किसी अपराध में जुर्माना कैसे तय किया जाता है, अर्थदंड पर क्या कहती है भारतीय दंड संहिता
अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अपराधी को सज़ा के तौर पर अर्थदंड भी लगाया जाता है। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर एक ही प्रकृति के जुर्म में अर्थदंड कम या अधिक कैसे हो सकता है? आखिर जुर्माने की राशि का निर्धारण कैसे किया जाता है? विधि द्वारा जुर्माने की राशि आखिर कैसे तय होती है?
अपराध साबित होने पर भारतीय दंड संहिता 1860 में किसी अपराध के लिए सज़ा के साथ साथ अर्थदड या जुर्माने का भी प्रावधान है। अर्थदंड की राशि किसी कानून की धारा में उल्लेखित राशि द्वारा निर्धारित की जाती है। अगर किसी कानून में अर्थदंड की राशि का उल्लेख है तो फिर अर्थदंड भी उसके अनुसार तय किया जाएगा।
इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 154 में कहा गया है कि उस भूमि का स्वामी या अधिभोगी जिस पर विधि विरुद्ध जमाव किया गया है, उस पर एक हज़ार रुपए का जुर्माना किया जाएगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि कानून की किसी धारा में ही यदि राशि का उल्लेख है तो उसी के अनुसार अर्थदंड का निर्धारण होगा।
आईपीसी की धारा 510 में जुर्माने की अधिकतम राशि 10 रुपए बताई गई है। हालांकि इस राशि का निर्धारण बहुत समय पहले हुआ था और व्यावहारिक रूप से इस राशि को बदला जाना चाहिए। यह भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 510 में बहुत पहले निर्धारित की गई राशि है।
कानून में जुर्माने की राशि अगर निर्धारित न हो तो :
अगर किसी कानून में अपराध के लिए जुर्माने की निश्चित राशि का उल्लेख न हो तो इस स्थिति में भारतीय दंड संहिता की धारा 63 जुर्माने की रकम का उल्लेख करती है। धारा 63 कहती है कि "जहां कि वह राशि अभिव्यक्त नहीं की गई है, जितनी राशि तक जुर्माना हो सकता है, वहां अपराधी जिस रकम के जुर्माने का दायी है, वह असीमित है किंतु अत्याधिक नहीं होगी।"
इसका अर्थ यह हुआ कि जुर्माने की रकम कितनी भी हो सकती है, अर्थात असीमित हो सकती है, किंतु अत्याधिक नहीं, अर्थात अपराधी की आर्थिक स्थिति के अनुसार जुर्माने की राशि अत्याधिक नहीं होगी। अपराधी की आर्थिक स्थिति के अनुसार ही जुर्माना तय होगा। जुर्म बड़ा है या छोटा है उसके आधार पर जुर्माना तय नहीं होगा, बल्कि अपराधी की हैसियत क्या है, उसे देखते हुए जुर्माने की राशि का निर्धारण होता है, जिससे कानून अपराध की रोकथाम में कारगर साबित हो सके।
आईपीसी में इसे संतुलित किया गया है कि यह न हो कि कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले अपराधी पर इतना अधिक जुर्माना लगा दिया जाए कि वह न्याय व्यवस्था से ही असंतुष्ट हो जाए और किसी धनवान अपराधी पर उसकी आर्थिक स्थिति के अनुसार इतना कम जुर्माना लगाया जाए कि कानून का उल्लंघन करना उसके लिए आसान हो जाए और कानून का उसे डर उसके मन से निकल जाए।
तो स्पष्ट हुआ कि किसी अपराध के लिए जुर्माना इस आधार पर नहीं होता है कि अपराध की प्रकृति क्या है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि यदि गंभीर है तो अधिक जुर्माना और अपराध यदि कम गंभीरता का है तो अधिक जुर्माना होगा। बल्कि जिन अपराधों में जुर्माने की राशि का उल्लेख विधि द्वारा नहीं किया गया है, उन अपराधों में अदालत अपराधी की मौजूदा आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर जुर्माना तय करती है। इसीलिए कई बार अदालतों के फैसलों में एक ही प्रकृति के अपराध के लिए जुर्माने की अलग अलग राशि होती है।