चुनाव आयोग का गठन और उसकी निष्पक्षता

Update: 2025-08-23 11:34 GMT

चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए एक स्वतंत्र संस्था है जिसे चुनाव आयोग कहा गया है। यह आयोग न केवल लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और अन्य चुनावों का संचालन करता है, बल्कि मतदाता सूचियों की तैयारी, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन और चुनावी नियमों का पालन सुनिश्चित करता है। चुनाव आयोग का गठन भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत हुआ है, जो आयोग को चुनावी प्रक्रिया की देखरेख, निर्देशन और नियंत्रण की शक्तियां प्रदान करता है।

चुनाव आयोग का गठन संविधान के भाग XV के अंतर्गत आता है, जिसमें अनुच्छेद 324 से 329A तक है। अनुच्छेद 324(1) स्पष्ट रूप से कहता है कि संसद, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों की तैयारी, संचालन और नियंत्रण का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण चुनाव आयोग के पास होगा। यह अनुच्छेद आयोग को एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय का दर्जा देता है, जो कार्यपालिका या विधायिका के हस्तक्षेप से मुक्त है।

आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को हुई थी, जब संविधान लागू हुआ। अनुच्छेद 324(2) के अनुसार, आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त शामिल होते हैं, जिनकी संख्या राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाती है। मौजूदा समय में आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्त होते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, और उनकी स्थिति सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह होती है, जिसमें उन्हें पद से हटाने के लिए संसद द्वारा महाभियोग की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। महाभियोग का उल्लेख अनुच्छेद 324(5)) में दिया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 324 के अलावा, अनुच्छेद 325 और 326 चुनावी प्रक्रिया की समानता और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को सुनिश्चित करते हैं। अनुच्छेद 325 कहता है कि कोई व्यक्ति जाति, धर्म, लिंग या निवास के आधार पर मतदाता सूची से वंचित नहीं किया जा सकता, जबकि अनुच्छेद 326 के अनुसार 18 वर्ष से ऊपर के सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार देता है। अनुच्छेद 327 और 328 संसद और राज्य विधानसभाओं को चुनाव संबंधी कानून बनाने की शक्ति देते हैं, लेकिन ये कानून आयोग की शक्तियों को प्रभावित नहीं कर सकते। अनुच्छेद 329 चुनावी याचिकाओं पर न्यायालयों के हस्तक्षेप को सीमित करता है, जो चुनाव समाप्त होने के बाद ही विचारणीय होती हैं।

यह प्रावधान चुनाव आयोग को मजबूत आधार प्रदान करते हैं, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि चुनाव प्रक्रिया लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप हो।

चुनाव आयोग के गठन और कार्यों को और मजबूत बनाने में Representation of the People Act, 1950 की महत्वपूर्ण भूमिका है। जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1950 मुख्य रूप से लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के आवंटन और परिसीमन से संबंधित है। इस अधिनियम की धारा 3 से 11 तक निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या, प्रकार और परिसीमन की प्रक्रिया निर्धारित करती है। उदाहरण के लिए, धारा 4 लोकसभा के लिए सीटों का आवंटन राज्यवार करती है, जबकि धारा 9 परिसीमन आयोग की स्थापना का प्रावधान करती है।

यह अधिनियम अनुच्छेद 81 और 82 के अनुरूप है, जो संसद को निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्गठन की शक्ति देता है।

इस एक्ट की धारा 14 से 25 तक मतदाता सूचियों की तैयारी, संशोधन और प्रकाशन का प्रावधान है, जो अनुच्छेद 324 के तहत आयोग की जिम्मेदारी है। धारा 33 से 48 नामांकन, जांच और वापसी की प्रक्रिया निर्धारित करती है, जबकि धारा 58 से 67 चुनावी अपराधों जैसे भ्रष्टाचार, अनुचित प्रभाव और अवैध भुगतान को परिभाषित करती है। धारा 123 भ्रष्ट आचरणों को सूचीबद्ध करती है, जैसे मतदाताओं को रिश्वत देना या धार्मिक आधार पर अपील करना। ये अधिनियम चुनाव आयोग को कानूनी ढांचा प्रदान करते हैं, जिससे आयोग चुनावी अनियमितताओं पर कार्रवाई कर सकता है।

चुनाव आयोग के गठन और शक्तियों पर कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं, जो आयोग की स्वतंत्रता को मजबूत करते हैं। सुप्रीम कोर्ट का एक ऐतिहासिक निर्णय मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त (1978) है, जिसमें कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 324 आयोग को व्यापक शक्तियां देता है, जो चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।

जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा कि आयोग की शक्तियां "प्लेनरी" हैं, अर्थात पूर्ण और असीमित, लेकिन ये न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं। इस मामले में, पंजाब चुनाव में दोबारा मतदान के आदेश को वैध ठहराया गया, क्योंकि यह चुनाव की निष्पक्षता के लिए जरूरी था।

एक अन्य महत्वपूर्ण निर्णय टी.एन. शेषन बनाम भारत संघ (1995) है, जिसमें मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने आयोग की बहुल सदस्यीय संरचना पर सवाल उठाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मुख्य चुनाव आयुक्त अन्य आयुक्तों से श्रेष्ठ नहीं है, और आयोग बहुमत से निर्णय लेता है। हालांकि, इसने मुख्य चुनाव आयुक्त की स्थिति को मजबूत किया, और कहा कि अनुच्छेद 324(5) के तहत उन्हें हटाना कठिन है। इस निर्णय के बाद, 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (सेवा शर्तें) अधिनियम पारित हुआ, जो आयुक्तों की नियुक्ति और सेवा शर्तों को नियंत्रित करता है।

सुप्रीम कोर्ट के एक मामले अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ (2023) में, कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाया। कोर्ट ने कहा कि वर्तमान प्रक्रिया, जिसमें राष्ट्रपति कार्यपालिका की सलाह पर नियुक्ति करता है, पारदर्शिता की कमी दर्शाती है। कोर्ट ने सुझाव दिया कि नियुक्ति समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और चीफ जस्टिस शामिल हों, जब तक संसद नया कानून न बनाए। यह फैसला अनुच्छेद 324 की भावना को मजबूत करता है, जो आयोग की स्वतंत्रता पर जोर देता है।

एक अन्य केस, एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार (2013) में कोर्ट ने चुनावी वादों पर चर्चा की और कहा कि जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 की धारा 123 के तहत मुफ्त उपहार वितरण भ्रष्ट आचरण हो सकता है, लेकिन आयोग को इस पर निगरानी रखनी चाहिए।

क़ानून चुनाव आयोग को एक मजबूत, स्वतंत्र निकाय के रूप में देखता है, जो लोकतंत्र की रक्षा करता है। हालांकि, आयोग को चुनौतियां भी मिलती हैं, जैसे मतदाता सूची में त्रुटियां, ईवीएम की विश्वसनीयता और राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप। जनप्रतिनिधि अधिनियम में संशोधन, जैसे 1989 का संशोधन जो मतदाता पहचान पत्र अनिवार्य करता है जो इन चुनौतियों का समाधान करते हैं।

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