अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अश्लीलता की सीमाएं: महाराष्ट्र राज्य बनाम देविदास रामचंद्र तुलजापुरकर में न्यायिक दृष्टिकोण
देविदास रामचंद्र तुलजापुरकर बनाम महाराष्ट्र राज्य (2015) के इस मामले में भारत के सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) के अधिकार और इसके अश्लीलता (Obscenity) के आरोपों के संदर्भ में सीमाओं पर महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान किया।
इस मामले में अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 292 द्वारा अश्लील प्रकाशनों पर लगाए गए प्रतिबंधों के बीच संबंध का विश्लेषण किया गया।
इस निर्णय में "काव्यात्मक स्वतंत्रता" (Poetic License), समाज पर अशोभनीय भाषा के प्रभाव और साहित्यिक एवं कलात्मक कार्यों में अश्लीलता की परिभाषा पर भी चर्चा की गई।
कानूनी प्रावधानों पर चर्चा (Legal Provisions Discussed)
इस मामले में मुख्य प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(a) था, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, और अनुच्छेद 19(2), जो इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है ताकि सार्वजनिक शिष्टता (Public Decency) और नैतिकता (Morality) की रक्षा की जा सके।
IPC की धारा 292 किसी भी ऐसे अश्लील कृत्य और प्रकाशन को प्रतिबंधित करती है जो जनता की शालीनता (Decency) का उल्लंघन करता है।
न्यायिक दृष्टिकोण से अश्लीलता और काव्यात्मक स्वतंत्रता (Judicial Interpretation of Obscenity and Poetic License)
सुप्रीम कोर्ट ने "अश्लीलता" शब्द का स्पष्टीकरण कई महत्वपूर्ण मामलों के उदाहरणों से किया।
रंजीत उदेसी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1965) मामले में कोर्ट ने इंग्लैंड से आए "हिकलिन परीक्षण" (Hicklin Test) को अपनाया, जिसमें किसी प्रकाशन को अश्लील माना जाता है यदि उसकी प्रवृत्ति उन व्यक्तियों को "बिगाड़ने और भ्रष्ट" करने की हो जिनके हाथों में वह पड़ सकता है।
इसी प्रकार, मिलर बनाम कैलिफोर्निया (1973) मामले में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने तीन चरणों का परीक्षण (Three-Pronged Test) प्रस्तुत किया, जो सामग्री की अश्लीलता का आकलन समुदाय के मानकों और साहित्यिक मूल्य के आधार पर करता है।
तुलजापुरकर मामले में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि भले ही काव्यात्मक स्वतंत्रता (Poetic License) लेखकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है, यह एक पूर्ण अधिकार नहीं है।
इस स्वतंत्रता का उपयोग सार्वजनिक शिष्टता और आदरणीय व्यक्तित्वों की गरिमा की सुरक्षा के साथ संतुलित होना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि किसी ऐतिहासिक आदरणीय व्यक्तित्व का ऐसा उपयोग जो समुदाय को अशोभनीय लगे, वह काव्यात्मक स्वतंत्रता के दायरे से बाहर होगा।
महत्वपूर्ण न्यायिक संदर्भ (Important Judicial References)
कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अश्लीलता के बीच संतुलन बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण मामलों का हवाला दिया। बॉबी आर्ट इंटरनेशनल बनाम ओम पाल सिंह (1996) के मामले में कोर्ट ने कहा कि यदि एक कलात्मक रचना सार्वजनिक हित में सामाजिक संदेश देती है, तो उसे अश्लील नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार, के.ए. अब्बास बनाम भारत संघ (1970) में कोर्ट ने समझाया कि रचनात्मक अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है, लेकिन यह सार्वजनिक शालीनता को नुकसान नहीं पहुँचा सकती।
इसके अलावा, अवीक सरकार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2014) में न्यायालय ने "समुदाय मानक परीक्षण" (Community Standards Test) को अपनाया, जिससे यह स्पष्ट किया कि किसी रचना का मूल्यांकन उसकी कुल प्रभाविता और समाज में प्रचलित नैतिकता के आधार पर किया जाना चाहिए।
प्रतिबंधों के साथ स्वतंत्रता का सिद्धांत (Concept of Freedom with Restrictions)
इस निर्णय में न्यायालय ने अनुच्छेद 19(1)(a) के दायरे और सीमाओं का विश्लेषण किया, यह कहते हुए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ परिस्थितियों में अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंध लगाना आवश्यक है।
न्यायालय ने माना कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग ऐतिहासिक आदरणीय व्यक्तित्वों की गरिमा को कम किए बिना होना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ समाज की नैतिकता और शालीनता को प्रभावित कर सकती हैं।
इस निर्णय में एक संतुलित दृष्टिकोण सामने आया, जिसमें रचनात्मक स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए सार्वजनिक शालीनता और आदरणीय व्यक्तित्वों की गरिमा की रक्षा को प्राथमिकता दी गई।
न्यायालय ने कहा कि जहाँ एक ओर अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, वहीं अनुच्छेद 19(2) यह याद दिलाता है कि यह स्वतंत्रता समाज की नैतिकता के अनुकूल होनी चाहिए और इसके दुरुपयोग की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
देविदास रामचंद्र तुलजापुरकर बनाम महाराष्ट्र राज्य के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को पुनः परिभाषित किया।
इस मामले ने स्पष्ट किया कि साहित्यिक और कलात्मक कार्यों में किसी ऐतिहासिक आदरणीय व्यक्ति का उपयोग एक सीमा तक ही स्वीकार्य है, और इसे शालीनता एवं सार्वजनिक नैतिकता के मानदंडों का पालन करना चाहिए।