सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 41: पुनर्विलोकन से संबंधित प्रावधान

Update: 2022-05-18 13:30 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 114 पुनर्विलोकन से संबंधित प्रावधान उपलब्ध करती है। संहिता में निर्देश के बाद पुनर्विलोकन से संबंधित प्रावधान है। पुनर्विलोकन उस ही न्यायालय द्वारा किया जाने वाला रिवीव है जिस न्यायालय द्वारा डिक्री दी गई है। इस आलेख में पुनर्विलोकन से संबंधित प्रावधानों पर टिप्पणी की जा रही है।

यह संहिता में दी गई धारा का मूल रूप है

धारा 114 पुनर्विलोकन

पूर्वोक्त के अधीन रहते हुये कोई व्यक्ति, जो (क) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी इस संहिता द्वारा अपील अनुज्ञात है, किन्तु जिसकी कोई अपील नहीं की गयी है-

(ख) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी इस संहिता द्वारा अपील अनुज्ञात नहीं है, अथवा

(ग) ऐसे विनिश्चय से जो लघुवाद न्यायालय के निर्देश पर किया गया है, अपने को व्यक्ति मानता है, वह डिक्री पारित करने वाले या आदेश करने वाले न्यायालय से निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन कर सकेगा और न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे।

संहिता की धारा 114 में पुनर्विलोकन के सारभूत अधिकार और आदेश 47 में तत्सम्बन्धी प्रक्रिया का उपबन्ध किया गया है। पुनर्विलोकन के अन्तर्गत वही न्यायालय जिसने निर्णय दिया, अपने निर्णय पर पुनर्विचार करता है। इस तरह यह धारा उस सामान्य नियम (आदेश 20, नियम 3) का अपवाद है जो यह प्रावधान करती है कि निर्णय हस्ताक्षरित और सुनाये जाने के पश्चात् न्यायालय धारा 152 में उपबन्धित प्रावधानों के सिवाय उस निर्णय में न तो कोई परिवर्तन करेगी और न कोई परिवर्धन करेगी।

उच्च न्यायालय पुनर्विलोकन की याचिका को इस आधार पर नहीं खारिज कर सकता कि वह पोषणीय नहीं है क्योंकि उसके निर्णय के विरुद्ध अपील के लिये विशेष अनुमति याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की गयी है और वह लम्बित है। विधि का ऐसा सिद्धान्त उच्चतम न्यायालय ने कपूरचन्द बनाम गनेश दत्त नामक वाद में प्रतिपादित किया। और पुनर्विलोकन का आवेदन-पुनर्विलोकन का उपाय विशेष परिस्थितियों में मांगा जाना चाहिये उसके लिये आवेदन दिया जाना चाहिये।

वह व्यक्ति, जो किसी डिक्री या आदेश से-

1 जिसकी अपील अनुज्ञात (allowed) की गयी है, परन्तु जिसकी अपील नहीं की गयी है,

2 जिसकी अपील अनुज्ञात नहीं की गयी है; अथवा

3 लघुवाद न्यायालय द्वारा किये गये निर्देश पर विनिश्चय से।

अपने को व्यक्ति (दुःखी) समझता है, वह पुनर्विलोकन का आवेदन कर सकता है। एक 'व्यथित (दुःखी) व्यक्ति' से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जिसको विधिक क्षति (legal grievance) पहुंची है या जिसके विरुद्ध एक ऐसा निर्णय दिया गया है, जिससे कुछ चीजों से गलत रूप में वंचित किया गया है या कुछ चीजें उसको देने से अस्वीकार कर दिया गया है या गलत रूप से उसके कुछ चीजों के स्वत्व (title) या हक को प्रभावित करता है वह व्यक्ति जो डिक्री या आदेश का पक्षकार नहीं है, वह पुनर्विलोकन के लिये आवेदन नहीं कर सकता क्योंकि वह दुःखी (व्यथित) व्यक्ति को परिभाषा में नहीं आयेगा।

पुनर्विलोकन का आवेदन दिये जाने को एक पूर्व शर्त है, कि वही अनुतोष प्राप्त करने के लिये आवेदन से पहले किसी वरिष्ठ न्यायालय में समावेदन नहीं दिया गया है या वरिष्ठ न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाया गया है।

आधार पुनर्विलोकन का आवेदन उन्हीं आधारों पर दिया जा सकता है जिन्हें धारा 114, आदेश नियम (1) में उपबन्धित किया गया है। वे आधार निम्न हैं और उसमें से किसी एक के आधार पर आवेदन किया जा सकता है।

वे आधार हैं :-

1. किसी नये और महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य का प्रकटीकरण-किसी नये महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य का प्रकटीकरण, पुनर्विलोकन का प्रथम आधार है परन्तु ऐसा विषय या साक्ष्य तमाम सम्यक् तत्परता के पश्चात् भी, जिस समय डिक्री पारित की गयी थी या आदेश दिया गया था, आवेदक की जानकारी में नहीं था या उसके द्वारा पेश नहीं किया जा सकता था। साथ-साथ ऐसा महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य-

(अ) सुसंगत होना चाहिये, एवं

(ब) उस प्रकृति का होना चाहिये कि यदि वह वाद में पेश किया गया होता तो इस बात को सम्भावना थी कि निर्णय परिवर्तित हो गया होता।

ध्यान रहे यह केवल किसी नये और महत्वपूर्ण साक्ष्य का प्रकटीकरण नहीं है, जो किसी पक्षकार को पुनर्विलोकन का अधिकार प्रदान करता है, बल्कि एक ऐसे नये और महत्वपूर्ण साक्ष्य की खोज है, जो उस समय (जिस समय डिक्री पारित की गयी थी या आदेश दिया गया था) आवेदक की जानकारों में नहीं था। और उसे उपरोक्त दोनों शर्तों को भी पूरा करना चाहिये।

अनवधानता के कारण (through inadvertance) दिया गया निर्णय पुनर्विलोकन का आधार नहीं हो सकता। निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये तथ्य सम्बन्धी प्रश्न पर नये साक्ष्य का प्रकटीकरण हालांकि प्रथम अपीलीय न्यायालय की डिक्री के पुनर्विलोकन के लिये अच्छा आधार है परन्तु द्वितीय अपीलीय न्यायालय के डिक्री के पुनर्विलोकन के लिये कोई आधार नहीं है।

सामान्यतया जब एक बार निर्णय कर दिया गया तो डिक्रीदार को या उस व्यक्ति को जिसके पक्ष में ऐसा निर्णय किया गया है उस निर्णय के लाभ से बिना किसी ठोस आधार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। अतः जहाँ नए और महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य के प्रकटीकरण के आधार पर पुनर्विलोकन को माँग की गयी है, वहाँ न्यायालय को पुनर्विलोकन की अनुमति प्रदान करने में पूरी सावधानी बरतनी चाहिये।

उदाहरण-

(i) जहाँ दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन (restitution of conjugal rights) की डिक्री पारित की गयी है और वाद में यह पता चला कि पक्षकार चचेरे भाई बहन थे, अत: डिक्री अकृत और शून्य (null and void) है, वहाँ पुनर्विलोकन का आवेदन स्वीकार किया गया।

(ii) जहाँ न्यायालय ने एक गवाह के बयान के लिये (जो पाकिस्तान में रहता था) एक कमीशन जारी किया और वाद में उसे (न्यायालय को) यह बताया गया कि ऐसा करने के लिये पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में कोई पारस्परिक प्रावधान नहीं है, वहाँ न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय का पुनर्विलोकन किया। पुनर्विलोकन करते समय न्यायालय पश्चात्वर्ती घटनाओं पर विचार कर सकता है।

2. ऐसी भूल या त्रुटि जो अभिलेख के सकृत दर्शने (देखने से ही) प्रकट है- अभिलेख के देखने से ही प्रकट होने वाली विधि, तथ्य तथा प्रक्रिया सम्बन्धी कोई भूल या त्रुटि पुनर्विलोकन का दूसरा आधार है। भूल ऐसी होनी चाहिये जो किसी दूसरे मामले का हवाला दिये बिना अभिलेख के मात्र पढ़ने से ही देखी जा सकती है। यथा जहाँ किसी कानूनी स्थिति को सुप्रसिद्ध प्रमाण द्वारा स्थापित कर दिया गया है, लेकिन न्यायाधीश उसे देखने में भूल से विफल हो गया है, ऐसी भूल होगी जो अभिलेख के सकृत दर्शने स्पष्ट है। भूल या त्रुटि ऐसी अभिलेख के देखने मात्र से ही प्रकट है नहीं माना जा सकता, जहाँ यह निर्धारित करने के लिये निर्णय सही है या नहीं अभिलेख से परे छानबीन करना पड़े।

"भूल या गलती जो अभिलेख के देखने से ही प्रकट होती है" से तात्पर्य ऐसी गलती से है जिस पर अभिलेख देखने से हो ध्यान आकर्षित होता है और जहाँ किसी बिन्दु पर दो विचार हो सकते हैं, तर्कों के किसी लम्बी खिची प्रक्रिया (long drawn process) की आवश्यकता नहीं होती, या जिसका पता लगाने के लिये तर्क की प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं पड़ती।

उदाहरण- निम्न परिस्थितियों में पुनर्विलोकन स्वीकार किया गया-

1. वाद के तथ्यों पर परिसीमा अधिनियम लागू करने में न्यायालय द्वारा असफलता।

2. किसी निर्णय का सुनाना बिना इस तथ्य पर विचार किये कि विधि को भूतलक्षी प्रभाव से संशोधित कर दिया गया है

3. किसी अधिनियम की किसी धारा या उसके एक भाग पर विचार करने में न्यायालय की असफलता।

4. न्यायालय द्वारा किसी सारवान् विवाद्यक पर विचारण की भूल के आधार पर।

5. जहाँ पक्षकारों को सूचना के अभाव में निर्णय किया गया है।

6. जहाँ अधिकारिता का अभाव अभिलेख से प्रकट हैम

7. उच्चतम न्यायालय के द्वारा प्रतिपादित विधि के विपरीत मत प्रकट करना।

8. न्यायालय या वकील द्वारा विधि या तथ्य की गलत धारणा।

9. सुसंगत दस्तावेजों पर विचार न करना।

3. कोई अन्य पर्याप्त कारण-

कोई अन्य पर्याप्त कारण, पुनर्विलोकन का तृतीय और अन्तिम आधार है। किसी अन्य कारण पद से तात्पर्य किसी ऐसे कारण से है जो नियम में विनिर्दिष्ट कारण के कम से कम समकक्ष हों। दूसरे शब्दों में जो उन कारणों के समान हैं जो विषय-विन्दु (point) (1) एवं (2) में उल्लिखित है यथा नये और महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य का पता चलना या जो अभिलेख के सकृत दर्शने (देखने से ही) स्पष्ट है।

उच्चतम न्यायालय ने फेडरेल कोर्ट एवं प्रीवी कॉन्सिल के निर्णयों को ध्यान में रखते हुये एम० कैथोलिक्स बनाम एम० पी० अवनासियस नामक वाद में अभिनिर्धारित किया है कि 'अन्य पर्याप्त कारण' पद से तात्पर्य पर्याप्त आधारों पर एक तर्क, (या कारण) जो कम से कम उनके सदृश हो जो नियम में विनिर्दिष्ट है, से है।

उदाहरण- निम्नलिखित को पुनर्विलोकन के लिये पर्याप्त कारण माना गया है-

1. जहाँ निर्णय (judgement) में कथन (statement) सत्य नहीं है।

2. जहाँ पक्षकार को मामले की पर्याप्त सूचना नहीं थी या उसे साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिये पर्याप्त अवसर नहीं प्राप्त हुआ।

घनश्याम बनाम लाल सिंह नामक वाद जिसमें निर्णय इलाहाबाद न्यायालय की पूर्णपीठ (Full Bench) ने पुनर्विलोकन का प्रार्थना पत्र स्वीकार किया। इस वाद में एक निर्देश (reference) पर निर्णय प्रत्यर्थी (respondent) की अनुपस्थिति में दिया गया। प्रत्यर्थी ने उच्च न्यायालय के समक्ष प्रमाणित कर दिया कि उसकी अनुपस्थिति का कारण यह था कि निर्देश को सूचना (notice) उसे नहीं मिली थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उसे पुनर्विलोकन स्वीकार करने के लिये 'पर्याप्त कारण' माना जायेगा।

3. जहाँ न्यायालय किसी सारवान् विवाद्यक, तथ्य या साक्ष्य पर विचार करने में असफल रहा है।

4. जहाँ किसी पक्षकार के वकील या काउन्सेल ने गलती से मुकदमें में रियायत (concession) दे दी है, वहाँ वह पक्षकर ऐसी रियायत से मुकर सकता है, और काउन्सेल को यह गलती पुनर्विलोकन का आधार बन सकती है।

5. एक ऐसा आधार जो मामले के तह से जुड़ा हुआ है और न्यायालय के अन्तर्निहित अधिकार को प्रभावित करता है, उस पर विचार करने में असफलता।

6. एक पक्षकार के एडवोकेट द्वारा गलत कथन करना एकतरफा डिक्री या आदेश को निरस्त या अपास्त करने के लिये दिया गया आवेदन पुनर्विचार नहीं माना जायेगा। पुनर्विचार में डिक्री या आदेश के गुणागुण पर विचार किया जाता है, उस डिक्री या आदेश को अपास्त करने के आवेदन में केवल यह देखा जाता है, कि क्या मामले की सुनवाई के दिन आवेदक के अनुपस्थित रहने के पर्याप्त कारण हैं।

जहाँ एक बेदखली (eviction) का बाद इस आधार पर लाया गया है कि किरायेदार ने तीन वर्ष का किराया नहीं दिया है, वहाँ उच्च न्यायालय ने यह कहा कि किरायेदार यू० पी० अरबन बिल्डिंग्स (रेगुलेशन ऑफ लेटिंग रेण्ट एण्ड इविक्सन) एक्ट, 1972 की धारा 20 (4) के लाभों को पाने का हकदार नहीं है।

किरायेदार उच्च न्यायालय के इस निर्णय पर पुनर्विचार का आवेदन चार वर्ष बाद देता है, उच्चतम न्यायालय के द्वारा सरदार नरेन्दर सिंह बनाम चतुर्थ अतिरिक्त जिला न्यायाधीश नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ऐसी स्थिति में पुनर्विचार के आवेदन का खारिज किया जाना उचित है।

पुनर्विलोकन का न्यायालय, अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर सकता। दो विचारों की मात्र सम्भावना पुनर्विलोकन का आधार नहीं हो सकता।

पुनर्विलोकन का अन्तर्निहित अधिकार (Inherent powers of review)

अपने निर्णय पर पुनर्विलोकन का अधिकार, न्यायालय का अन्तर्निहित अधिकार नहीं है अपितु अपील के अधिकार के समान है जो किसी संविधि (statute) द्वारा प्रदान किया जाता है। ऐसा अधिकार चाहे स्पष्ट रूप से या विवक्षित रूप से प्रदान किया जाये परन्तु केवल उच्च न्यायालय का मत उसके विपरीत है।

इस धारा के अन्तर्गत कोई भी न्यायालय एक दूसरी अपील में अपने निर्णय पर (ऐसा निर्णय जिसके विरुद्ध पुनर्विचार का आवेदन नहीं दिया गया है) पुनर्विचार नहीं कर सकता पुनर्विलोकन का आवेदन-पुनर्विलोकन का आवेदन उस न्यायाधीश को दिया जाना चाहिये जिसने डिक्री पारित किया था या आदेश दिया था। लेकिन अगर वह न्यायाधीश उपलब्ध नहीं है तो ऐसा आवेदन एक दूसरे न्यायाधीश या उसके उत्तराधिकारी को दिया जायेगा 16 जहाँ वह न्यायाधीश जिसने आदेश या डिक्री पारित किया है, वह अपनो अधिवार्षिता (superannuation) के कारण उपलब्ध नहीं है, वहाँ पुनर्विलोकन के आवेदन को कोई अन्य न्यायाधीश ग्रहण कर सकता है।

पुनर्विलोकन का आवेदन अपील के ज्ञापन के प्रारूप में दिया जायेगा।

अपील- पुनर्विलोकन को नामंजूर करने वाले न्यायालय का आदेश अपीलीय नहीं होगा। किन्तु आवेदन को स्वीकार किये जाने वाला आदेश अपोलीय होगा।

प्रक्रिया- जब पुनर्विलोकन का आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है तो उसकी सूचना विरोधी पक्षकार को दिया जायेगा और ऐसे आवेदन पर सुनवाई होगी। जहाँ न्यायालय को ऐसा प्रतीत होता है कि पुनर्विलोकन के लिये पर्याप्त आधार नहीं है, वहाँ वह आवेदन को नामंजूर कर देगा, अन्यथा आवेदन को मंजूर कर देगा। जहाँ आवेदन को मंजूर कर दिया गया है वहाँ न्यायालय मामले की पुनः सुनवाई तुरन्त करेगा या ऐसा करने के लिये दिन निश्चित कर देगा। सुनवाई के पश्चात् न्यायालय जैसा उचित समझेगा, डिक्री पारित कर सकेगा।

पुनर्विलोकन का द्वितीय आवेदन-द्वितीय पुनर्विलोकन के लिये कोई प्रावधान नहीं है। दूसरे शब्दों में पुनर्विलोकन में जो आदेश पारित किया जाता है उसका पुनर्विलोकन नहीं हो सकता या पुनर्विलोकन में जो डिक्री पारित की गयी है उसका पुनर्विलोकन नहीं हो सकता : परन्तु जिला न्यायाधीश अपील में पारित किये गये अपने आदेश का पुनर्विलोकन कर सकता है, उसे यह अधिकार प्राप्त है। पुनर्विलोकन का आवेदन और कोर्ट फीस-पुनर्विलोकन को कार्यवाही वाद या अपील से सम्बद्ध कार्यवाही मानी जाती है। अतः निर्धन वादी या अपीलकर्ता जो पुनर्विलोकन की याचिका दाखिल करता है या आवेदन देता है उसे न्यायालय शुल्क या कोर्ट फीस ऐसे याचिका या आवेदन पर नहीं देना है।

परिसीमा (Limitation)- पुनर्विलोकन का आवेदन देने की परिसीमा (अवधि) तीस दिन है। दूसरे शब्दों में किसी भी निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अतिरिक्त) पुनर्विलोकन का ओवदन डिक्री या आदेश की तिथि से तीस दिन के भीतर दिया जाना चाहिये।

जहाँ द्वितीय पुनर्विलोकन याचिका दाखिल करने में असाधारण विलम्ब हुआ है और जिसे स्पष्ट नहीं किया गया है-आनुक्रमिक पुनर्विलोकन याचिकायें उसी आदेश के विरुद्ध हैं, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने सोनिक इलेक्ट्रोचेम बनाम सेल्स टैक्स आफिसर में अभिनिर्धारित किया कि ऐसी याचिका पोषणीय नहीं है, विशेषकर तब जबकि अभिलेख के सकृत दर्शने कोई त्रुटि न हो। ज्ञातव्य है कि याचिका दाखिल करने में दो वर्ष 321 दिन की देरी हुयी।

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