आदेश 33, सीपीसी: जानिए कौन है 'निर्धन व्यक्ति' जिसे प्रथमतः कोर्ट-फीस देने से मिल सकती है छूट?
जैसा कि हम जानते हैं, किसी व्यक्ति को न्याय तक उसकी पहुंच से केवल इसीलिए दूर नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसके पास अदालत के लिए निर्धारित शुल्क (जिसे हम 'कोर्ट-फीस' कहते हैं) का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन मौजूद नहीं है [ए. ए. हजा मुनिउद्दीन बनाम भारतीय रेलवे, (1992) 4 एससीसी 736]।
सुप्रीम कोर्ट ने शीला बरसे बनाम महाराष्ट्र राज्य AIR (1983) SC 378, सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन AIR 1978 SC 1675, एम. एच. होसकोट बनाम महाराष्ट्र राज्य AIR 1978 SC 1548, हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य AIR 1979 SC 1369 और खत्री बनाम बिहार राज्य AIR 1981 SC 928 जैसे मामलों में भी गरीबों और जरूरतमंदों को समय-समय पर कानूनी सहायता के महत्व पर जोर दिया है।
इसके अलावा, अधिवक्ता अधिनियम, 1961 भी एक अधिवक्ता को एक निर्धन व्यक्ति की, जो अपनी व्यक्तिगत क्षमता में एक वकील से संपर्क करता है, कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए जिम्मेदारी सौंपता है। हम एक अन्य लेख में इस विषय पर चर्चा कर चुके हैं कि आखिर वकीलों को क्यों देनी चाहिए प्रो-बोनो (निशुल्क) कानूनी सहायता?
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 33 (ORDER XXXIII)
हम यह जानते हैं कि प्लेंट (वाद-पत्र) दाखिल करने के समय एक वादी को कोर्ट फीस एक्ट, 1870 द्वारा निर्धारित अदालत के शुल्क का भुगतान करना पड़ता है। लेकिन, ऐसे असंख्य व्यक्ति हमारे समाज में मौजूद हैं, जो अपनी गरीबी के कारण कोर्ट-फीस का भुगतान करने में असमर्थ हैं। इसी क्रम में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत आदेश 33 (ORDER XXXIII), ऐसे व्यक्तियों को कोर्ट-फीस देने से छूट प्रदान करता है।
गौरतलब है कि आदेश 33 के अंतर्गत 'निर्धन व्यक्तियों' द्वारा मुकदमा दायर करने के सम्बन्ध में प्रावधान दिया गया है। यह आदेश ऐसे लोगों को अदालत में अपना मुक़दमा लाने में सक्षम बनाता है, जो अदालत की फीस का भुगतान करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि वे अत्यंत गरीब हैं उनके पास कोर्ट-फीस देने के पर्याप्त साधन नहीं हैं। इस आदेश के अंतर्गत उन्हें आवश्यक कोर्ट-फीस के भुगतान के बिना, प्रथमत: (at the first instance) वाद-पत्र दाखिल करने की अनुमति दी जाती है।
मथाई एम्. पैकेदय बनाम सी. के. एंटोनी, (2011) 13 SCC 174 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह देखा गया था कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 33 का उद्देश्य, न्याय की तलाश में किसी व्यक्ति को सक्षम बनाना है, जो गरीबी से पीड़ित है, या अन्यथा अदालत का शुल्क अदा करने हेतु उसके पास पर्याप्त साधन मौजूद नहीं है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 33 ऐसे निर्धन व्यक्ति को प्रथमतः (at the first instance) आवश्यक कोर्ट-फीस का भुगतान करने से छूट देता है, बशर्ते वह कुछ आवश्यक तत्वों को पूरा करे।
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश 33 को मुख्यतः 3 उद्देश्यों की पूर्ती के लिए कानून में जगह दी गयी है। इन 3 उद्देश्यों को वेंकटासुब्बैयाह बनाम तिरुपथियाह, AIR 1955AP 165 के मामले में बताया गया था। आइये जानते हैं यह तीन उद्देश्य:-
(a) किसी निर्धन व्यक्ति के बोना फाइड क्लेम की रक्षा करने के लिए
(b) राजस्व के हित का बचाव करने के लिए
(c) प्रतिवादी के उत्पीडन से बचाव के लिए
कौन है निर्धन व्यक्ति?
आर. वी. देव बनाम मुख्य सचिव केरल सरकार (2007) 5 एससीसी 698 के मामले में यह कहा गया था कि जब किसी निर्धन व्यक्ति द्वारा अपनी निर्धनता को लेकर एक आवेदन दायर किया जाता है (आदेश 33, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत निर्धन व्यक्ति के तौर पर सूट दायर करने हेतु), तो अदालत द्वारा इस बात को तय करने के लिए कुछ कारकों पर विचार किया जाना चाहिए कि वह व्यक्ति आदेश 33 के अर्थों में निर्धन है अथवा नहीं।
आइये, आगे बढ़ने से पहले सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 33, नियम 1 को देख लेते हैं जो निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद संस्थित किये जाने के बारे में प्रावधान करता है:-
1. निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद संस्थित किए जा सकेंगे – निम्नलिखित उपबंधों के अधीन रहते हुए कोई भी वाद निर्धन व्यक्तियों द्वारा संस्थित किया जायेगा
स्पष्टीकरण 1 – कोई व्यक्ति निर्धन व्यक्ति तब है
(a) जब उसके पास इतना पर्याप्त साधन (डिक्री के निष्पादन में कुर्की से छूट प्राप्त संप्पत्ति से और वाद की विषय वस्तु से भिन्न) नहीं है कि वह वाद या वाद पत्र के लिए विधि द्वारा विहित फीस दे सके; अथवा
(b) जहाँ ऐसी कोई फीस विहित नहीं है वहां, तब वह एक हज़ार रूपये के मूल्य की ऐसी संपत्ति का, जो डिक्री के जो डिक्री के निष्पादन में कुर्की से छूट प्राप्त संपत्ति से और वाद की विषय वस्तु से अलग है
स्पष्टीकरण 2 – इस प्रश्न पर विचार करने में कि आवेदक निर्धन व्यक्ति है या नहीं, किसी ऐसी संपत्ति को ध्यान में रखा जायेगा जिसको उसने निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद चलने की अनुज्ञा के लिए अपना आवेदन प्रस्तुत करने के पश्च्यात और आवेदन का विनिश्चय होने के पूर्व अर्जित किया है
स्पष्टीकरण 3 – जहाँ वादी प्रतिनिधि की हैसियत में वाद लाता है वहां इस प्रश्न का अवधारण कि वह निर्धन व्यक्ति है, उन साधनों के प्रति निर्देश से किया जायेगा जो ऐसी हैसियत में उसके पास हैं
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक पार्टी जो निर्धनता के आधार पर कोर्ट-फीस के भुगतान से छूट के लिए आवेदन करती है, उसे अदालत को एक महत्वपूर्ण घटक के बारे में संतुष्ट करना होगा, कि पार्टी के पास वाकई कोर्ट-फीस का भुगतान करने की क्षमता नहीं है। पार्टी के लिए इस आशय को लेकर सिर्फ एक साधारण बयान दे देना एक पर्याप्त नहीं होगा कि उसे निर्धन व्यक्ति के तौर पर वाद संस्थित करने की अनुमति दे दी जाये, क्योंकि इस देश में दलीलों में झूठे कथन दर्ज करना आम बात है।
इसलिए यह कानून की आवश्यकता है कि पार्टी द्वारा दिए गए बयान को कोर्ट की संतुष्टि के अनुसार पुष्ट किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह होगा कि पार्टी को यह साबित करना होगा कि उसके पास न केवल किसी की संपत्ति या बैंक बैलेंस से कोर्ट-फीस का भुगतान करने की क्षमता नहीं है, बल्कि कोर्ट को इस बात को लेकर भी संतुष्ट किया जाना होगा कि पार्टी की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह कोर्ट-फीस के भुगतान के लिए अपेक्षित धनराशि जुटा सके।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 33 के मूल उद्देश्य पर केरल उच्च न्यायालय द्वारा सुमति कुट्टी बनाम नारायणी AIR 1973 Ker 19 में व्यापक रूप से चर्चा की गई, जहां यह देखा गया था कि वास्तविक परीक्षण यह है कि क्या याचिकाकर्ता अपनी संपत्ति को, यदि कोई हो तो, अपेक्षित कोर्ट-शुल्क का भुगतान करने के उद्देश्य से बिना किसी कठिनाई के कैश में बदल सकता है या नहीं।
"पर्याप्त साधन" से क्या तात्पर्य है?
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 33 के नियम 1 के स्पष्टीकरण 1 के अनुसार, वह व्यक्ति, जिसके पास या तो पर्याप्त साधन नहीं हैं कि वह सूट के लिए कानून द्वारा निर्धारित अदालती-शुल्क जमा कर सके (जहाँ कोर्ट-फीस निर्धारित है), या जहाँ ऐसी कोर्ट-फीस निर्धारित नहीं है, वहां वह 1 हज़ार मूल्य की संपत्ति का हकदार नहीं है।
दोनों ही मामलों में, एक डिक्री के निष्पादन में संलग्नक से छूट प्राप्त संपत्ति और सूट के विषय-वस्तु को ऐसे निर्धन व्यक्ति की वित्तीय मूल्य या क्षमता की गणना करने के लिए अदालत द्वारा ध्यान में नहीं रखा जाएगा।
इसके अलावा, अन्य कारकों जैसे कि व्यक्ति की रोजगार की स्थिति और पेंशन के रूप में सेवानिवृत्ति के लाभ, अचल संपत्ति का स्वामित्व, और व्यक्ति के कुल ऋण और परिवार के सदस्य या करीबी दोस्तों से प्राप्त वित्तीय सहायता के रूप में कुल आय को यह निर्धारित किये जाने के लिए कि क्या एक व्यक्ति पर्याप्त साधन से युक्त है या नहीं एवं क्या वह अपेक्षित न्यायालय शुल्क का भुगतान करने में असमर्थ है, ध्यान में रखा जा सकता है [मथाई एम्. पैकेदय बनाम सी. के. एंटोनी, (2011) 13 SCC 174]।
इसलिए, सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 33 नियम 1 में अभिव्यक्ति "पर्याप्त साधन" सामान्य रूप से किसी व्यक्ति द्वारा अदालत के शुल्क का भुगतान करने की क्षमता या अक्षमता के बारे में उपलब्ध वैध तरीकों से धन जुटाने के विचार करती है।