स्पर्श उपाध्याय
आज के दौर में अवयस्क/नाबालिग सार्वजनिक जीवन में पहले से भी अधिक सक्रिय दिखते हैं। नाबालिग, सिनेमा हॉल में जाते हैं, टिकट पर यात्रा करते हैं, साइकिल स्टैंड का इस्तेमाल करते हैं, अपने कपड़े सिलवाने या साफ करने के लिए सेवाओं का उपयोग करते हैं, शिक्षा संस्थानों में स्वयं फीस भरते हैं और जीवन और शिक्षा से जुड़ी बहुत सारी अन्य चीज़ों का दैनिक लेनदेन करते हैं। ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि हम अवयस्कों/नाबालिगों द्वारा किये जाने वाले करार या संविदा (Agreement) की वैधता को समझें।
जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 के अनुसार सभी करार (Agreements)अनुबंध/संविदा (Contract) नहीं हैं। केवल वे करार ही संविदा हैं, जो ऐसी पार्टियों द्वारा किए जाते हैं, जो अनुबंध/संविदा में प्रवेश करने के लिए सक्षम हैं।
अब करार करने के लिए सक्षम होना क्या है, यह भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 11 में साफ़ किया गया है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 11 कहती है,
"हर ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है जो उस विधि के अनुसार, जिसके वह अध्यधीन है, प्राप्तवय हो, और जो स्वस्थचित्त हो, और किसी विधि द्वारा जिसके वह अध्यधीन है, संविदा करने से निर्हित न हो।
यह धारा इस बात को साफ़ करती है कि हर वो व्यक्ति संविदा कर सकता है जो बालिग/व्यस्क हो, स्वस्थचित्त का हो, और जिस विधि के वह व्यक्ति अधीन हो, उस विधि के अंतर्गत वह संविदा करने से निर्हित न किया गया हो।
यह साफ़ है कि एक नाबालिग/अवयस्क (18 वर्ष की आयु से कम) द्वारा किये गए करार, भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 11 के अनुसार, कानूनी रूप से वैध करार या संविदा नहीं माने जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि कानून का ऐसा मानना है कि एक नाबालिग/अवयस्क, करार करते वक़्त अपने हित में उचित फैसला लेने में सक्षम नहीं होता है और उसकी अक्षमता का कोई अन्य व्यक्ति फायदा उठा सकता है, जिससे ऐसे नाबालिग को नुकसान हो सकता है। हालांकि एक नाबालिग द्वारा किया गया करार, शून्य (Void) अवश्य है, लेकिन ऐसा करार अवैध (Illegal) नहीं है, क्योंकि इस को लेकर कोई वैधानिक प्रावधान मौजूद नहीं है।
नाबालिग के एक करार के विषय में कुछ आवश्यक बातेंं
नाबालिग द्वारा किया गया करार शून्य (Void) होता है - यदि हम भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 एवं धारा 11 को एक साथ भी पढ़ें तो हम यह जानेंगे कि इन धाराओं में कहीं भी यह नहीं लिखा गया है कि यदि एक नाबालिग के द्वारा एक करार किया जाता है तो वह उसके विकल्प पर शून्यकरणीय करार (Voidable Agreement) होगा या पूर्ण रूप से शून्य करार (Void Agreement) होगा। हालांकि मोहिरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष 1903 30 Cal 539 के निर्णय में प्रिवी काउंसिल ने यह माना कि एक नाबालिग का करार, void ab initio (आरंभतः शून्य) है अर्थात ऐसा करार जो शुरुआत से ही शून्य है। इस निर्णय के बाद यह साफ़ है कि कानून की नजर में ऐसे करार का कोई मूल्य नहीं है।
हालांकि हमे यह ध्यान में रखना होगा कि जहां एक नाबालिग ने किसी चीज़ के लिए धन (प्रतिफल) दिया और कोई वस्तु प्राप्त की और उसका उपभोग किया, तो यह न्याय के सिद्धांतों के विरूद्ध होगा कि एक नाबालिग को (सिर्फ इसलिए क्योंकि एक नाबालिग, संविदा करने में सक्षम नहीं है) चुकाए गए पैसे वापस प्राप्त करने का अधिकार दिया जाए। यह सिद्धांत वैलेंटिनी बनाम कनाली (1889) 59 LJ QB 74 के मामले में प्रतिपादित किया गया था।
यदि कोई नाबालिग अपनी उम्र को गलत तरीके से प्रस्तुत करके संपत्ति या वस्तु प्राप्त करता है तो उसे इसे बहाल (Restitute) करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, लेकिन ऐसा केवल तब तक किया जा सकता है, जब तक कि उस संपत्ति को यह उस वस्तु को उसके कब्जे में प्राप्त किया जा सकता हो। इसे प्रतिस्थापन के न्यायसंगत सिद्धांत (equitable doctrine of restitution) के रूप में जाना जाता है।
नाबालिग की ओर से माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया करार
राज रानी बनाम प्रेम आदिब (AIR 1949 Bom। 215) के मामले में यह अभिनिर्णित किया गया था कि एक नाबालिग, कानून द्वारा प्रवर्तनीय वचन (promise) का निर्माण नहीं कर सकता है। हालांकि यह ज़रूर है कि एक नाबालिग के माता/पिता अथवा अभिभावक, उसकी ओर से संविदा कर सकते हैं।
एस. सुब्रह्मण्यम बनाम के. एस. राव ILR 1949 Mad 141 PC के मामले में यह अभिनिर्णित किया गया था कि यदि करार, अभिभावक की क्षमता के भीतर है और यह नाबालिग के लाभ के लिए है तो अभिभावक उस स्थिति में नाबालिग की ओर से कानून द्वारा प्रवर्तनीय करार कर सकते हैं और वह करार विशेष रूप से लागू करने योग्य है। गौरतलब है कि नाबालिग (जिसकी ओर वह करार किया गया) उस करार से बाध्य होगा।
नाबालिग की करार में वचनगृहीता (Promisee) की स्थिति
एक नाबालिग, करार के अंतर्गत एक वचनगृहीता (Promisee) हो सकता है, परन्तु वचनदाता (Promisor) नहीं। इसलिए यदि नाबालिग ने वचन का अपना हिस्सा या दायित्व पूरा किया है, लेकिन दूसरे पक्ष ने वचन के अंतर्गत अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं किया है, तो वह नाबालिग उस करार को लागू करा सकता है।
राघव चारियार बनाम श्रीनिवास AIR 1917 Mad 630 F.B. के मामले में यह अभिनिर्णित किया गया कि जब यह कहा जाता है कि एक नाबालिग. एक करार करने में अक्षम है, तो इसका यह मतलब है कि कानून, नाबालिग के किसी भी संविदात्मक दायित्वों को लागू करने की अनुमति नहीं देगा। हालांकि वह करार के अंतर्गत लाभ को प्राप्त करने के लिए अदालत से प्रार्थना कर सकता है। यही कारण है कि जब एक नाबालिग, किसी रेस्तरां, दुकान, सिनेमा हॉल आदि जगह जाकर और पैसे देकर कोई वस्तु खरीदता है या किसी सेवा का उपभोग करता है, तो ऐसा लेन-देन पूर्ण रूप से उचित है एवं नाबालिग उसके बदले में लाभ लेने का हक़दार है।
मूलभूत आवश्यकतों की नाबालिग को आपूर्ति
यदि कोई व्यक्ति, जो संविदा में प्रवेश करने में स्वयं असमर्थ है (नाबालिग होने के चलते या किसी अन्य कारण से), और उसे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति, किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की जाती है तो जिस व्यक्ति ने वह आपूर्ति की है, वह ऐसे अक्षम व्यक्ति की संपत्ति से उसके बदले में प्रतिपूर्ति (repayment/reimbursement) प्राप्त करने का हकदार होता है। यह अधिकार एक नाबालिग/अवयस्क के खिलाफ भी मिलेगा। हालाँकि अगर नाबालिग की खुद की कोई संपत्ति नहीं है, तो ऐसा नाबालिग, दूसरे व्यक्ति (जिसने ऐसी वस्तुओं की आपूर्ति की) की प्रतिपूर्ति के लिए बाध्य नहीं हो सकता है।
ऐसी मूलभूत आवश्यकताएं क्या होंगी, यह केस की प्रकृति के अनुसार देखा जाता है। नाबालिग को प्रदान की जाने वाली आवश्यक वस्तुओं में सेवाएं भी शामिल हैं। मूलभूत आवश्यकताओं के उदाहरण के लिए हम टिक्कीलाल बनाम कोमल चंद AIR (1940) Nag 327 का मामला देख सकते हैं, जहां एक परिवार में एक लड़की की शादी के लिए एक नाबालिग को कुछ धनराशि उधार दी गई थी और बाद में ऋणदाता को नाबालिग की संपत्ति से प्रतिपूर्ति प्राप्त करने की अनुमति दी गई थी।
नाबालिग के लाभ के लिए संविदा
जहां एक नाबालिग ने पूर्ण प्रतिफल का भुगतान किया किया है और एक करार के तहत उसके द्वारा कुछ किए जाने की आवश्यकता नहीं है या उसे कोई दायित्व उठाने की आवश्यकता नहीं है, वहां ऐसा नाबालिग वह लाभ प्राप्त कर सकता है। हालांकि नाबालिग के अभिभावक या माता-पिता, उसके द्वारा किये गए करार के लिए जिम्मेदार नहीं होते हैं।
अप्रेंटिसशिप का अनुबंध
ऐसे मामले भी होते हैं, जहां एक नाबालिग प्रशिक्षण या निर्देश प्राप्त करता है जिसके चलते उसे बाद में अपने जीवन में लाभ मिलता है। इंडियन अपरेंटिस एक्ट 1850 के तहत अभिभावक द्वारा नाबालिग की ओर से दर्ज किए गए अपरेंटिस का एक अनुबंध, नाबालिग पर बाध्यकारी होता है। ये अनुबंध सेवाओं के अनुबंधों की प्रकृति में होते हैं। हालांकि अधिनियम के अनुसार ऐसे अनुबंध को वैध ठहराने के लिए यह आवश्यक है कि इस प्रकार के अनुबंध, नाबालिग की ओर से एक अभिभावक द्वारा किए गए हों। हालांकि यह साफ़ है कि नाबालिग द्वारा सेवाओं के लिए किया गया अनुबंध शून्य होता है।