एक्ट की धारा 29 यह प्रावधान करती है कि किसी आदेश से, जिसे मजिस्ट्रेट पारित कर सकता है, अपील 'सत्र कोर्ट के समक्ष होगी। यह उल्लेख करना सुसंगत है कि अधिनियम यह नहीं कहता है कि अधिनियम की धारा 29 के अधीन प्रस्तुत की गई अपील को स्वीकार करते समय तथा सुनते समय सत्र कोर्ट को किस प्रक्रिया का पालन करना है।
अपीलों को स्वीकृति, सुनवाई तथा निस्तारण से सम्बन्धित संहिता के प्रावधानों को अधिनियम की धारा 29 के अधीन सत्र कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत की गई अपील को लागू होना चाहिए। धारा 29 के अधीन अपील 'सत्र कोर्ट के समक्ष, न कि सत्र न्यायाधीश के समक्ष होती है धारा 29 के अधीन अपील का प्रावधान सत्र कोर्ट के समक्ष किया गया है, क्योंकि मजिस्ट्रेट का न्यायालय, जिसका आदेश चुनौती के अधीन होता है, सत्र कोर्ट से कनिष्ठ दण्ड कोर्ट होता है। इसलिए, दण्ड कोर्ट के रूप में कार्य करते हुए अधिनियम के अधीन कार्य करने वाला मजिस्ट्रेट सत्र कोर्ट और हाईकोर्ट के कनिष्ठ होता है।
अन्तरिम आदेश, जिसके विरुद्ध अपील प्रस्तुत की गई है, के विरुद्ध अपील की स्वीकृति पर विचार करने वाले तथा स्थगन की मंजूरी पर विचार करने वाले अपीलीय कोर्ट को निश्चित रूप से तथा सतर्क रूप से सभी परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए और केवल तब निलम्बन का अन्तरिम आदेश प्रदान करना चाहिए। इसलिए, अधिनियम की धारा 29 के अधीन प्रस्तुत की गई अपीलों में निलम्बन/स्थगन का एकपक्षीय आदेश प्रदान करने के पहले बहुत सावधानी तथा सतर्कता बरती जानी चाहिए।
सामान्यतः जब पुनरीक्षण अथवा अपील में आक्षेपित आदेश को चुनौती देने का अवसर उपलब्ध होता है, तब की धारा 510 के अधीन आश्रय लेना आवश्यक नहीं होता है। हालांकि पेप्सी फूड्स लिमिटेड बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (1998) के मामले में सर्वोच्च कोर्ट के द्वारा यह संप्रेक्षण किया गया था कि किसी समय संहिता की धारा 510 अथवा अनुच्छेद 227 के अधीन तात्कालिक अनुतोष के लिए ऐसी कुछ घोर त्रुटियों, जो अधीनस्थ न्यायालयों के द्वारा कारित की जा सकती थी, को सुधार करने के लिए आश्रय लिया जा सकता था।
आवेदन के प्ररूप में त्रुटि जब पुनरीक्षणीय आवेदन का सार विधितः स्वीकार योग्य है और उस पर सक्षम कोर्ट द्वारा न्यायिक रूप से विचार किया गया था, तो आवेदन के, जो उसके समक्ष पेश किया गया था, प्ररूप में त्रुटि सम्पूर्ण कार्यवाही को दूषित नहीं करता।
पुनरीक्षण की शक्ति प्रकृति में पर्यवेक्षणकारी होती है, जो उच्चतर न्यायालयों को अधीनस्थ दण्ड न्यायालयों के अभिलेखों को मंगाने तथा स्वयं का यह समाधान का प्रयोजन करने के लिए जांच करने हेतु समर्थ बनाती है कि ऐसे अवर कोर्ट का दण्डादेश, निष्कर्ष, आदेश अथवा कार्यवाही वैध, सही अथवा उचित है।
पुनरीक्षण शक्ति प्रदत करने का उद्देश्य उच्चतर दण्ड न्यायालयों को विधि की गलत धारणा, प्रक्रिया को अनियमितता, उचित सावधानी की उपेक्षा अथवा व्यवहार की प्रकट कठोरता, जो एक तरफ सम्यक कानून और व्यवस्था के अनुरक्षण में कुछ क्षति में परिणामित हुई अथवा दूसरी तरफ व्यक्तियों की कुछ निर्योग्य कठिनाई में परिणामित हुआ है, से उद्भूत न्याय की हत्या को सुधारने के लिए प्रदान की गई है।
हाईकोर्ट की पुनरीक्षणीय अधिकारिता हाईकोर्ट की पर्यवेक्षणीय शक्ति या पुनरीक्षणीय अधिकारिता अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से इस अधिनियम के किसी उपबन्धों द्वारा अपवर्जित नहीं की गयी है। इस प्रकार, हाईकोर्ट की पुनरीक्षणीय शक्ति अपराध के लिए उपबन्ध करते हुए किसी अन्य परिनियम पर आधारित नहीं है, जब तक बीएनएसएस का विनिर्दिष्ट अपवर्जन है।
सत्र कोर्ट का निर्णय अधिनियम यह नहीं कहता है कि सत्र कोर्ट का निर्णय किसी अन्य कोर्ट के समक्ष चुनौती के अधीन होता है बी एन एस एस के अधीन हाईकोर्ट किसी अवर क्रिमिनल कोर्ट के समक्ष किसी कार्यवाही के अभिलेखों को मंगा सकता है और उसकी जांच कर सकता है।
जहाँ विनिर्दिष्ट अधिनियम के अधीन पक्षकार को विनिर्दिष्ट उपचार का विकल्प प्राप्त हो वहाँ हाईकोर्ट बी एन एस एस की धारा 510 के अधीन हस्तक्षेप नहीं करेगा। एन पी पोन्नूस्वामी बनाम निर्वाचन अधिकारी, नामक्कल निर्वाचन क्षेत्र के मामले में सर्वोच्च कोर्ट ने यह प्रतिपादित किया है कि
"जहाँ ऐसी संविधि के द्वारा अधिकार अथवा दायित्व सृजित किया गया हो, जो उसे प्रवर्तित करने के लिए विशेष उपचार प्रदान करती है, तब उस संविधि के द्वारा प्रदान किये गये उपचार कर उपयोग किया जाना चाहिए।
धारा 18 से 22 के प्रावधानों का संदर्भ स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि धारा 18 से 22 के अधीन अन्तरिम आदेश, हालांकि प्रकृति में अन्तिम नहीं होता है और हालांकि वे केवल उस क्षेत्र को धारित कर सकता है, जब तक अन्तिम आदेश पारित नहीं किया जा सकता है, सारवान रूप से पक्षकारों के अधिकारों को भी प्रभावित करेगा। अन्तरिम अनुतोषों की उस प्रकृति पर विचार करना आवश्यक नहीं है, जो धारा 23, सपठित धारा 18 से 22 के अधीन कोर्ट द्वारा प्रदान किये जा सकते हैं परन्तु यह बहुत स्पष्ट है कि धारा 18 से 22 के अधीन अन्तरिम संरक्षण आदेश, अन्तरिम निवास आदेश, अन्तरिम धनीय आदेश, अन्तरिम अभिरक्षा आदेश अथवा अन्तरिम प्रतिकर आदेश सारवान रूप से कम से कम पक्षकारों के अधिकारों को प्रभावित करेंगे, जब तक उसे परिवर्तित अथवा उसे उपान्तरित नहीं कर दिया जाता है।
प्रत्यर्थी पर आदेश की तामीली को अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपील के अधिकार के साथ कुछ भी नहीं करना है। अपील का अधिकार व्यक्ति व्यक्ति अथवा प्रत्यर्थी को उपलब्ध होता है, परन्तु अपील के ऐसे अधिकार का प्रयोग धारा 29 के अधीन विहित एक मास की अवधि के भीतर किया जाना है और तीस दिन की ऐसी अवधि का चलना प्रत्यर्थी अथवा व्यथित व्यक्ति पर आदेश की तामीली की तारीख से प्रारम्भ होगा। यह मानना पूर्ण रूप से अस्वीकार्य है कि अपील का अधिकार प्रत्यर्थी पर आदेश की तामील पर निर्भर करेगा।