किसी भी पर्सनल विधि में संरक्षता अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है। अवयस्क का संरक्षक कौन होगा और किन मामलों में संरक्षक की नियुक्ति की जाएगी, यह एक तात्विक प्रश्न बनता है।
भारत में गार्जियनशिप अधिनियम के साथ मुस्लिम पर्सनल विधि भी है जो भारत के मुसलमानों पर लागू होती है, इसके नियम मुसलमानों के व्यक्तिगत अवयस्क के संरक्षण के लिए इस्तेमाल होते हैं।
इसमें एक महत्वपूर्ण विषय शरीर की संरक्षता है जिसे हिज़ानात कहते हैं। कई बार पति पत्नी के बीच विवाद होने, संबंध विच्छेद हो जाने पर अवयस्क बच्चे की संरक्षता प्रश्न खड़ा होता है तथा यह विवाद हो जाता है कि जो अवयस्क संतान है उसका संरक्षक माता या पिता में से कौन होगा?
यदि दोनों नहीं हो तो संरक्षक कौन होगा? इस विषय को मुस्लिम विधि के अंतर्गत विस्तारपूर्वक रखा गया है। इस आलेख के माध्यम से शरीर की संरक्षता (हिज़ानत) पर चर्चा की जा रही है।
अवयस्क लड़के और अवयस्क लड़कियों के शरीर को संरक्षता का अधिकार हिज़ानात कहलाता है। इस अरबी शब्द का अर्थ होता है बच्चे के भरण-पोषण के लिए उसका संरक्षण।
मां
हनफी विधि के अंतर्गत मां तब तक अभिरक्षा की हकदार होती है, जब तक कि पुत्र 7 वर्ष का नहीं हो जाता या पुत्री यौनावस्था की आयु प्राप्त नहीं कर लेती।
शाफ़ई और मलिकी विधि के अंतर्गत तो मां लड़की के विवाह तक उसके संरक्षक का अधिकार रख सकती है। शोराहबी बनाम दीन मोहम्मद एआईआर 1988 के मामले में यह कहा गया है-
"बच्चे के पिता द्वारा तलाक दिए जाने पर भी मां का यह अधिकार है परंतु यदि बच्चे के पिता ने मां को तलाक दे दिया है और तदुपरांत मां किसी अन्य व्यक्ति से विवाह कर लेती है तो ऐसे में वह बच्चे की अभिरक्षा के अधिकार से वंचित हो जाएगी।"
मुस्लिम विधि के अंतर्गत मां को बच्चे की अभिरक्षा का अधिकार उस समय तक ही दिया गया है जिस समय तक वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं करती है।
यदि किसी अन्य व्यक्ति से विवाह कर लेती है, कोई ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेती है जो बच्चे के खून के रिश्ते में नहीं होता है तो ऐसी परिस्थिति में मां अभिरक्षा का अधिकार खो देती है।
बच्चे से खून का रिश्ता उस पुरुष का होना आवश्यक है जिससे मां निकाह करेगी, इस्लाम में अजनबी से निकाह करने के बाद बच्चे की अभिरक्षा का अधिकार मां को नहीं होता है।
इम्तियाज बानो बनाम मसूद अहमद जाफ़री एआरआई 1979 इलाहाबाद हाईकोर्ट 125 का फैसला है, जिसमें श्रीमती इम्तियाज बानो का विवाह 4 जुलाई 1967 को मसूद अहमद जाफरी से संपन्न हुआ।
विवाह से 3 पुत्र हुए, जिनमें से सबसे छोटे पुत्र की मृत्यु हो गयी। दो पुत्रों में से एक की आयु 5 वर्ष दूसरे की आयु 3 वर्ष थी। पति पत्नी के बीच संबंध खराब होने का कारण तलाक दे दिया गया। यह निर्णय लिया गया कि माता दोनों अवयस्क बच्चों की अभिरक्षा के लिए हकदार है।
इस मुकदमे में फैसले का मुख्य आधार बच्चों का कल्याण है। न्यायालय सर्वप्रथम नियम बच्चे के कल्याण का रखता है।
रेहान फातिमा बनाम सैयद बदरुद्दीन परवेज़ के मुकदमे में एक 3 वर्ष 6 माह के बच्चे की अभिरक्षा के संबंध में निर्णय देते हुए आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने कहा कि मुस्लिम विधि में मां का बच्चे को अपने पास रखने का अधिकार तलाक द्वारा विवाह विच्छेद के पश्चात तथा गार्जियनशिप एंड वर्ड्स 1890 में किसी अन्य विकल्प होने के बावजूद भी बना रहता है।
मां के धर्म परिवर्तन पर भी उसका संतान को अपने पास रखने का अधिकार समाप्त नहीं होता है।
रहीमा खातून बनाम सबरुननिशा एआईआर 1996 गुवाहाटी 33 के नवीन मुकदमे में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि माता अपनी अवयस्क पुत्री की संरक्षता का अधिकार नहीं रखेगी, यदि वह किसी ऐसे व्यक्ति से पुनर्विवाह कर लेती है जो इस पुत्री के खून के रिश्तेदारों में नहीं आता हो।
इस वाद में न्यायालय ने लड़की की दादी को माता के होते हुए भी प्रमाणिक संरक्षक नियुक्त किया।
न्यायालय का मुस्लिम विधि के अंतर्गत माता को संरक्षता का अधिकार देने के मामले में केवल इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि माता ने किसी अनजान व्यक्ति से निकाह तो नहीं किया जिससे बच्चे के कल्याण पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
मां के नहीं होने पर अन्य स्त्री संबंधी
मां के ना होने पर 7 वर्ष से कम आयु के बालक और यौनावस्था प्राप्त नहीं हुई बालिका की अभिरक्षा का अधिकार निम्नलिखित स्त्री संबंधियों को नीचे दिए गए क्रम में पहुंचता है।
इन लोगों का अधिकार जब प्राप्त होता है जब मां नहीं होती है।
मां की मां-
पिता की मां-
सगी बहन-
सहोदरा बहन-
सगोत्री बहन-
सगी बहन की लड़की-
सहोदरा बहन की लड़की-
सगोत्री की बहन की लड़की-
मौसी बहनों के समान क्रम में-
बुआ बहनों के समान क्रम में-
यदि मां नहीं होती है व पिता की मां नहीं होती है और मां के संबंधी भी नहीं होते है ऐसी स्थिति में संरक्षता का अधिकार पुरुष की तरफ चला जाता है और पिता और उसके जितने भी निकटतम संबंधी होते हैं उन पर चला जाता है।
माता और माता के संबंधियों में संरक्षण प्राप्त करने के लिए कुछ अयोग्यता भी हैं। यदि माता और उसके संबंधी निम्न अयोग्यता के अंदर आते हैं तो न्यायालय बच्चे की संरक्षता उन्हें नहीं देता है।
ये अयोग्यता निम्न हैं
जब भी वह अनैतिक जीवन बिताती हो-
यदि बच्चे की उचित देखभाल करने में उपेक्षा बरती हो-
यदि ऐसे पुरुष से विवाह कर ले जो बच्चे के खून के रिश्तों के भीतर संबंधी ना हो परंतु ऐसे विवाह, मृत्यु, विवाह विच्छेद के कारण विघटन हो जाता है तो मां की अभिरक्षा का अधिकार पुनर्जीवित हो जाता है।
यदि विवाह के कायम रहते हुए वह पिता के स्थान से बहुत दूर रहने लगे।
पुलक्कल आइसा कुट्टी बनाम पारत अब्दुल समद एआईआर 2005 केरल 68 के वाद में शिशु की माता ने आत्महत्या कर ली थी, इसलिए यह शिशु अपनी नानी के पास रहता था जो स्वयं डायबिटीज की मरीज थी तथा अपनी दूसरी पुत्री के ऊपर निर्भर थी।
पिता ने दूसरा विवाह कर लिया था तथा उससे बच्चे भी थे। पिता ने न्यायालय में अपने इस बच्चे की संरक्षता का दावा किया।
इस वाद में न्यायालय ने निर्धारित किया कि पिता का दूसरा विवाह कोई ऐसा आचरण नहीं है जिसके आधार पर उसे अपने बच्चे की संरक्षता के दावे से वंचित किया जाए बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है।
नानी की भावुकता का आदर करते हुए न्यायालय का मत था कि बच्चे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए उसे पिता के साथ रहना चाहिए।
श्रीमती मेहरून्निसा बनाम मुख्तार अहमद एआईआर 1975 इलाहाबाद 67 के मुकदमे में निर्णीत किया गया था कि अवयस्क जिसकी आयु 10 से 11 वर्ष है अपनी मां की अभिरक्षा में है और उसने अपने मां के साथ रहने के लिए विवेकपूर्ण ढंग से अपने 'अधिनियम परफॉर्मेंस' का प्रयोग किया है तो मां का संरक्षण छीन कर पिता को नहीं दिया जाएगा।
यदि मुस्लिम विधि के अंतर्गत पिता वयस्क नैसर्गिक संरक्षक होता है परंतु निर्विवाद रूप से स्थापित नियम है कि संरक्षता अधिनियम की धारा 25 के अधीन कार्यवाही में अवयस्क के संरक्षक के विषय में निर्णय करते हुए अवयस्क के कल्याण का ध्यान रखा जाना चाहिए तथा इस अधिनियम में सर्वोपरि इस बात पर बल दिया जाए की बच्चे का कल्याण क्या होगा।
बच्चे का भविष्य क्या होगा परंतु इस नियम को कदापि नहीं पलटा जा सकता कि 7 वर्ष के पूर्व किसी पुत्र को उसकी माता से छीन कर उसके पिता को दिया जा सके और यौनावस्था प्राप्त करने के पूर्व पुत्री को छीन कर उसके पिता को दिया जा सके।
परंतु यदि स्त्री अयोग्यता के मापदंड को पूरा कर रही है और वह बच्चे की संरक्षता के लिए योग्य नहीं है तो उसे संरक्षता नहीं दी जाएगी।
अब्दुल सत्तार हुसैन कुदचिकर बनाम शाहिना अब्दुल सत्तार कुदचिकर एआईआर 1996 बॉम्बे 134 के मुकदमे में बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष प्रश्न उठाया गया कि क्या अवयस्क की कस्टडी तय करते समय बच्चे के कल्याण का ध्यान रखना चाहिए?
इस बात में पति पत्नी सुन्नी मुसलमान थे, जिनका विवाह 1988 में पुणे में हुआ था इनके 5 वर्ष का एक पुत्र एक 2 वर्ष की एक पुत्री थी। पिता मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव था और ₹450 महीना कमाता था। माता टेलीफोन विभाग में कार्य करती थी और ₹300 प्रतिमाह कमाती थी। 1994 में पक्षकारों का विवाह विच्छेद हो गया और 1995 में पति ने दूसरा विवाह कर लिया।
1995 में पत्नी ने अपने पुत्र की अभिरक्षा के लिए आवेदन दिया। उसने कहा कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत उसे पुत्र के 7 वर्ष होने तक तथा पुत्री के अवयस्क होने तक अभिरक्षा का अधिकार है। पति ने न्यायालय के समक्ष आग्रह किया कि पत्नी की आय उसकी आय से कम है इसलिए पुत्र को माता की अभिरक्षा में रखना उसके कल्याण में नहीं होगा।
उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय देते हुए कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि पर्सनल मुस्लिम विधि के अंतर्गत पुत्र की अभिरक्षा का अधिकार माता को होगा परंतु हमें सर्वप्रथम अवयस्क के कल्याण के बारे में देखना होगा। केवल अधिका आय होना ही बच्चे के कल्याण का आधार नहीं हो सकता। यहां पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और उसके व्यापार की प्रकृति ऐसी है कि उसे दिनभर घूमना होता है, कई दिनों तक घर नहीं आता दूसरी ओर माता भले ही कम कमाती है परंतु प्रत्येक शाम अपने घर बच्चों के पास आती है।
उनका पूरा ख्याल रखती है ऐसी परिस्थिति में पुत्र का माता की अभिरक्षा में ही रहना बच्चे का कल्याण होगा क्योंकि किसी भी परिस्थिति में जन्म देने वाली मां कल्याणी होती है ना कि वह मां जिसे सौतेली कहा जाता है। जन्म देने वाली मां का प्रेम और स्नेह सर्वमान्य है सर्वोत्तम है।
कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिनमें माता से अभिरक्षा का अधिकार लिया जा सकता है। वे निम्न हैं-
यदि वह अनैतिक हो अर्थात उसने परपुरुष गमन किया हो या खुली अनैतिकता से कोई दंडनीय अपराध किया हो, गाना गाने वाली या मातम करने वाली स्त्री का पेशा अपना लिया हो।
यदि वह ऐसे व्यक्ति से विवाह कर ले जो निषिद्ध असत्तियो के भीतर अवयस्क का रिश्तेदार ना हो, जैसे किसी अजनबी से शादी कर ले।
यदि वह विवाहिता अवस्था में होकर अवयस्क के पिता के निवास स्थान के इतनी दूर रहने लगे कि अक्सर उसके बच्चों के पास ना आ सके।
यदि वह उपेक्षा करें या बच्चों की उचित देखभाल करने में असमर्थ हो उनका खानपान तक कर पाने में असमर्थ हो।
पिता नैसर्गिक संरक्षक होता है परंतु अवयस्क पुत्र कि 7 वर्ष तक के और अवयस्क की पुत्री जब तक वह यौनावस्था प्राप्त कर ले तब तक संरक्षक किसी भी सूरत में मुस्लिम विधि के अंतर्गत माता ही होगी।
हालांकि इसमें यह शर्त है कि माता को संतान का संरक्षण प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे निर्योग्य घोषित नहीं किया गया हो।