सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 33:अन्तराभिवाची वाद क्या होते है

Update: 2022-04-24 10:00 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 88 अन्तराभिवाची का उल्लेख करती है। इस वाद का अर्थ होता है कि कोई विवाद की विषय वस्तु प्रतिवादियों के बीच होना। संहिता में इस धारा को डालने का उद्देश्य यह है कि केवल वादी प्रतिवादी के बीच ही मुकदमे नहीं सुने जाए अपितु प्रतिवादियों के मध्य के विवाद को भी सुलझाया जाए।

यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप है-

धारा 88

अन्तराभिवाची वाद कहाँ संस्थित किया जा सकेगा-जहाँ दो या अधिक व्यक्ति उसी ऋण, धनराशि या अन्य जंगम या स्थावर सम्पत्ति के बारे में एक दूसरे के प्रतिकूल दावा किसी ऐसे अन्य व्यक्ति से करते हैं जो प्रभारों या खर्चों से भिन्न किसी हित का उसमें दावा नहीं करता है और जो अधिकारवान दावेदार को उसे देने या पदित करने के लिये तैयार है वहाँ ऐसा अन्य व्यक्ति समस्त ऐसे दावेदारों के विरुद्ध अन्तराभिवाची वाद उस व्यक्ति के बारे में जिसे सन्दाय या परिदान किया जायेगा, विनिश्चय अभिप्राप्त करने और अपने लिये परित्राण अभिप्राप्त करने के प्रयोजन से संस्थित कर सकेगा

परन्तु जहाँ ऐसा कोई वाद लम्बित है जिसमें सभी पक्षकारों के अधिकार उचित रूप से विनिश्चित किये जा सकते हैं, वहाँ ऐसा वाद अन्तराभिवाची वाद संस्थित नहीं किया जायेगा।

अन्तराभिवाची वाद-

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 88 अन्तराभिवाची वाद का प्रावधान करती है। अन्तराभिवाची वाद एक ऐसा वाद है जिसमें विवाद वादी और प्रतिवादी के बीच न होकर प्रतिवादियों के बीच ही होता है। इस वाद में प्रतिवादी ही एक दूसरे के विरुद्ध अभिवचन करते हैं। वादी का उसमें कोई हित नहीं होता। दूसरे शब्दों में अन्तराभिवाची वाद वह वाद है जिसमें वास्तविक विवाद प्रतिवादियों के बीच रहता है और वादी वाद की विषय-वस्तु में हित नहीं रखता है।

प्रतिवादी अन्तराभिवचन करते हैं, जैसा कि सामान्य वाद में नहीं होता। इस वाद में प्रतिवादी ही एक दूसरे के विरुद्ध अभिवचन करते हैं और ऐसे ऋण या सम्पत्ति के दावों के सम्बन्ध में अभिवचन करते हैं जिसमें वादी अपना कोई हित नहीं रखता और जिसे वह अधिकारी प्रतिवादी (जो उस सम्पत्ति के हक का अधिकारी है) को प्रदान करने के लिये तैयार होता है।

धारा 88 के अनुसार जहाँ दो या अधिक व्यक्ति उसी ऋण धनराशि या चल या अचल सम्पत्ति के बारे में एक दूसरे के प्रतिकूल दावा किसी ऐसे अन्य व्यक्ति से करते हैं जिसका ऐसी सम्पत्ति के प्रभारों (charges) या खर्चों के अतिरिक्त और कोई हित नहीं और ऐसा अन्य व्यक्ति उस सम्पत्ति को अधिकारवान दावेदार को देने या परिदन करने के लिये तैयार है।

वहाँ ऐसा अन्य व्यक्ति ऐसे समस्त दावेदारों के विरुद्ध एक अन्तराभिवाची वाद इस उद्देश्य से संस्थित करेगा कि इस बात का विनिश्चय किया जा सके कि सम्पत्ति किसे परिदान करना है या अगर ऋण है तो किसको संदाय करना है:

परन्तु जहाँ ऐसा कोई वाद लम्बित है जिसमें सभी पक्षकारों के अधिकार उचित रूप से विनिश्चित किये जा सकते हैं यहाँ ऐसे कोई अन्तराभिवाची वाद संस्थित नहीं किया जायेगा।

किसी भी अन्तराभिवाची वाद के वाद पत्र में अन्य कथनों के अलावा निम्न तथ्यों का भी कथन अवश्य होगा :

(1) कि वादी प्रभारों या खर्चों के लिये वाद करने से भिन्न किसी हित का दावा विवाद की विषयवस्तु में नहीं करता है;

(2) प्रतिवादियों द्वारा पृथकत किये गये दावे कथित होंगे, तथा

(3) यह कथन होगा कि वादी और प्रतिवादियों में से किसी भी प्रतिवादी के बीच कोई दुस्सन्धि नहीं है। जहाँ दावाकृत चीज ऐसी है कि वह न्यायालय में जमा की जा सकती है या न्यायालय की अभिरक्षा में रखी जा सकी है वहाँ वादी से यह अपेक्षा की जा सकेगी कि वह सम्पत्ति या तो न्यायालय में जमा कर दे या उसे न्यायालय की अभिरक्षा में रख दे।

पहली सुनवाई में प्रक्रिया-

पहली सुनवाई में न्यायालय यह घोषित कर सकेगा कि वादी दावाकृत चीज के सम्बन्ध में प्रतिवादियों के प्रति सभी दायित्वों से उन्मुक्त हो गया है, उसे खर्चे परिदान कर सकेगा और वाद से खारिज कर सकेगा। दूसरे शब्दों में न्यायालय वादी को प्रथम सुनवाई में सभी दायित्वों से मुक्त घोषित कर सकता है, उसे उसके खर्चे प्रदान कर सकता है और उसका नाम वाद में खारिज कर सकता।

परन्तु जहाँ न्यायालय न्याय और सुविधा की दृष्टि से उचित समझता है वहाँ वाद का अन्तिम निपटारा होने तक सभी पक्षकारों को बनाए रख सकता है।

जहाँ पक्षकारों की स्वीकृतियाँ और अन्य साक्ष्य पर्याप्त हैं, कि उनके आधार पर निर्णय किया जा सकता है वहाँ न्यायालय दावाकृत चीज पर के हक का न्यायनिर्णयन कर सकेगा परन्तु जहाँ पक्षकारों की स्वीकृतियाँ विवादित वस्तु पर न्यायनिर्णयन सम्भव नहीं बना पाती वहाँ न्यायालय यह आदेश दे सकेगा कि पक्षकरों के बीच विवाद्यक या विवाधकों की रचना की जाये और उनका विचारण किया जाये तथा मूल वादी के बदले या उसके अतिरिक्त किसी दावेदार को वादी बना दिया जाए।

एक अन्तराभिवाची वाद के वाद पत्र में आवश्यक संशोधन नई सम्पत्ति को सम्मिलित करने के लिये या नये पक्षकारों के संयोजन के लिये किया जा सकता है।

अभिकर्ता और अभिधारी (Agent and Tenant)– आदेश 35, नियम 5 के अधीन कोई अभिकर्ता अपने मालिक पर या अभिधारी (tenant) अपने भू-स्वामी पर अन्तराभिवाची वाद संस्थित नहीं कर सकता, ताकि किन्हीं ऐसे व्यक्तियों के साथ अन्तराभिवचन कर सके जो ऐसे स्वामियों या भू-स्वामियों के माध्यम से दावा करने वाले व्यक्तियों से भिन्न हैं।

इस गुत्थी इस उदारहण के माध्यम से भी समझा जा सकता है-

1 आभूषणों का बक्स अपने अभिकर्ता के रूप में 'ख' के पास 'क' निक्षिप्त (deposit) करता है। 'ग' का यह अभिकथन है कि आभूषण 'क' ने उससे सदोष अभिप्राप्त (obtained) किये थे और वह उन्हें 'ख' से लेने का दावा करता है। 'क' और 'ग' के विरुद्ध अन्तराभिवाची वाद 'ख' संस्थित नहीं कर सकता।

2. आभूषण का एक बक्स अपने अभिकर्ता के रूप में 'ख' के पास 'क' निक्षिप्त करता है। तब वह इस प्रयोजन से 'ग' को लिखता है कि 'ग' को जो ऋण उस द्वारा शोध्य है उसकी प्रतिभूति वह उन आभूषणों को बना ले। 'क' तत्पश्चात् यह अभिकथन करता है कि 'ग' के ऋण की तुष्टि कर दी गयी है और 'ग' उसके विपरीत अभिकथन करता है। दोनों 'ख' से आभूषण लेने का दावा करते हैं। 'क' और 'ग' के विरुद्ध अन्तराभिवाची वाद 'ख' संस्थित कर सकेगा।

वादी के खर्चों का भार- जहाँ वाद उचित रूप में संस्थित किया गया है वहाँ न्यायालय मूल वादी के खर्चों के लिये उपबन्ध दावाकृत चीज पर उसका भार डालकर या अन्य प्रभावी तौर पर कर सकेगा है अन्तराभिवाची वाद से सम्बन्धित प्रक्रिया आदेश 35 में उपबन्धित है।

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