ग्राहकों की सुरक्षा के उद्देश्य से Consumer Protection Act पार्लियामेंट द्वारा बनाया गया और उसे सारे भारत पर लागू किया गया। किसी भी बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि वहां उसके ग्राहकों के भी अधिकार सुनिश्चित होना चाहिए तथा एक ग्राहक के पास यह अधिकार होना चाहिए कि यदि वह कोई भी उत्पाद या सेवा को खरीद रहा है आश्वस्त होना चाहिए कि उसके सभी अधिकार सुरक्षित हैं तथा उसके साथ किसी भी प्रकार की ठगी नहीं की जाएगी।
कुछ आलोचको ने इस अधिनियम को व्यापारी के विरुद्ध बताया परंतु यदि कोई व्यापारी ईमानदारी पूर्वक अपना उत्पाद बेचता है या अपनी सेवाएं बेचता है उस व्यापारी पर यह अधिनियम कोई कठोरता नहीं करता, इस अधिनियम की कठोरता तो उस व्यापारी या उसके प्रति लागू होती है जिसने छल के माध्यम से अपनी सेवा को दिया है, छल के माध्यम से बेचा है तथा अपने कार्य में ईमानदारी का आचरण नहीं रखा है।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 (1986 का 68) उपभोक्ताओं के हितों से बेहतर संरक्षण के लिए और उस प्रयोजन के लिए उपभोक्ता विवादों के समाधान के लिए उपभोक्ता परिषदों और अन्य प्राधिकरणों की स्थापना का उपबंध करने के लिए अधिनियमित किया गया था।
हालांकि उक्त अधिनियम के अधीन उपभोक्ता विवाद प्रतितोष अभिकरणों के कार्यकरण ने काफी हद तक इस प्रयोजन को पूरा किया है, किन्तु मामलों का निपटारा विभिन्न व्यथाओं के कारण शीघ्रतापूर्वक नहीं हो पाया है। उक्त अधिनियम के विभिन्न उपबंधों को प्रशासित करते हुए कई कमियां प्रकाश में आयी हैं।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को वर्ष 1986 में अधिनियमित किए जाने से लेकर माल और सेवाओं के लिए उपभोक्ता बाजारों में भारी परिवर्तन आया है। आधुनिक बाजारों में माल और सेवाओं का अम्बार लग गया है। वैश्विक प्रदाय श्रृंखलाओं के आविर्भाव, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में वृद्धि और ई-वाणिज्यिक के तीव्र विकास के कारण माल और सेवाओं के परिदान की नई प्रणालियां विकसित हुई हैं।
उपभोक्ताओं के लिए नए विकल्प और अवसर प्राप्त हुए हैं, इसके साथ-साथ इसके कारण उपभोक्ता नए प्रकार के अनुचित व्यापार और अनैतिक कारबार ब्यौराहारों के प्रति भेद्य हो गए हैं। भ्रामक विज्ञापन, टेलीमार्केटिंग, बहुस्तरीय विपणन, सीधे विक्रय और ई-वाणिज्य ने उपभोक्ता संरक्षण के लिए नई चुनौतियां उत्पन्न की हैं और उपभोक्ताओं को क्षति से बचाने हेतु समुचित और शीघ्र कार्यपालक हस्तक्षेप अपेक्षित होगा।
अतः उपभोक्ताओं को बहुत सी और निरंतर उभरती भेद्यताओं से संरक्षित करने के लिए उस अधिनियम को संशोधित करने की आवश्यकता थी। पूर्वोक्त दृष्टिकोण से अधिनियम को निरमित करने और पुनः अधिनियमित करने का प्रस्ताव रखा गया।