं रह सकते और हमारे बीच विवाह विच्छेद किया जाए।
इसके बाद न्यायालय विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर देता है। पक्षकारों के पुनर्मिलन की भावना जागृत होती है और वैवाहिक बंधन को जारी रखना चाहते हैं तो इस धारा के अंतर्गत दी गई सहमति को वापस ले सकते हैं। विधायिका ने न्यायालय को यह दायित्व दिया है कि वह जहां तक संभव हो सके विवाह बंधन के सूत्र को बनाए रखे तथा समाज में विवाह विच्छेद को रोकने के प्रयास करें क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह एक संस्कार है तथा समाज का आधारभूत ढांचा भी है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 14 यह उल्लेख करती है कि किसी भी विवाह विच्छेद के लिए कोई प्रार्थना पत्र विवाह की दिनांक से 1 वर्ष के भीतर प्रस्तुत नहीं किया जाएगा। पारिवारिक समस्याओं में विवाह के पक्षकारों के मध्य कभी-कभी हिंसा और उग्रता का जन्म हो जाता है। ऐसी हिंसा और उग्रता के भीतर ही विवाह के पति पत्नी कोई आहित निर्णय ले लेते हैं जिसके कारण उनका जीवन कष्टदायक हो जाता है।
यह स्मरण रहे कि पक्षकार केवल विवाह विच्छेद के लिए याचिका 1 वर्ष तक प्रस्तुत नहीं करेंगे जबकि शून्य विवाह और शून्यकरणीय विवाह के लिए याचिका के संबंध में यह प्रावधान लागू नहीं होता है। अधिनियम की धारा 14 केवल विवाह विच्छेद के संबंध में ही लागू होती है। इस धारा के अनुसार केवल विवाह विच्छेद की याचिका 1 वर्ष के भीतर प्रस्तुत नहीं की जाएगी।
भारत की विधायिका ने यह प्रयास किया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत अनुष्ठापित किसी हिन्दू विवाह को बचाया जाए तथा उग्रता के परिणामस्वरूप क्रोध में लिया गया कोई निर्णय किसी विवाह के लिए अभिशाप न बन जाए। समाज में देखा जाता है कि दो प्रेम करने वाले आपस में एक दूसरे को छोड़ देते हैं और छोड़ने के बाद दोनों पछतावा भी करते हैं, यह मानव स्वभाव है कि मानव क्रोध में क्या से क्या कर देता है। क्रोध व्यक्ति की बुद्धि का हरण कर लेता है। क्रोध राक्षस की भांति होता है।
हिंदू विवाह अधिनियम यह प्रयास करता है कि पक्षकारों द्वारा क्रोध में लिए गए निर्णय के कारण उन्हें किसी खतरे में नहीं डाला जाए। धारा 14 यह प्रावधान करती है कि विवाह होने से 1 वर्ष के भीतर कोई विवाह विच्छेद की याचिका न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जाएगी। न्यायालय उस ही याचिका को स्वीकार करेगा जो विवाह होने के 1 वर्ष पश्चात न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी। कुछ आपवादिक परिस्थितियों में न्यायालय विवाह विच्छेद की अर्जी स्वीकार कर सकता है जहां पर पक्षकार अत्यंत कष्टदायक स्थिति में हो तथा विवाह का विघटन किया जाना नितांत आवश्यक हो।