क्या UAPA राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करते हुए मौलिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भी सुरक्षित रखता है?
Unlawful Activities (Prevention) Act, 1967 यानी UAPA भारत का ऐसा क़ानून है जिसे देश की एकता (Unity), अखंडता (Integrity) और संप्रभुता (Sovereignty) को ख़तरे में डालने वाली गतिविधियों और आतंकवाद से निपटने के लिए बनाया गया। लेकिन इसके साथ ही, यह क़ानून बार-बार इस आधार पर चुनौती दिया गया कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) और संविधान द्वारा गारंटी किए गए अधिकारों को प्रभावित करता है।
न्यायपालिका (Judiciary) ने इस संतुलन को तय करने में केंद्रीय भूमिका निभाई है यानी एक ओर नागरिक अधिकार और दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षा। कई महत्वपूर्ण मामलों में अदालतों ने यह जांचा है कि UAPA के प्रावधान (Provisions) संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
संवैधानिक ढांचा (Constitutional Framework)
UAPA को संविधान के उस ढांचे में पढ़ना ज़रूरी है जिसमें मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) शामिल हैं, ख़ासकर अनुच्छेद (Articles) 14, 19, 21 और 22।
• अनुच्छेद 19 बोलने और संगठित होने की स्वतंत्रता देता है, लेकिन "Unlawful Activities" और "Terrorist Activities" पर रोक इन अधिकारों को प्रभावित करती है।
• अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जो गिरफ्तारी और लंबे समय तक हिरासत (Detention) से सीधे जुड़ा है।
• अनुच्छेद 22 निवारक हिरासत (Preventive Detention) और गिरफ़्तार व्यक्तियों को दी जाने वाली प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा (Procedural Safeguards) पर केंद्रित है।
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि राज्य (State) के पास सार्वजनिक व्यवस्था (Public Order) और संप्रभुता (Sovereignty) की रक्षा का वैध हित (Compelling Interest) है, लेकिन अधिकारों पर लगाई गई कोई भी रोक उचित (Reasonable) होनी चाहिए और अनुच्छेद 21 के तहत उचित प्रक्रिया (Due Process) का पालन होना चाहिए।
निवारक हिरासत और अनुच्छेद 21 (Preventive Detention and Article 21)
UAPA का सबसे महत्वपूर्ण पहलू निवारक हिरासत और लंबी अवधि की कैद है। सवाल यह उठता है कि क्या ये प्रावधान संविधान की मूल भावना यानी स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं।
• A.K. Gopalan v. State of Madras (1950)* में सुप्रीम कोर्ट ने शुरू में यह कहा था कि अगर क़ानून वैध है तो हिरासत को अनुच्छेद 21 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन बाद में Maneka Gandhi v. Union of India (1978) में कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 में "Fairness" और "Reasonableness" शामिल हैं। यानी जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला कोई भी क़ानून मनमाना (Arbitrary) नहीं हो सकता।
इसी सोच को UAPA की उन धाराओं पर लागू किया गया जो लंबे समय तक चार्जशीट दाखिल किए बिना हिरासत देती हैं और बेल (Bail) को कठिन बनाती हैं।
कठोर जमानत प्रावधान (Stringent Bail Provisions)
UAPA की धारा 43D(5) के तहत आतंकवाद से जुड़े मामलों में जमानत मिलना बेहद कठिन है। इस धारा के तहत अदालत तभी जमानत दे सकती है जब उसे लगे कि आरोप prima facie गलत हैं।
National Investigation Agency v. Zahoor Ahmad Shah Watali (2019) में सुप्रीम कोर्ट ने इन कठोर नियमों को बरकरार रखा और कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में संतुलन राज्य के पक्ष में झुकना चाहिए।
इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) के अनुच्छेद 21 पर असर पड़ा है क्योंकि लंबे समय तक बिना ट्रायल जेल में रहना पड़ता है। लेकिन अदालत ने यह तर्क दिया कि आतंकवाद जैसी चुनौती से निपटने के लिए असाधारण (Extraordinary) उपाय ज़रूरी हैं।
अस्पष्ट परिभाषाएँ और अनुच्छेद 19 (Vagueness and Article 19)
UAPA की परिभाषाएँ जैसे "Unlawful Activity" और "Terrorist Act" कभी-कभी अस्पष्ट (Vague) और बहुत व्यापक (Overbroad) मानी जाती हैं।
Shreya Singhal v. Union of India (2015) में सुप्रीम कोर्ट ने IT Act की धारा 66A को इसी आधार पर ख़त्म कर दिया था कि वह बहुत अस्पष्ट है और वैध अभिव्यक्ति (Legitimate Expression) को अपराध बना सकती है।
इसी तर्क से UAPA की धाराओं पर सवाल उठता है कि क्या ये असहमति (Dissent) और शांतिपूर्ण विरोध (Protest) को भी अपराध बना सकती हैं। अदालतों ने इस पर काफ़ी संयम (Deferential Approach) दिखाया और सरकार को व्यापक अधिकार दिए, लेकिन साथ ही चेतावनी भी दी कि दुरुपयोग (Misuse) पर नज़र रखनी होगी।
व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित करना (Designation of Individuals as Terrorists)
2019 संशोधन (Amendment) के बाद सरकार को यह अधिकार मिला कि वह केवल संगठनों (Organizations) ही नहीं बल्कि व्यक्तियों (Individuals) को भी आतंकवादी घोषित कर सकती है।
यह प्रश्न उठा कि क्या यह अनुच्छेद 21 के तहत प्रतिष्ठा (Reputation) और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के अधिकार का उल्लंघन है।
TADA से जुड़े मामले Kartar Singh v. State of Punjab (1994) में सुप्रीम कोर्ट ने कठोर प्रावधानों को तो बरकरार रखा लेकिन यह भी कहा कि प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा (Procedural Safeguards) कमजोर नहीं होनी चाहिए।
इसी तर्ज़ पर अदालत ने संकेत दिया है कि किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करना न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा ताकि मनमाने (Arbitrary) फैसले से बचा जा सके।
अनुच्छेद 14 और समानता का अधिकार (Equality Before Law and Article 14)
UAPA की कठोर बेल प्रणाली और लंबी हिरासत अनुच्छेद 14 यानी समानता (Equality) के अधिकार के खिलाफ मानी गई। आरोप था कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में अभियुक्तों (Accused) को बाक़ी अपराधियों से अलग और असमान (Unequal) व्यवहार मिलता है।
लेकिन अदालतों ने कहा कि आतंकवाद एक विशेष प्रकार का अपराध है, इसलिए इसके लिए अलग व्यवस्था तर्कसंगत (Rational) है। State of West Bengal v. Anwar Ali Sarkar (1952) में कहा गया था कि वर्गीकरण (Classification) तभी वैध है जब उसका उद्देश्य से तार्किक संबंध हो। UAPA के मामले में अदालतों ने पाया कि यह भेदभाव राष्ट्रीय सुरक्षा के उद्देश्य से जुड़ा हुआ है।
न्यायिक संतुलन और आगे की राह (Judicial Balancing and the Way Forward)
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स ने बार-बार यह संतुलन बनाने की कोशिश की है कि मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) सुरक्षित रहें और साथ ही राज्य की राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) की ज़िम्मेदारी भी पूरी हो।
Maneka Gandhi, Shreya Singhal, Zahoor Watali, और Kartar Singh जैसे फैसलों से स्पष्ट है कि अदालतें कठोर क़ानूनों को वैध मानती हैं लेकिन यह भी सुनिश्चित करती हैं कि प्रक्रिया निष्पक्ष (Fair) और उचित (Reasonable) हो।
UAPA भारतीय संविधान के ढांचे में एक जटिल (Complex) स्थान रखता है। एक तरफ़ यह कानून राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता (Sovereignty) की रक्षा के लिए ज़रूरी है, लेकिन दूसरी ओर यह स्वतंत्रता (Liberty), समानता (Equality) और उचित प्रक्रिया (Due Process) पर असर डालता है।
अब तक अदालतों ने इस कानून को संवैधानिक मानते हुए भी बार-बार यह याद दिलाया है कि आतंकवाद से लड़ाई मौलिक अधिकारों के स्थायी हनन (Permanent Encroachment) का कारण नहीं बननी चाहिए।
भविष्य में UAPA की संवैधानिकता इस बात पर निर्भर करेगी कि राज्य इसका इस्तेमाल कैसे करता है और न्यायपालिका किस तरह से यह सुनिश्चित करती है कि संविधान ही नागरिकों की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों की अंतिम गारंटी बना रहे।