सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 42: संहिता में पुनरीक्षण से संबंधित प्रावधान

Update: 2022-05-19 05:14 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 115 पुनरीक्षण से संबंधित प्रावधान उपलब्ध करती है, इस संहिता में अपील के साथ ही उच्चतर न्यायालय के पास पुनर्विलोकन, पुनरीक्षण, और निर्देश के भी अधिकार है। इस आलेख में पुनरीक्षण से संबंधित प्रावधानों पर प्रकाश डाला जा रहा है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल रूप है-

धारा 115. पुनरीक्षण -

(1) उच्च न्यायालय किसी भी ऐसे मामले के अभिलेख को मँगवा सकेगा जिसका ऐसे उच्च न्यायालय के अधीनस्य किसी न्यायालय ने विनिश्चय किया है और जिसकी कोई भी अपील नहीं होती है और यदि यह प्रतीत होता है कि

(क) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो उसमें विधि द्वारा निहित नहीं है, अथवा

(ख) ऐसा अधीनस्थ न्यायालय ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा है जो इस प्रकार निहित है, अथवा

(ग) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य किया है, तो उच्च न्यायालय उस मामले में ऐसा आदेश कर सकेगा जो ठीक समझे:

2 [ परन्तु उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में पारित किये गये किसी आदेश में या कोई विवाद्यक विनिश्चित करने वाले किसी आदेश में फेरफार नहीं करेगा या उसे नहीं उलटेगा सिवाय वहाँ के जहाँ ऐसा आदेश यदि वह पुनरीक्षण के लिये आवेदन करने वाले पक्षकार के में किया गया होता तो वाद अन्य कार्यवाही का अन्तिम रूप से निपटारा कर देता।]

(2) उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन किसी ऐसी डिक्री या आदेश में, जिसके विरुद्ध या तो उच्च न्यायालय में या उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में अपील की गयी है, फेरफार नहीं करेगा या उसे नहीं उलटेगा।

3 [ (3) एक न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण किसी वाद या अन्य कार्यवाही के स्थगन के रूप में लागू नहीं होगा सिवाय वहाँ के जहाँ ऐसे वाद या अन्य कार्यवाही को उच्च न्यायालय द्वारा स्थगित कर दिया गया।

स्पष्टीकरण- इस धारा में ऐसे मामले के अभिलेख को मँगवा सकेगा जिसका ऐसे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय ने विनिश्चित किया है, अभिव्यक्ति के अन्तर्गत किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में किया गया कोई आदेश कोई विवाद्यक विनिश्चित करने वाला कोई आदेश भी हो।

धारा 115 का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा की गयी अधिकारिता सम्बन्धी त्रुटियों का निवारण करना है, उन परिस्थितियों में जहाँ ऐसे निर्णयों के विरुद्ध अपील की व्यवस्था नहीं है। पुनरीक्षण का अधिकार उच्च न्यायालय में होता है और जब उच्च न्यायालय धारा 115 के अधीन अपने अधिकार का उपयोग करता है तो उसे पुनरीक्षण की अधिकारिता (revisional jurisdiction) कहते हैं।

पुनरीक्षण की अधिकारिता प्रभाव और सार (Substance) की दृष्टि से अपीलीय अधिकारिता है मोटर दुर्घटना दावा ट्रिब्यूनल (Motor accident claims tribunal) एक दीवानी न्यायालय है जो उच्च न्यायालय के अधीन है। ऐसे ट्रिब्यूनल के आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण का आवेदन किया जा सकता है।

जहाँ वाद पत्र में संशोधन अधीनस्थ न्यायालय ने मुस्य (sound) विवेक के आधार पर दिया है वहीं उच्च न्यायालय पुनरीक्षण में हल्के-फुल्के ढंग से (lightly) हस्तक्षेप नहीं कर सकता। ऐसा निर्णय उच्चतम न्यायालय ने हरिदास येलदास बनाम गोदरेज रुस्तम नामक वाद में धारित किया।

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि इस धारा का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता के प्रयोग में मनमाने ढंग से चंचल या अस्थिर मन से अविधिमान्य तरीके से, या अनियमित तरीके से कार्य करने से रोकना है। दूसरे शब्दों में, इस धारा का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता की सीमाओं के भीतर रखना है और यह देखना उच्च न्यायालय का कार्य है। पुनरीक्षण की शीघ्र धारा 115 उच्च न्यायालय को प्रदान करती है।

पुनरीक्षण के आवेदन को वाद नहीं माना जा सकता पुनरीक्षण की अधिकारिता का प्रयोग केवल क्षेत्राधिकार सम्बन्धी प्रश्नों तक ही सीमित है। पुनरीक्षण की अधिकारिता के अन्तर्गत उच्च न्यायालय साक्ष्य का पुनः परीक्षण और पुनर्मूल्यांकन (re-examine and re-assess) नहीं कर सकता है किन्तु तथ्यों के विनिश्चय में हस्तक्षेप अनुज्ञेय है वहाँ जहाँ नये साक्ष्य को अभिलेख पर प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की गयी थी जहाँ एक दस्तावेज को, मुकदमें में बहस समाप्त होने के पश्चात स्वीकार किया गया, वहाँ ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण पोषणीय नहीं है।

विवाद को विवाचन के लिये निर्दिष्ट न करना- वहाँ जहाँ विवाचन करार को विद्यमानता को लेकर पक्षकारों में कोई विवाद नहीं है-उच्चतम न्यायालय के अनुसार न्याय की विफलता है तथा उस पक्षकार को, जो विवाद को विवाचन के लिये निर्दिष्ट करने का आवेदन करता है, अपूर्णीय क्षति कारित करता है। अतः ऐसा आदेश जो विवाद को विवाचन को सौंपने या निर्दिष्ट करने से अस्वीकार करता है, पुनरीक्षण योग्य है। दूसरे शब्दों में ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण पोषणीय है।

उच्च न्यायालय ही नहीं कोई पदाधिकारी जिसे संविधिक पुनरीक्षण की शक्ति प्राप्त है उसकी ऐसी शक्ति कितनी ही विस्तृत क्यों न हो वह अपीलीय न्यायालय की भाँति तथ्य सम्बन्धी प्रश्नों पर निष्कर्ष अभिलिखित करने के लिये अभिलेख पर के साक्ष्य का पुनर्परीक्षण और पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकता।

पर ध्यान रहे उच्च न्यायालय का पुनरीक्षण का अधिकार इसका विवेकाधीन (discretionary) अधिकार है जिसका उपयोग वह कर भी सकता है और नहीं कर सकता है। परन्तु जहाँ पुनरीक्षण अधिनियम द्वारा विशिष्ट रूप से प्रतिबन्धित है, वहाँ पुनरीक्षण नहीं हो सकेगा। एक बार जब पुनरीक्षण का आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है तो उसका निस्तारण गुण-दोष के आधार पर होना चाहिये।

पुनरीक्षण का आवेदन भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत दी गयी याचिका से अलग और भिन्न है। धारा 115 के अन्तर्गत दिये गये आवेदन को अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत याचिका में न्यायालय को इच्छा पर परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

परन्तु उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार, जहाँ पुनरीक्षण आदेश 30 नियम (1) और (2) के अन्तर्गत व्यादेश के विरुद्ध मांगा गया है, वहां उच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से इसे अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत याचिका में परिवर्तित कर सकते हैं। क्योंकि मांगा गया पुनरीक्षण अनुज्ञेय नहीं है। दूसरे शब्दों में जो पुनरीक्षण आदेश 39 नियम (1) और (2) के अन्तर्गत आदेश के विरुद्ध मांगा गया है वह समर्थनीय नहीं है।

ध्यान रहे धारा 115 में जो संशोधन 1999 में किया गया उसके अनुसार उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में पारित किये गये किसी आदेश में या कोई विवादक विनिश्चित करने वाले किसी आदेश में फेरफार नहीं करेगा या उसे नहीं उलटेगा सिवाय वहाँ के जहाँ ऐसा आदेश यदि वह पुनरीक्षण के लिये आवेदन करने वाले पक्षकार के पक्ष में किया गया होता तो वह बाद या अन्य कार्यवाही का अन्तिम रूप से निपटारा कर देता।"

उपरोक्त प्रावधानों का निर्वचन करते हुये उच्चतम न्यायालय ने सूर्यदेव राय बनाम रामचन्दर राय में अभिनिर्धारित किया कि संहिता की धारा 115 में संशोधन उच्च न्यायालय की अधिकारिता को जो उसे संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 में प्राप्त है, किसी भी रूप में न तो प्रभावित करता है और न ही कर सकता है।

अपने निर्णय को और स्पष्ट करते हुये न्यायालय ने कहा कि वे अन्तर्वती आदेश जो उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पारित किये गये हैं और जिनके विरुद्ध पुनरीक्षण के उपाय को सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम (1999 का 46) द्वारा अपवर्जित कर दिया गया है फिर भी चुनौती योग्य है और अब भी उच्च न्यायालय के उत्प्रेषण और पर्यवेक्षण अधिकारिता के अधीन है।

पर्यवेक्षण की अधिकारिता अधिक विस्तृत और अपीलीय पुनरीक्षण या सुधारात्मक अधिकारिता की भाँति है। यह भी ध्यान रहे कि धारा 115 (1) के परन्तुक में प्रयुक्त पद "अन्य कार्यवाही" से तात्पर्य वाद में कार्यवाही नहीं, अपितु वाद से इतर कार्यवाही है।

रेंट कन्ट्रोल के मामले में हाई कोर्ट अपने अपीलीय शक्ति का उपयोग गवाही के पुर्नमूल्यांकन के लिये नहीं कर सकता।

पुनरीक्षण के लिये आवश्यक शर्तें - एक उच्च न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की अधिकारिता का उपयोग करने के लिये निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है :-

(1) अधीनस्थ न्यायालय द्वारा मामले का विनिश्चय;

(2) मामले का विनिश्चय करने वाला न्यायालय, उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय होना आवश्यक है;

(3) विनिश्चय या आदेश ऐसा होना चाहिये जिसके विरुद्ध अपील नहीं होती; और

(4) अधीनस्थ न्यायालय ने

(अ) एक ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया जो उसमें विधि द्वारा निहित नहीं है, या

(ब) अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा है, या

(स) अपनी अधिकारिता के प्रयोग में अवैध रूप से तात्विक अनियमितता irregularity) से कार्य किया है।

(1) मामले का विनिश्चय-

पुनरीक्षण के लिये प्रथम आवश्यक शर्त है कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा मामले का विनिश्चय होना चाहिये। यहाँ प्रयुक्त मामला शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थों में किया गया है और उसमें वाद के अतिरिक्त दीवानी कार्यवाहियाँ भी सम्मिलित हैं। इसके अन्तर्गत न केवल सम्पूर्ण दीवानी कार्यवाही बल्कि दीवानी कार्यवाही का एक अंश भी आता है और इस आधार पर उच्चतम न्यायालय ने मेजर खन्ना बनाम ब्रिगेडियर ढिल्लन' नामक वाद में अभिनिर्धारित किया कि धारा 115 अन्तवंत आदेश (interlocutory order) पर भी लागू होती है।

उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय की पुष्टि पुनः बलदेवदास बनाम फिल्मिस्तान डिस्ट्रीब्यूटर्स नामक वाद में किया उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि 'मामला' शब्द का अभिप्राय सीमित नहीं है, अपितु उससे उस विवाद के पूरे विषय का बोध होता है। यह शब्द व्यापक अर्थ वाला है जिसमें सिविल प्रक्रिया संहिता सम्मिलित है। यह धारा 115 में दिये गये किसी उपबन्ध से सीमित नहीं है।

धारा 115 के स्पष्टीकरण के अनुसार मामले का विनिश्चय, पद के अन्तर्गत किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में किया गया कोई भी आदेश या विवाद्यक विनिश्चित करने वाला कोई भी आदेश सम्मिलित है। परन्तु इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हेमेन्द्र चौधरी बनाम मेसर्स पंजाब नेशनल बैंक नामक वाद में निर्णय के अनुसार जहाँ वाद संस्थित किया गया है, और उसमें बहस (argument) की कार्यवाही हो चुकी है और उसके बाद अधीनस्थ न्यायालय के आदेश से दस्तावेज दाखिल किये जाते हैं वहाँ अधीनस्थ न्यायालय का ऐसा आदेश धारा 115 के अन्तर्गत मामले का विनिश्चय नहीं माना जायेगा और ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण चलाने योग्य नहीं है।

जहाँ एक कम्पनी के पुनर्वास के लिये एक योजना तैयार की गयी, आदेश उस रीति को प्रतिपादित करता है जिसके अनुसार उस योजना को क्रियान्वित किया जाये, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने अशोक पेपर मिल्स कामगर यूनियन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया' में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसे आदेश को अन्तर्वती आदेश नहीं माना जा सकता।

जहाँ शपथ-पत्र देने की प्रतिपरीक्षा (cross examination) के लिये आवेदन दिया गया है और उसे अस्वीकार कर दिया गया है, ऐसा निर्णय मामले का विनिश्चय नहीं कहलायेगा। अतः ऐसे निर्णय का पुनरीक्षण नहीं हो सकता। किन्तु आदेश 13 नियम 2 के अधीन साक्ष्य प्रस्तुत करने हेतु दिये गये आवेदन का खारिज किया जाना न्यायालय द्वारा मामले का विनिश्चय में आता है।

(2) अधीनस्थ न्यायालय-

एक उच्च न्यायालय पुनरीक्षण के अधिकार का प्रयोग तब तक नहीं कर सकता है जब तक कि वह न्यायालय (जिसके विनिश्चय के विरुद्ध पुनरीक्षण माँगा जा रहा है) उस उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय न हो। न्यायालय से तात्पर्य दीवानी अधिकारिता (Civil Jurisdiction) रखने वाले न्यायालय से है, जिसके अन्तर्गत प्रशासनिक हैसियत से कार्य करने वाला व्यक्ति नहीं आता, उदाहरण के लिये मजदूरी भुगतान अधिनियम के अन्तर्गत नियुक्त कोई अधिकार एक न्यायालय नहीं होता है। एक न्यायालय उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय होगा अगर ऐसा न्यायालय अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है।

ध्यान रहे मोटर वेहिकिल्स अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत गठित दावों सम्बन्धी ट्रिब्यूनल एक दीवानी न्यायालय नहीं है। अतः वह उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण सम्बन्धी अधिकारिता के अन्तर्गत नहीं आता है।

कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक पूर्णपीठ के निर्णय 10 के अनुसार मोटर यान ऐक्ट 1988 के अन्तर्गत गठित मोटर एक्सीडेन्ट कलेम्स ट्रिब्यूनल, कर्नाटक प्राइवेट एजूकेशन्स इन्स्टीट्यूसन्स (डिसिपलिन एण्ड कण्ट्रोल) एक्ट, 1975 और कर्नाटक एजूकेशन एक्ट, 1995 के अन्तर्गत गठित एजूकेशनल अप्पीलेट ट्रिब्यूनल, रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल एक्ट, 1989 के अन्तर्गत गठित रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल धारा 115 के अर्थों में "उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय" नहीं है। अतः इन ट्रिब्यूनल्स या अधिकरणों द्वारा पारित आदेशों का पुनरीक्षण उच्च न्यायालय द्वारा नहीं हो सकता। हालांकि सभी न्यायालय अधिकरण हैं, परन्तु सभी अधिकरण नहीं हैं।

(3) विनिश्चय जिसके विरुद्ध अपील नहीं होती-

अधीनस्थ न्यायालय का विनिश्चय ऐसा होना चाहिये जो अपील योग्य नहीं है। दूसरे शब्दों में जहाँ विनिश्चय के विरुद्ध उच्च न्यायालय को अपील नही हो सकती। 'अपील' शब्द के अन्तर्गत प्रथम और द्वितीय दोनों अपीलें सम्मिलित हैं। अर्थात् जहाँ उच्च न्यायालय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी प्रकार अपील नहीं होती वहाँ पुनरीक्षण की माँग की जा सकती है, किन्तु जहाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी प्रकार की उच्च न्यायालय को अपील हो सकती है, पुनरीक्षण नहीं किया जा सकता।

जहाँ अपील का फोरम उपलब्ध है वहाँ यदि उसका लाभ नहीं उठाया गया तो पुनरीक्षण पोषणीय नहीं है। दूसरे शब्दों में पुनरीक्षण नहीं कराया जा सकता है धारा 115 के अन्तर्गत न्यायालय स्वप्रेरणा से अपनी अधिकारिता का प्रयोग कर सकता है। लेकिन ऐसे अधिकार का प्रयोग एक ऐसे मामले में होना चाहिये जिस पर अधीनस्थ न्यायालय का विनिश्चय हुआ है और न्यायालय का ऐसा विनिश्चय धारा 115 के उपधारा (क), (ख) एवं (ग) के प्रावधानों के अतिलंघन में हुआ है। जब तक कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा विनिश्चय किया हुआ मामला न हो तब तक उच्च न्यायालय को अपने अधिकार का प्रयोग स्वप्रेरणा से नहीं करना चाहिये।

(4) अधिकारिता सम्बन्धी त्रुटि-

चौथी और अन्तिम शर्त यह है कि अधीनस्य न्यायालय ने अधिकारिता सम्बन्धी त्रुटि या गलती की हो। वह निम्नलिखित रूप में हो सकती है :-

(अ) या तो अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो उसमें विधि द्वारा निहित नहीं है, या

(ब) ऐसा अधीनस्थ न्यायालय ऐसो अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा है, जो इस प्रकार निहित है, अथवा

(स) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य किया है।

कोई भी न्यायालय अधिकारिता वाला न्यायालय कब कहा जाता है या किसी भी न्यायालय को अधिकारिता कैसे प्राप्त होती है। अधिकारिता से अभिप्राय' शीर्षक जहाँ किसी भी न्यायालय में तीनों प्रकार की अधिकारितायें- स्थानीय अधिकारिता, धन सम्बन्धी अधिकारिता या विषय-वस्तु सम्बन्धी अधिकारिता में से सभी का या किसी एक का भी अभाव है वहाँ कहा जायेगा कि अमुक न्यायालय में अधिकारिता विधि द्वारा निहित नहीं हैं।

इसी प्रकार जहाँ किसी न्यायालय को निर्णय करने या डिक्री का निष्पादन करने या निर्णय का पुनर्विलोकन करने की अधिकारिता है, परन्तु ऐसा न्यायालय अपने उस अधिकारिता का प्रयोग करने से अस्वीकार करता है, वहाँ ऐसा माना जायेगा कि वह न्यायालय अपनी अधिकारिता, जो उसमें विधि द्वारा निहित है, का प्रयोग करने में असफल रहा है। पद अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा है" का तात्पर्य यह है कि न्यायालय ने आवेदन पर गुणागुण के आधार पर तकनीकी आधार के नाते विचार करना अस्वीकार कर दिया है।

तीसरा मामला जहाँ पुनरीक्षण किया जा सकता है, वह है जहाँ अधीनस्थ न्यायालय ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग किया है परन्तु ऐसा करने में अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य किया है। उदाहरणस्वरूप जहाँ न्यायालय ने एक ऐसे वचन पत्र के आधार पर डिक्री पारित किया है जो अस्टाम्पिट (unstamped) है, या अस्टाम्पित हुण्डी के आधार पर डिक्री पारित किया है। यह अवैध और अनियमित माना जायेगा या किसी व्यक्ति को बिना सुने ही उसके विरुद्ध आदेश पारित किया है, उसे भी अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य करना माना जायेगा।

इसी प्रकार जहाँ अधीनस्थ न्यायालय ने बिना साक्ष्य पर विचार किये निर्णय दिया है, जहाँ साक्ष्य ग्राह्य है। और बड़े ही महत्वपूर्ण प्रकृति का है जिसमें न्यायालय का अन्तिम आदेश प्रभावित करने की क्षमता है, वहाँ उसको अग्राह्य करार देकर छोड़ देना- या अपने निर्णय को पुष्टि में तर्क का कारण नहीं दिये हैं, माना जायेगा कि उसने अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य किया है :

परन्तु यह ध्यान रहे जहाँ अधीनस्थ न्यायालय को मामले में अधिकारिता प्राप्त है, और उसने ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया है, वहाँ अगर ऐसे न्यायालय का निर्णय (तथ्यों पर या विधि पर) गलत है, तो उस आधार पर निर्णय के विरुद्ध पुनरीक्षण की माँग नहीं की जा सकती। ऐसे गलत निर्णय को अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य करना नहीं माना जायेगा। अधिकारिता के अन्तर्गत त्रुटि और अधिकारिता की त्रुटि में अन्तर किया जाना चाहिये। अधिकारिता सम्बन्धी त्रुटि के लिये पुनरीक्षण का आवेदन दिया जा सकता है।

पुनरीक्षण के आवेदन में तथ्य सम्बन्धी प्रश्न नहीं उठाये जा सकते किन्तु पुनरीक्षण को अधिकारिता के अन्तर्गत पश्चात्वर्ती तथ्यों एवं घटनाओं को ध्यान में रखकर उस पर विचार किया जा सकता है।

लघुवाद न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध पुनरीक्षण:

तीन हजार रुपये मालियत के वाद में निर्णय के विरुद्ध पुनरीक्षण का आवेदन जिला न्यायाधीश के न्यायालय में दिया जायेगा। प्रान्तीय लघुवाद न्यायालय अधिनियम की धारा 25 की अधिकारिता का विस्तार क्षेत्र उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण की अधिकारिता (धारा 115 के अन्तर्गत) से विस्तृत है।

जहाँ अपीलीय न्यायालय आदेश विवाचन और सुलह अधिनियम की धारा 37 (2) के अन्तर्गत पारित किया गया है, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने निरमा लि० बनाम लुरगी लेन्जेस इनरजी टेकनीक जीएमबीएच में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसा आदेश सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 के अन्तर्गत पुनरीक्षण योग्य है। मात्र इस नाते कि उपरोक्त अधिनियम की धारा 37 (2) के अन्तर्गत द्वितीय अपील बाधित है अर्थात् प्रतिबन्धित है, पुनरीक्षण का उपाय समाप्त नहीं हो जाता।

परिसीमा (Limitation)

पुनरीक्षण के आवेदन की परिसीमा 90 दिन है। अर्थात् पुनरीक्षण के लिये आवेदन, जिस आदेश या डिक्री के विरुद्ध पुनरीक्षण की माँग की जा रही है, उसके पारित होने की तिथि से 90 दिनों के भीतर दिया जाना चाहिये। 10 पुनरीक्षण का आवेदन-धारा 115 के अन्तर्गत पुनरीक्षण के आवेदन को संविधान के अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत याचिका (petition) में नहीं बदला जा सकता।

जहां धारा 115 के अन्तर्गत पुनरीक्षण का उपाय अभिव्यक्त रूप से वर्जित है वहां संविधान के अनुच्छेद 227 के अधीन याचिका पोषणीय है, अनुच्छेद 226 के अधीन नहीं।

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