हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 किसी बगैर वसीयत के स्वर्गीय होने वाले हिंदू पुरुष और स्त्री की संपत्ति के उत्तराधिकार के संबंध में नियमों को प्रस्तुत करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत वारिसों का निर्धारण किया गया है। कौन से वारिस किस समय संपत्ति में उत्तराधिकार का हित रखते हैं।
इस अधिनियम के अंतर्गत किसी संपत्ति में उत्तराधिकार रखने वाले वारिसों के बेदखल के संबंध में भी प्रावधान किए गए। कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिनके आधार पर विधि वारिसों को उत्तराधिकार के हित से अयोग्य कर देती है। उत्तराधिकार के संबंध में जो क्वालिफिकेशन चाहिए होती है यदि उसमें कुछ कमियां रह जाती है तो ऐसी परिस्थिति में किसी संपत्ति के उत्तराधिकार का वारिस डिसक्वालिफाइड हो जाता है।
इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 25 और 26 में किसी हिंदू पुरुष और नारी की संपत्ति में उत्तराधिकार रखने वाले वारिसों को संपत्ति के उत्तराधिकार से बेदखल किए जाने के प्रावधान किए गए है। इन दो धाराओं के अंतर्गत तीन कारण ऐसे बतलाए गए हैं जिनके आधार पर संपत्ति के वारिस उत्तराधिकार से वंचित हो जाते हैं। तीन कारणों के अलावा ऐसा कोई भी कारण नहीं है जो किसी संपत्ति के उत्तराधिकार के वारिसों को उत्तराधिकार से वंचित करें।
कोई भी हिंदू व्यक्ति अपनी संपत्ति को वसीयत भी कर सकता है, वह दान भी कर सकता है परंतु निर्वसीयती के लिए इस अधिनियम के अंतर्गत प्रावधान किए गए हैं और यह अधिनियम किसी भी वारिस को केवल तीन परिस्थितियों के अंतर्गत ही संपत्ति के उत्तराधिकार से बेदखल करता है जो कि आलेख में निम्न है-
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 (धारा-25)
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम धारा 25 के अंतर्गत हत्या करने वाले व्यक्ति को उत्तराधिकार के लिए अयोग्य ठहरा गया है। जो व्यक्ति हत्या करता है या हत्या के लिए दुष्प्रेरण करता है उस हत्यारे व्यक्ति को हत्या से मृत व्यक्ति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने से इस धारा के अधीन वंचित कर दिया गया है। जो व्यक्ति हत्या करता है या हत्या करने का दुष्प्रेरण करता है शब्दों के इस प्रयोग से यह प्रतीत होता है कि इस धारा के अंतर्गत दो प्रकार के व्यक्तियों को उत्तराधिकार से वंचित किया गया है-
1)- वह व्यक्ति जिसने हत्या की है-
2)- जिस व्यक्ति के दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप हत्या कारित हुई है-
यह नैतिकता का सिद्धांत है कि जिस व्यक्ति ने किसी व्यक्ति की हत्या संपत्ति को हड़पने के उद्देश्य से की है ऐसे व्यक्ति को उत्तराधिकार प्राप्त नहीं हो। समाज में यह देखा गया है कि अनेक व्यक्ति संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने के लिए षणयंत्र कर एक दूसरे की हत्याएं कारित कर देते हैं तथा संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। यहां कोई भी वारिस यदि संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से अन्य वारिसों या फिर किसी उस व्यक्ति की हत्या करता है जिससे उत्तराधिकार में उसे संपत्ति प्राप्त होगी तो ऐसे हत्यारे व्यक्ति को उत्तराधिकार प्राप्त करने से अयोग्य इस अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत ठहरा दिया गया है।
यह सिद्धांत न्याय, साम्य तथा शुद्ध अंतः करण के आधार पर प्रिवी कौंसिल ने लागू किया था। हत्यारों को उत्तराधिकार से अपवर्जन करने के संबंध में प्रिवी कौंसिल ने कहा है कि हत्यारे को अविद्यमान समझा जाना चाहिए और उसे वंशज की सीधी लाइन के स्टॉक से पृथक कर देना चाहिए। प्रिवी कौंसिल के इस ही मत को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अंतर्गत भी स्थान दिया गया है, क्योंकि यह सामान्य सी बात है कि यदि कोई व्यक्ति किसी की हत्या कारित करके संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है तो ऐसे व्यक्ति को फौरन उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित कर दिया जाए।
मोहन प्रसाद बनाम सुरेश कुमार 1997 (2) एमपी जे आर 206 में मृतका के पति ने मृतका को देय राशि को प्राप्त करने के लिए उत्तराधिकार प्रमाण पत्र की मांग की एवं मृतका के भाइयों ने भी दावा किया। मृतका की मृत्यु के लिए पति जिम्मेदार था, भले ही दांडिक न्यायालय ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया था। मृतका के भाई का नाम नामांकित किया गया था। नाम निर्दिष्ट व्यक्ति का यही कार्य है कि वह धनराशि प्राप्त कर उसे मृतक के उत्तराधिकार में विभाजित करते हैं। इसके अतिरिक्त मृतका की राशि स्त्रीधन थी। धारा 25 के प्रतिबंधों के अनुसार पति को उत्तराधिकार का अधिकारी नहीं माना गया।
पंजाब के एक प्रकरण में श्रीमती वीरो बनाम वंता सिंह ए आई आर 1980 पंजाब 164 यदि कोई व्यक्ति किसी भी व्यक्ति को ऐसी शारीरिक चोट पहुंचाता है जिसके परिणामस्वरूप घायल व्यक्ति की मृत्यु होने की संभावना उत्पन्न हो जाती है तो अपराधी को उत्तराधिकार से वर्जित कर दिया जाएगा। भारतीय दंड संहिता की धारा 299, 300 को पढ़ने से तथा उन पर गंभीरता पूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वादी के द्वारा पारित किए गए अपराध को स्पष्ट हत्या का अपराध होना पाया जाता है इसलिए अपराधी के अपराध को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 में से किसी के भी अंदर आने वाला अपराध नहीं माना जा सकता है।
अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत एक विभेद यह है कि यह धारा केवल हत्या करने वाले वारिस को ही बेदखल करती है जबकि उस वारिस की संताने उस संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार रखती है। हत्यारे व्यक्ति की संतान यदि हत्या से मृत व्यक्ति के वारिस के रूप में अपने व्यक्तिगत संबंध के कारण हत्या से मृत व्यक्ति का उत्तराधिकारी धारा 8 की अनुसूची के अनुसार बनती है तो हत्यारे की संतान को इस प्रावधान के अनुसार उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
यदि किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति की हत्या कर दी हो तो हत्यारा हत्या से मृत व्यक्ति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने से वंचित होगा और उस हत्यारे की संतान यदि हत्यारे के माध्यम से ही हत्या से मृत व्यक्ति की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनता है तो ऐसी संतान भी हत्या से व्यक्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने से वंचित की जानी चाहिए। इस धारा के अधीन केवल हत्यारा व्यक्ति ही उत्तराधिकार से वंचित होता है और उसके वंशजों ने अपराध कारित करने में कोई योगदान नहीं दिया है तो वह निर्हित नहीं होंगे अर्थात उन्हें उत्तराधिकार प्राप्त होगा।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (धारा- 26)
धर्म परिवर्तन-
किसी हिंदू व्यक्ति के उत्तराधिकार से वारिसों को बेदखल करने के कारण में एक कारण हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 26 के अंतर्गत धर्म परिवर्तन भी है। इस धारा की विशेषता यह है कि यह धर्म छोड़ने वाले उस हिंदू व्यक्ति को तो संपत्ति में अधिकार देती है जो स्वयं धर्म छोड़कर जाता है परंतु उसके बच्चों को उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार नहीं होता है। इस धारा के अनुसार एक हिंदू दूसरे धर्म को अंगीकृत करने के कारण हिंदू नहीं रह जाता है।
उसके ऐसे धर्म परिवर्तन करने के पश्चात उत्पन्न हुई संतान तथा उसके वंशज किसी भी हिंदू नातेदार की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने के लिए निर्योग्य हो जाते हैं क्योंकि यह अधिनियम इस की धारा 2 के अनुसार केवल हिंदुओं पर लागू होता है और हिंदू कौन है इस संबंध में इस अधिनियम में संपूर्ण उल्लेख किया जा चुका है। अब यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करने के कारण हिंदू नहीं रह गया है तो इस स्थिति में इस अधिनियम के अंतर्गत उसे उत्तराधिकार नहीं दिया जा सकता।
हिंदू नहीं होने का अर्थ यह है कि हिंदू धर्म को त्याग कर कोई अन्य धर्म स्वीकार कर लेना। इस अधिनियम के अंतर्गत जैन, बौद्ध, सिख, धर्म को हिंदू धर्म माना गया है। इन धर्मों के अनुयाई हिंदू होते हैं तथा उन पर यह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू होता है। केवल मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदी धर्म को छोड़कर भारत की सीमा के अंतर्गत निवास करने वाला कोई भी व्यक्ति इस अधिनियम के अंतर्गत हिंदू होता है।
धर्म परिवर्तन करने वाला व्यक्ति स्वयं उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया गया है किंतु ऐसे धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति की संतान को हिंदू व्यक्ति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने से वंचित किया गया है। इसी प्रकार धर्म परिवर्तन से पूर्व उत्पन्न संतान को भी हिंदू रिश्तेदार की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने से वंचित नहीं किया गया है। यदि हिंदू धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म को अंगीकृत करने वाले व्यक्ति के वंशज उत्तराधिकार के खुलने के समय हिंदू ही थे तो उन्हें उत्तराधिकार प्राप्त करने के लिए निर्योग्य नहीं माना जाएगा।
बीमारी के कारण किसी व्यक्ति को उत्तराधिकार से बेदखल नहीं किया जाएगा-
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 28 के अंतर्गत स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि किसी बीमारी से पीड़ित होने वाले किसी हिंदू व्यक्ति को संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने से बेदखल नहीं किया जाएगा। किसी समय भारत में यह प्रथा थी कि पागलपन और जड़ता से ग्रसित होने वाले व्यक्ति या फिर संन्यास लेने वाले व्यक्ति को उत्तराधिकार से वंचित किया जाता था। विधवाओं का शीलभ्रष्ट होना भी उत्तराधिकार से वंचित किए जाने का एक प्रमुख कारण होता था परंतु इस धारा के अंतर्गत स्पष्ट उल्लेख कर दिया गया है कि किसी भी बीमारी के कारण किसी व्यक्ति को उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
भारत के समाज में अशिक्षा होने के कारण अनेक स्थानों पर विधवा स्त्रियों पर व्यभिचार के आरोप लगाकर उन्हें शीलभ्रष्ट करार देकर उत्तराधिकार से वंचित किया जाता था। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 एक क्रांतिकारी अधिनियम है। भारत की संसद द्वारा या एक क्रांतिकारी प्रयास है जो समाज की उत्तराधिकार संबंधित समस्त कुरीतियों का अंत करता है। यह अधिनियम केवल इन तीन कारणों पर ही किसी व्यक्ति को संपत्ति से बेदखल करता है।
इस कारण के अलावा कोई भी कारण किसी व्यक्ति को उत्तराधिकार प्राप्त करने से वंचित नहीं करेगा। जय लक्ष्मी अम्माल बनाम टीवी गणेश अय्यर ए आई आर 1972 मद्रास 357 के प्रकरण में न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न प्रस्तुत किया गया है कि निर्वसीयती मृतक हिंदू की विधवा शीलभ्रष्ट हो जाने की वजह से उसके द्वारा छोड़ी गई संपत्ति को प्राप्त करने से वंचित की दी जानी चाहिए या नहीं? न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि विधवा का शीलभ्रष्ट होना ऐसी कोई निर्योग्यता नहीं है जिसके आधार पर उसे अपने मृत पति की संपदा को विरासत में प्राप्त करने से रोक दिया जाना चाहिए।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अयोग्यता संबंधी जो स्पष्ट प्रावधान है उनके अतिरिक्त अन्य कोई अयोग्यता उत्तराधिकार के मामले में अधिरोपित नहीं की जा सकती है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि किसी को नैतिक या चारित्रिक आधार पर भी उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता या विधि स्पष्ट न्याय और साम्य पर आधारित है।