सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 38: संहिता के अंतर्गत अपील न्यायालय को मिली शक्तियां

Update: 2022-05-17 10:47 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 107 अपील न्यायालय की शक्तियों को उल्लेखित करती है। संहिता ने पहले अपील के संबंध में उल्लेख किया जहां यह बताया कि कौनसे निर्णय की अपील कहाँ और कैसे होगी। वह धाराएं अपील का अधिकार उत्पन्न करती है जबकि धारा 107 न्यायालय के अधिकार उत्पन्न करती है।

धारा 107 स्पष्ट करती है कि अपीलीय न्यायालय किस प्रकार काम करता है और अंत में उसके पास किसी निर्णय के संबंध में क्या क्या अधिकार शेष रह जाते हैं। इस आलेख के अंतर्गत इस ही धारा 107 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

यह संहिता में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप है।

107. अपील न्यायालय की शक्तियाँ

(1) ऐसी शर्तों और परिसीमाओं के अधीन रहते हुये जो विहित की जायें, अपील न्यायालय को यह शक्ति होगी कि वह

(क) मामले का अन्तिम रूप से अवधारणा करे,

(ख) मामले का प्रतिप्रेषण करे,

(ग) विवाद्यक विरचित करे और उन्हें विचारण के लिये निर्देशित करे,

(घ) अतिरिक्त साक्ष्य ले या ऐसे साक्ष्य का लिया जाना अपेक्षित करे।

(2) पूर्वोक्त के अधीन रहते हुये, अपील न्यायालय को वे ही शक्तियाँ होंगी और वह जहाँ तक हो सके उन्हीं कर्तव्यों का पालन करेगा, जो आरम्भिक अधिकारिता वाले न्यायालय में संस्थित वादों के बारे में इस संहिता द्वारा उन्हें प्रदत्त और उन पर अधिरोपित किये गये हैं।

जिस दिन अपील की सुनवाई का दिन निश्चित किया गया है उस दिन अपील के समर्थन में अपीलार्थी को सुना जायेगा, अर्थात् तर्कों को सुना जायेगा। न्यायालय तत्काल अपील खारिज कर सकती है। बिना प्रतिपक्षी (respondent) को प्रति उत्तर का अवसर दिये। अगर न्यायालय ऐसा नहीं करती है तो वह प्रतिपक्षी को अपील के विरुद्ध अपना तर्क प्रस्तुत करने का अवसर देगी जहाँ प्रतिपक्षी ने अपना पक्ष प्रस्तुत कर दिया है वहाँ अपीलार्थी को उसके प्रति उत्तर देने का अधिकार है।

अपील के मामले में यह भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि जहाँ अपील के विरुद्ध प्रारम्भिक आक्षेप विलम्ब और इसकी पोषणीयता के बारे में उठाया गया है, वहाँ ऐसे प्रश्न का विनिश्चय अपील न्यायालय को पहले करना चाहिये।

जहाँ अपील के ज्ञापन पर न तो हस्ताक्षर हुआ है और न ही उसका सत्यापन हुआ है, वहीं मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने त्रिलोचन सिंह बनाम बोर्ड ऑफ रेवेन्यू नामक वाद में यह अभिनिधारित किया कि न्यायालय को अपीलार्थी की त्रुटि के निवारण के लिये अवसर देना चाहिये। यह अपील के खारिज करने का आधार नहीं बन सकता।

अपील न्यायालय की शक्तियाँ

जहाँ अपील पर सुनवाई समाप्त हो गयी है, वहाँ अपील न्यायालय को निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं। जिनका वर्णन इस धारा (धारा 107) में किया गया है-

(1) मामले के अन्तिम रूप से अवधारण की शक्ति न्यायालय मामले का अन्तिम रूप से अवधारण कर सकेगा और ऐसा कोई आदेश डिक्री पारित कर सकेगा जैसा कि मामले में अपेक्षित हो लेकिन ऐसा न्यायालय तभी कर सकेगा जब कि अभिलेख पर पर्याप्त साक्ष्य विद्यमान है जिसके आधार पर निर्णय दिया जा सकता है। मामले के अन्तिम रूप से अवधारण के लिये पर्याप्त साक्ष्य का होना आवश्यक है।

जहाँ न्यायालय मामले में अन्तिम रूप से अवधारण करेगा वहाँ उसे यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी डिक्री की, जिसके विरुद्ध अपील की गयी है, पुष्टि कर सकेगा, उसे उलट सकेगा या उसमें फेरफार कर सकेगा। यही नहीं अपीलीय न्यायालय पक्षकारों की सहमति से कोई डिक्री या आदेश इस रूप में पारित कर सकेगा जैसे कि पक्षकार सहमत हो।

इस शक्ति के अधीन न्यायालय वादी का समझौता या समायोजन (adjustment) भी कर सकता है। प्रथम अपीलीय न्यायालय जब निचली अदालत के डिक्री को उलटने जा रहा है तो उसे निचली अदालत के साक्ष्य और निर्णय के कारणों (evidence and reasonings) पर अवश्य विचार करना चाहिये।

(2) मामले का प्रतिप्रेषण (remand) करने की शक्ति- अपील न्यायालय को शक्ति प्राप्त है कि वह मामले का प्रतिप्रेषण उसी न्यायालय को कर सकेगा जिसके डिक्री से अपील की गयी है।

जहाँ उस न्यायालय ने जिसको डिक्री की अपील की गयी है वाद का निपटारा किसी प्रारम्भिक बिन्दु पर कर दिया है और डिक्री अपील में उलट दी गयी है, वहाँ यदि अपील न्यायालय ऐसा करना उचित समझे तो वह मामले का प्रतिप्रेषण कर सकेगा और यह अतिरिक्त निर्देश दे सकेगा कि ऐसे प्रतिप्रेषण मामले में कौन से विवाद्यक या विवाद्यकों का विचारण दिया जाये।

जब मामला प्रतिप्रेषित कर दिया जाये तो अधीनस्थ न्यायालय उन विवाद्यकों या उस विवाद्यक पर विचारण करेगा और उसका अवधारण करने के पश्चात् अपने निर्णय और आदेश को प्रति अपील न्यायालय को भेजेगा।

यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि प्रारम्भिक विन्दु से क्या तात्पर्य है। प्रारम्भिक बिन्दु से तात्पर्य ऐसे बिन्दु से है जिस पर दिया गया निर्णय सम्पूर्ण मामले का निस्तारण कर देता है और अन्य बिन्दुओं पर निर्णय को आवश्यकता नहीं होती। ऐसा बिन्दु तथ्य का भी हो सकता है और विधि का भी है। जैसे जहाँ वाद अधीनस्थ न्यायालय द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया जाता है कि यह परिसीमा नियम द्वारा बाधित है।

प्रारम्भिक बिन्दु को प्रारम्भिक विवाद्यक (issue) भी कहते हैं। इसका सम्बन्ध ऐसे मुद्दे से है जिसमें न्यायालय की अधिकारिता या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि को वर्जना का प्रश्न उठता है।

प्रतिप्रेषण का आदेश हल्के-फुल्के ढंग से और सामान्यतया नहीं दिया जाना चाहिये, यह वहाँ दिया जा सकता है, जहाँ-

(अ) अधीनस्थ न्यायालय ने पूरे वाद को किसी प्रारम्भिक बात (बिन्दु) निपटा दिया है, और

(च) अधीनस्थ न्यायालय का निर्णय अपील में उलट दिया गया है। अगर उपर्युक्त दोनों शर्तों में से कोई शर्तें पूरी नहीं होती तो वहाँ प्रतिप्रेषण का आदेश नहीं दिया जा सकता।

परन्तु जहाँ उस न्यायालय ने जिसकी डिक्री की अपील की गयी है, मामले का निपटारा किसी प्रारम्भिक बात पर करने से अन्यथा कर दिया है और डिक्री अपील में उलट दी गयी है, और पुनर्विचारण आवश्यक समझा गया है वहाँ अपील न्यायालय की वहाँ शक्तियाँ होंगी जो उसको नियम 23 (आदेश 41 ) के अधीन है।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पश्चात्वर्ती घटनाओं को संज्ञान में लेने की न्यायालय की शक्ति सुस्थापित है।

परन्तु यह तीन शर्तों के अधीन है-

(1) नई घटना न्यायालय के संज्ञान में शीघ्रता से लायी जानी चाहिये

(2) यह न्यायालय के संज्ञान में, प्रक्रियात्मक नियमों को संगतता में, जो न्यायालय को ऐसी घटनाओं को संज्ञान में लेने में समर्थ बनाते हैं, लायी जानी चाहिये तथा विरोधी पक्षकार को ऐसी घटनाओं को स्पष्ट करने का अवसर प्रदान करे और

(3) पश्चातुवर्ती घटना किसी पक्षकार के अनुतोष के अधिकार के लिये अवश्य हो तात्विक होनी चाहिये।

उच्च न्यायालय को सामान्यतया मामले का प्रतिप्रेषण आदेश 41, नियम 23 के अधीन मात्र इस नाते नहीं करना चाहिये कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा दर्शाये गये कारण कतिपय या कुछ पहलुओं के प्रति गलत हैं। ऐसे प्रतिप्रेषण से अनावश्यक विलम्ब होता है और पक्षकारों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जब उच्च न्यायालय के समक्ष सामग्री मौजूद है तो उसे अपील पर निर्णय एक या दूसरे तरीके से कर देना चाहिये।

(3) विवाद्यक विरचित करने और विचारण की शक्ति-

जहाँ अधीनस्थ न्यायालय ने

(अ) ऐसे किसी विवायक को विरचना करने में,

(ब) उसका विचारण करने में या

(स) ऐसे तथ्य के प्रश्न के अवधारण में लोप किया है, जिस पर, अपील न्यायालय की राय में विनिश्चय बाद में अवधारण के लिये परमावश्यक है, वहाँ यदि आवश्यक हो तो अपील न्यायालय विवाद्यकों की विरचना कर सकेगा और उन्हें अधीनस्थ न्यायालय के विचारण के लिये विनिर्दिष्ट कर सकेगा।

(4) अतिरिक्त साक्ष्य लेने की शक्ति-

न्यायालय को अतिरिक्त साक्ष्य लेने या ऐसे साक्ष्य का लिया जाना अपेक्षित करने की भी शक्ति प्राप्त है, परन्तु वह ऐसा निम्नलिखित अवस्थाओं में हो कर सकता

(क) जहाँ उस न्यायालय ने जिसको डिक्री की अपील की गयी है, ऐसा साक्ष्य ग्रहण करने से अस्वीकार कर दिया है जो ग्रहण किया जाना चाहिये था, अथवा

(ख) वह पक्षकार जो अतिरिक्त साक्ष्य पेश करना चाहता है यह सिद्ध कर देता है कि सम्यक् तत्परता के बावजूद वह ऐसे साक्ष्य की जानकारी नहीं रखता था या उसे उस समय पेश नहीं कर सकता जब यह डिक्री पारित की गयी थी जिसके विरुद्ध अपील की गयी है, अथवा

(ग) अपीलल न्यायालय किसी दस्तावेज के पेश किये जाने की या किसी साक्षी को परीक्षा किये जाने की अपेक्षा, या तो स्वयं निर्णय सुनाने में समर्थ होने के लिये या किसी सारवान् हेतुक के लिये करें। जहाँ कहीं अतिरिक्त साक्ष्य पेश करने के लिये अपील न्यायालय अनुज्ञा दे देता है, वहाँ न्यायालय ऐसे साक्ष्य ग्रहण किये जाने के कारणों को लेखबद्ध करेगा।

धारा 107 अपीलीय न्यायालय को इस बात के लिये समर्थ बनाती है कि वह अतिरिक्त साक्ष्य से या ऐसे साक्ष्य का लिया जाना अपेक्षित करे परन्तु उन शर्तों और सीमाओं के अधीन जो आदेश 41 और नियम 27 में अंगीभूत है। सामान्य रूप से इस सिद्धान्त का पालन किया जाना चाहिये कि अपीलीय न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय के अभिलेखों से बाहर अपील में साक्ष्य नहीं ले सकता।

परन्तु धारा 107 (घ) इस सामान्य नियम का अपवाद है और अतिरिक्त साक्ष्य लिया जा सकता है किन्तु उन्हों शर्तों और सीमाओं के साथ जो आदेश 41, नियम 27 में उपबन्धित हैं परन्तु यह ध्यान रहे कि न्यायालय उन परिस्थितियों में जो उक्त नियम में वर्णित है के अन्तर्गत अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति देने के लिये बाध्य नहीं है और पक्षकार ऐसे साक्ष्य को ग्राह्य किये जाने के लिये साधिकार हकदार नहीं है। यह न्यायालय के पूर्ण विवेकाधिकार के अन्तर्गत आता है, हालांकि यह सच है कि ऐसे विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायसम्मत तरीके से और मितव्ययितापूर्वक किया जाना चाहिये।

आदेश 41, नियम 27 कतिपय परिस्थितियों की परिकल्पना करता है जिसके अन्तर्गत अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है उसमें खण्ड (ख) "स्वयं निर्णय सुनाने में समर्थ होने के लिये" पद का प्रयोग करता है। महावीर सिंह बनाम नरेशचन्द्र में उच्चतम न्यायालय ने इस पद को स्पष्ट करते हुये कहा कि "जब अपीलीय न्यायालय निर्णय सुनाने में साक्ष्य जैसा कि वह विद्यमान है, में कमी या त्रुटि के कारण अपने को असमर्थ पाता है, तब वह अतिरिक्त साक्ष्य ग्रहण कर सकता है।"

निर्णय सुनाने में समर्थता' को निर्णय सुनाने वाले न्यायालय के विचार में संतोषजनक रूप से निर्णय सुनाना जाना चाहिये। यह साक्ष्य में कमी ही है जो न्यायालय को अतिरिक्त साध्य ग्रहण करने के लिये शक्ति प्रदान करती है। लेकिन एक निष्कर्ष पर पहुँचने में मात्र कठिनाई अतिरिक्त साक्ष्य की ग्राह्यता के लिये नहीं है।

जहाँ कहाँ अतिरिक्त साध्य पेश करने की अनुज्ञा दी जाती है वहाँ अपील न्यायालय ऐसा मात्र स्वयं से सकेगा या उस न्यायालय को जिसकी डिग्री के विरुद्ध अपील की गयी है, या किसी अन्य अधीनस्थ न्यायालय को ऐसा साक्ष्य लेने के लिये और उसके लिये जाने के पश्चात् अपील न्यायालय को उसे भेजने के लिये निर्देश दे सकेगा। अपीलीय न्यायालय किसी पक्षकार को अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने से इस आधार पर मना नहीं कर सकता कि परीक्षण न्यायालय के समक्ष उसने कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया।

(5) मूल क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय की भाँति कार्य करने की शक्ति

धारा 107 की उपधारा (2) के अनुसार अपील न्यायालय को ये ही शक्तियाँ होंगी और वह जहाँ तक हो सके उन्हीं कर्तव्यों का पालन करेगा, जो मूल अधिकारिता वाले न्यायालयों में संस्थित वादों के बारे में इस संहिता द्वारा उन्हें प्रदत और उन पर अधिरोपित किये गये हैं।

ध्यान रहे अपील न्यायालय की जो शक्तियों ऊपर बतायी गयी हैं, (जिन्हें धारा 107 में उपबंधित किया गया है) थे, उसकी अपीलीय अधिकारिता (appellate jurisdiction) का एक भाग मात्र है। उन्हें अपील न्यायालय की मूल या मौलिक अधिकारिता नहीं कहा जा सकता।

यह अपील न्यायालय को न केवल अपील को गुणावगुण के आधार पर निपटाने की शक्ति प्रदान करना है वरन कोई भी आनुषंगिक या अन्तर्वती आदेश (वादकालीन आदेश) परिस्थितियों में आवश्यक हो, या तो यथास्थिति को बनाये रखने के लिये या अपील की विषयवस्तु तब तक संरक्षित रखने के लिये जब तक अपील का निपटारा न हो जाये, पारित करने की शक्ति प्रदान करता है।

जहाँ एक अधिवक्ता ने गलत स्वीकृति (admission) कर लिया है, वहाँ अपीलीय न्यायालय ऐसे गलत स्वीकृति के प्रभाव को अपने अधिकार के अन्तर्गत नहीं मिटा सकता। इसके लिये उचित प्रक्रिया का पुनर्विचार होगा।

जहाँ अन्तरिम व्यादेश सम्बन्धी आदेश पारित किया है और ऐसे आदेश के विरुद्ध प्रकीर्ण अपील (miscellaneous appeal) दाखिल की गयी है, वहाँ अपीलीय न्यायालय को यह अधिकार नहीं प्राप्त है कि वह वाद-पत्र में संशोधन अनुज्ञात करें।

अपीलीय न्यायालय के रूप में एक उच्च न्यायालय को धारा 107 के अन्तर्गत विस्तृत अधिकार प्राप्त है। परन्तु उसे अभिवचन से बाहर जाकर एक नया मामला नहीं बनाना चाहिये।

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