क्या दीवानी न्यायालय किसी व्यक्ति को आपराधिक मुकदमा दर्ज करने से रोकने का अधिकार रखता है?

सप्रीम कोर्ट ने M/S Frost International Limited v. M/S Milan Developers and Builders (P) Limited & Anr. मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। यह मामला मुख्य रूप से कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 - CPC), नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881 - N.I. Act) और स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, 1963 (Specific Relief Act, 1963 - SR Act) के प्रावधानों (Provisions) से संबंधित था।
इसमें यह सवाल उठाया गया कि क्या कोई वादी (Plaintiff) दीवानी मुकदमे (Civil Suit) के माध्यम से आपराधिक मुकदमे (Criminal Case) को रोक सकता है, खासकर जब मामला धोखाधड़ी (Cheque Dishonor) से संबंधित हो।
CPC के आदेश VII नियम 11 (Order VII Rule 11) के तहत वादपत्र अस्वीकृति (Rejection of Plaint)
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि CPC के आदेश VII नियम 11 के तहत यदि कोई वादपत्र (Plaint - Lawsuit) किसी कानूनी आधार पर अस्वीकार्य (Non-maintainable) हो या कानून द्वारा निषिद्ध (Barred by Law) हो, तो इसे प्रारंभिक चरण में ही खारिज किया जा सकता है।
इस संदर्भ में, कोर्ट ने T. Arivandandam v. T.V. Satyapal (1977) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि यदि वादपत्र (Plaint) में असली विवाद (Real Dispute) न हो और केवल भ्रम (Illusion) पैदा किया गया हो, तो उसे खारिज कर देना चाहिए।
इसी प्रकार, Dahiben v. Arvindbhai Kalyanji Bhanusali (2020) मामले में कोर्ट ने कहा कि यदि कोई मुकदमा स्पष्ट रूप से तुच्छ (Vexatious) और आधारहीन (Frivolous) हो, तो इसे आरंभ में ही खत्म किया जाना चाहिए।
नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के प्रावधान
इस मामले में धारा 118(a) और धारा 138 पर विशेष जोर दिया गया।
• धारा 118(a) (Section 118(a)) – यह मान्यता (Presumption) प्रदान करती है कि हर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (Negotiable Instrument), जैसे चेक (Cheque), एक वैध लेन-देन (Valid Transaction) के तहत जारी किया गया है, जब तक कि विपरीत साबित न हो।
• धारा 138 (Section 138) – यदि किसी चेक का भुगतान अस्वीकृत (Dishonored) हो जाता है, तो यह एक आपराधिक अपराध (Criminal Offense) होता है, और दोषी (Accused) को दो साल तक की सजा (Imprisonment) या चेक राशि के दोगुने तक का जुर्माना (Fine) हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वादी (Plaintiff) दीवानी मुकदमे (Civil Suit) के माध्यम से इस अपराध से नहीं बच सकता। इस संदर्भ में, कोर्ट ने Krishna Janardhan Bhat v. Dattatraya G. Hegde (2008) मामले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि धारा 118(a) की मान्यता (Presumption) को केवल मजबूत प्रमाण (Strong Evidence) के माध्यम से ही खारिज किया जा सकता है।
स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, 1963 (Specific Relief Act, 1963) की धारा 34
धारा 34 (Section 34) कहती है कि यदि कोई व्यक्ति किसी कानूनी अधिकार (Legal Right) के लिए घोषणा (Declaration) चाहता है, लेकिन आगे की राहत (Further Relief) मांगने में सक्षम होते हुए भी नहीं मांगता, तो ऐसी घोषणा दी नहीं जा सकती।
कोर्ट ने Sopan Sukhdeo Sable v. Charity Commissioner (2004) का हवाला देते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति केवल घोषणा (Declaration) चाहता है, लेकिन कोई ठोस राहत (Concrete Relief) नहीं मांगता, तो इसका मतलब है कि वह अपने दायित्वों (Obligations) से बचने की कोशिश कर रहा है।
स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट, 1963 (Specific Relief Act, 1963) की धारा 41: आपराधिक कार्यवाही पर रोक (Section 41: Bar on Injunctions Against Criminal Proceedings)
धारा 41(b) और 41(d) विशेष रूप से यह कहती हैं कि किसी व्यक्ति को अपराध (Crime) से संबंधित मुकदमे (Proceedings) को रोकने के लिए आदेश (Injunction) नहीं दिया जा सकता।
इस संदर्भ में, कोर्ट ने Cotton Corporation of India Ltd. v. United Industrial Bank Ltd. (1983) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि कोई दीवानी अदालत (Civil Court) किसी व्यक्ति को आपराधिक मुकदमे (Criminal Case) दर्ज कराने से नहीं रोक सकती।
इसी तरह Aristo Printers v. Purbanchal Trade Centre (1992) मामले में, अदालत ने कहा कि धारा 138 के तहत अभियोजन (Prosecution) को रोकने के लिए दायर किया गया दीवानी मुकदमा मान्य नहीं होगा।
CPC की धारा 115 (Orissa Amendment) के तहत पुनरीक्षण (Revision under Section 115 CPC - Orissa Amendment)
इस मामले में, कोर्ट ने CPC की धारा 115 (Orissa Amendment) की व्याख्या की, जिसमें हाईकोर्ट और जिला न्यायालय (High Court & District Court) को यह अधिकार दिया गया है कि वे ऐसे आदेश को पलट सकते हैं जो किसी मुकदमे (Suit) को पूरी तरह समाप्त कर सकता हो।
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि वादी (Plaintiff) द्वारा दायर किया गया मुकदमा कानूनी रूप से अमान्य (Legally Invalid) था और इसे आदेश VII नियम 11 CPC के तहत खारिज किया जाना चाहिए।
अदालत ने कहा कि कोई भी व्यक्ति दीवानी मुकदमे (Civil Suit) के माध्यम से आपराधिक कार्यवाही (Criminal Proceedings) को रोकने का प्रयास नहीं कर सकता। विशेष रूप से जब मामला चेक बाउंस (Cheque Bounce) के तहत आपराधिक मुकदमे (Criminal Prosecution) से संबंधित हो।
इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया कि दीवानी अदालतें (Civil Courts) आपराधिक मामलों में हस्तक्षेप (Interference) नहीं कर सकतीं और कोई व्यक्ति कानून के दायरे से बचने के लिए दीवानी राहत (Civil Relief) नहीं ले सकता।