The Indian Contract Act में Guarantee के Contract

Update: 2025-09-08 04:44 GMT

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 126 के अंतर्गत ग्यारंटी की संविदा को परिभाषित किया गया है। धारा 126 के अनुसार प्रत्याभूति की संविदा किसी पर व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम की दशा में उनके वचन का पालन या उसके दायित्व का निर्वहन करने की संविदा है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी पर व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम की दशा में उसकी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता है या अपने दायित्व का निर्वहन नहीं करता है तो वह उसकी प्रतिज्ञा का पालन करेगा।

कुछ यूं भी समझा जा सकता है कि जब कोई व्यक्ति अपने वचन का पालन न करें तब उसकी ओर से पालन करने का दायित्व किसी व्यक्ति द्वारा अपने ऊपर लिया जाता है।

एक साधारण से उदाहरण के माध्यम से यूं समझा जा सकता है कि किसी व्यक्ति द्वारा यह करार किया जाता है कि दूसरे व्यक्ति द्वारा संदाय नहीं किए जाने पर वह उसका संदाय करेगा एक प्रत्याभूति की संविदा है।

बैंक इत्यादि के ऋण के समस्त काम प्रत्याभूति की संविदा के आधार पर ही संचालित हो रहे हैं। प्रत्याभूति की संविदा की परिभाषा देते हुए भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 126 इस प्रकार की संविदा के पक्षकारों का भी उल्लेख करती है जिसके अंतर्गत इस संविदा में मुख्यतः तीन प्रकार के पक्षकार होतें हैं।

प्रतिभू

वह व्यक्ति होता है जो प्रत्याभूति देता है जो व्यक्ति प्रत्याभूति देता है वही प्रतिभू कहलाता है

मूल ऋणी

वह व्यक्ति जिसके व्यतिक्रम के बारे में प्रत्याभूति प्रदान की जाती है मूल ऋणी कहलाता है

लेनदार

वह व्यक्ति जिसको प्रत्याभूति दी जाती है लेनदार कहलाता है।

जयश्री राय चौधरी बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड एआईआर 1952 कोलकाता 355 के प्रकरण में कहा गया है कि प्रत्याभूति की संविदा का उद्देश्य लेनदार को सुरक्षा प्रदान करना होता है। प्रत्याभूति की संविदा हेतु मूल ऋणी का होना आवश्यक होता है।

प्रत्याभूति की संविदा लिखित या मौखिक हो सकती है यह अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है। यह संबंध पक्षकारों के आचरण से भी संबंधित हो सकती है।

अतः यह कहा जा सकता है कि प्रत्याभूति की संविदा लिखित हो सकती हैं, मौखिक हो सकती हैं, अभिव्यक्त हो सकती हैं, विवक्षित हो सकती है, पक्षकारों के आचरण से संबंधित हो सकती है। तीसरी संविदा प्रतिभू और मूल ऋणी के मध्य होती है जिसके द्वारा वह प्रतिभू को क्षतिपूर्ति करने की विवक्षित प्रतिज्ञा करता है। आज्ञा का पालन करने में अपने दायित्व का निर्वहन करता है तो वह उसकी प्रतिज्ञा को पूरी करेगा।

पी जी चाको बनाम लाइफ इंश्योरेंस ऑफ इंडिया एआईआर 2008 एसी 424 के प्रकरण में कहा गया है कि प्रतिभूति के संविदा में किसी बीमाकृत व्यक्ति को सभी बातों की जानकारी देनी चाहिए यदि वह जानबूझकर प्रश्नों का गलत उत्तर देता है या गलत जानकारी देता है तो ऐसी संविदा को निराकृत किया जा सकता है।

नगीना कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड बनाम इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया एआईआर 1992 दिल्ली 243 के प्रकरण में कहा गया है कि जहां संविदा के अंतर्गत अग्रिम भुगतान किया जा चुका है ताकि बैंक प्रत्याभूति के विपरीत की दशा में पीड़ित पक्षकार को क्षतिपूर्ति दी जा सके तो ऐसी स्थिति में उसे न्यायोचित माना गया।

पंजाब नेशनल बैंक बनाम सुरेंद्र सिंह एआईआर 1996 एमपी 15 के वाद में कहा गया है कि बैंक प्रत्याभूति का संविदा के अनुपालन में महत्वपूर्ण योगदान है अतः इसमें तभी कोई हस्तक्षेप किया जाना चाहिए जबकि ऐसा किया जाना नितांत अपेक्षित आवश्यक है।

अब तक के अध्ययन से यह समझा जा सकता है इस धारा 126 में संविदा के उपरोक्त 3 पक्षकार होते हैं। वास्तव में प्रत्याभूति की संविदा का उद्देश्य लेनदार को सुरक्षा प्रदान करना होता है अर्थात वह लेनदार के हित को सुरक्षित करता है। प्रतिभू भी लेनदार को वचन देता है कि मूल ऋणी अपनी प्रतिज्ञा के पालन का दायित्व का निर्वहन करने में व्यतिक्रम (default) करता है तो ऐसी स्थिति में वह स्वयं संविदा का पूर्ण पालन करेगा उसके वचन को पूरा करेगा अतः लेनदार को मूल ऋणी द्वारा चूक किए जाने की स्थिति में होने वाली हानि की संभावना से सुरक्षा मिलती है।

इस धारा से संबंधित कुछ मूल तात्विक बातें हैं जिन्हें ध्यान रखा जाना चाहिए-

संविदा मूल ऋणी और लेनदार के मध्य होती है

प्रतिभू और लेनदार के मध्य संविदा होती है

संविदा प्रतिभू और मूल ऋणी के मध्य होती है

जो व्यक्ति प्रत्याभूति देता है वह प्रतिभू है

जिस व्यक्ति के व्यतिक्रम के संबंध में प्रत्याभूति दी जाती है वह मूल ऋणी है

जिस व्यक्ति को प्रत्याभूति दी जाती है वह लेनदार है

सर्वप्रथम संविदा मूल ऋणी एवं लेनदार के मध्य होती है

प्रत्याभूति की संविदा का उद्देश लेनदार को सुरक्षा प्रदान करना है

प्रत्याभूति की संविदा में प्रतिभू यह प्रतिज्ञा करता है कि मूल ऋणी अपनी प्रतिज्ञा के पालन में दायित्व के निर्वहन में चूक करता है तो ऐसी स्थिति में वह उसकी प्रतिज्ञा का पालन करेगा।

यह कहा जा सकता है कि प्रतिभूओं का दायित्व मूल ऋणी द्वारा किए जाने वाले चूक के संदर्भ में होता है किंतु यदि मूल ऋणी द्वारा की गई कोई ऐसी प्रतिज्ञा नहीं है जिसे पूरा करने के लिए वह दायीं हो या मूल ऋणी किसी दायित्व के निर्वहन के लिए दायीं नहीं है तो प्रत्याभूति की संविदा का निर्माण ही संभव नहीं है। जहां प्रतिभू किसी प्रतिज्ञा के पालनार्थ किसी दायित्व के निर्वहन हेतु अपने दायित्व को प्रथमिक बना लेता है तो ऐसी स्थिति में ऐसी संविदा प्रत्याभूति संविदा नहीं है।

कलाधन बनाम नाम्बियार बनाम कुण्टीरमन एआईआर 1957 मद्रास 164 के मामले में मद्रास हाईकोर्ट ने यह विचार व्यक्त किया कि यदि मामले से संबंधित तथ्यों और परिस्थितियों से ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त प्रत्याभूति संविदा में वास्तव में क्षतिपूर्ति की संविदा है तो ऐसी स्थिति में उक्त तथाकथित प्रतिभू क्षतिपूर्ति की संविदा के आधार पर अवयस्क द्वारा लिए गए ऋण के भुगतान के लिए दायीं होगा।

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