संविदा अधिनियम 1872 की धारा 3 प्रस्थापनाओं की संसूचना, प्रतिग्रहण कि संसूचना और प्रतिसंहरण के संबंध में उल्लेख कर रही है। इस धारा का सर्वाधिक महत्व प्रस्ताव की संसूचना को लेकर है। किसी भी करार के होने के लिए पहले एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव किया जाता है दूसरे पक्षकार द्वारा उसकी स्वीकृति की जाती है फिर करार अस्तित्व में आता है। प्रस्ताव होना ही मात्र महत्वपूर्ण नहीं है और स्वीकृति होना ही मात्र महत्वपूर्ण नहीं है अपितु प्रस्तावक को स्वीकृति की सूचना होना भी महत्वपूर्ण है।
यदि धारा 3 के अर्थों को समझा जाए इसके अनुसार मन की दशा जिसकी सूचना नहीं दी गई है मनुष्य एवं मनुष्य के मध्य संविदात्मक संव्यवहारों हेतु पर्याप्त नहीं माना जाता है। किसी भी कार्य या लोप के द्वारा प्रस्ताव और प्रतिग्रहण की संसूचना होना चाहिए।
धारा 3 संविदा निर्माण की प्रक्रिया में संचार के महत्व को रेखांकित करती है। यह स्पष्ट करती है कि एक प्रस्ताव, उसकी स्वीकृति, या उनके निरसन का संचार तब माना जाता है जब पक्षकार (प्रस्तावक, स्वीकर्ता, या निरसन करने वाला) कोई ऐसा कार्य करता है या लोप करता है, जिसका उद्देश्य उस संचार को दूसरे पक्ष तक पहुंचाना हो, या जिसका प्रभाव संचार को पूरा करना हो। यह संचार मौखिक, लिखित, या आचरण के माध्यम से हो सकता है।
संविदा के संबंध में स्वीकृति शब्दों द्वारा बोलकर अथवा लिखित रूप में होती है। प्रस्ताव की स्वीकृति की सूचना दिया जाना अत्यंत आवश्यक होता है। यदि प्रतिग्रहिता द्वारा प्रस्ताव के स्वीकृति की सूचना नहीं की जाती है ऐसी स्थिति में विधिमान्य संविदा का सृजन नहीं होता है और संविदा पूर्ण नहीं समझी जाती है। विधिमान्य संविदा के लिए आवश्यक है कि प्रस्थापना के प्रतिग्रहण की सूचना प्रस्तावक को दी जानी चाहिए।
अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत जब कभी किसी पक्षकार द्वारा प्रस्ताव किया जाता है तो इस प्रस्ताव की सूचना जिस व्यक्ति से प्रस्ताव किया गया है उस व्यक्ति को प्राप्त होना चाहिए तब ही विद्यमान संविदा का सृजन होता है। आज आधुनिक समय में टेलीफोन के माध्यम से भी संविदा होती है।
टेलीफोन पर संविदा के दोनों पक्षकार आमने सामने होकर संविदा के संबंध में वार्ता करते हैं। ऐसी स्थिति में जब पर प्रस्थापक अपनी प्रस्थापना या प्रस्ताव से दूसरे पक्षकार को अवगत कराता है तो उक्त दूसरा पक्षकार यदि उस प्रस्थापना को प्रतिग्रहीत करता है तो वह प्रतिग्रहण की सूचना उस प्रस्थापक को दे देता है और दोनों के मध्य विधि मान संविदा सृजित हो जाती है।
धारा 3 में स्पष्ट है कि प्रस्थापनाओं की संसूचनाओं, प्रस्थापनाओं का प्रतिग्रहण, प्रस्थापनाओं तथा प्रतिग्रहणओं का प्रतिसंहरण क्रमश प्रस्थापना करने वाले, प्रतिग्रहण करने वाले अथवा प्रतिसंहरण करने वाले पक्षकार के ऐसे कार्य या लोप से समझा जाता है जिसके द्वारा वह प्रस्थापना प्रतिगृहीत या प्रतिसंहरण को सूचित करने का आशय रखता है अथवा जो उसे संसूचित करने का प्रभाव रखता है।