सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 28: संहिता की धारा 61,62,63 एवं 64

Update: 2022-04-18 13:30 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 61, 62, 63 एवं 64 भी कुर्की से संबंधित प्रावधान प्रस्तुत करती है। यह तीनों धाराएं धारा 60 की सहायक धाराएं है। धारा 60 में कुर्की से संबंधित विस्तृत उल्लेख किया गया है जिसका विवेचन पिछले आलेख में प्रस्तुत किया गया है, शेष 61, 62, 63 एवं 64 में भी धारा 60 से संबंधित बातों को ही स्पष्ट किया गया है। इस आलेख में इन सभी धाराओं पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

धारा 61

यह संहिता में प्रस्तुत धारा के मूल शब्द है

कृषि उपज को भागतः छूट- राज्य सरकार राजपत्र में प्रकाशित साधारण या विशेष आदेश द्वारा यह घोषणा कर सकेगी कि कृषि उपज या कृषि के किसी वर्ग के ऐसे प्रभाग को जिसकी बाबत राज्य सरकार को यह प्रतीत होता है कि वह उस आगामी फसल तक उस भूमि पर सम्यक् खेती करने के लिये तथा निर्णीत ऋणी और उसके कुटुम्ब के निर्वाह के लिये उपबन्ध करने लिये प्रयोजन के लिये आवश्यक है, सभी कृषकों या कृषकों के किसी वर्ग की दशा में डिक्री के निष्पादन में कुर्की या विक्रय के दायित्व से छूट होगी।

इस धारा का उद्देश्य कृषकों की सहायता करना है ताकि वे अपने खेती के कार्य को निष्पादन के होते हुये भी चला सकें। धारा के अधीन कृषि उपज को अंशतः छूट दी गयी है। ऐसा तभी किया जा सकता है जब राज्य सरकार राजपत्र में प्रकाशित साधारण या विशेष आदेश द्वारा यह घोषणा करें कि कृषि उपज का वह भाग जो कृषक के लिए अगली फसल तक खेती करने के लिए तथा निर्णीत-ऋणी और उसके कुटुम्ब के निर्वाह के लिये आवश्यक है। कृषि उपज के जिस अंश को छूट दी गयी है वह न तो कुर्क की जा सकती है और न ही डिक्री के निष्पादन में बेची जा सकती है।

धारा 62

धारा 55 इस बात का उपबन्ध करती है कि निर्णीत-ऋणी को किस प्रकार गिरफ्तार किया जायेगा। धारा 62 यह बताती है कि निष्पादन में अचल सम्पत्ति का अभिग्रहण कैसे किया जाय। इस धारा की उपधारा 1, 2 और 3 ठीक उसी तरह है जैसे धारा 55 की उपधारा 1, 2 और 3। एक दूकान या गोडाउन (माल रखने का स्थान) इस धारा के अधीन निवास- गृह नहीं माना जाता है।। निवास-गृह वह है जो आवासीय उद्देश्य के लिये उपयोग किया जाता है और उसमें आँगन, रसोईघर, गोशाला आदि सम्मिलित है।

धारा 63

इस धारा का उद्देश्य एक ही सम्पत्ति के कुर्की और विक्रय से उत्पन्न विभिन्न दावों को रोकना है। दूसरे शब्दों में, इस धारा का उद्देश्य डिक्री के निष्पादन से उत्पन्न भ्रम (confusion) को दूर करना है। इस धारा में विहित सिद्धान्त, सुविधा का तथा उचित विभाजन का है जिससे विभिन्न प्रकार की कार्यवाहियों की बहुलता को रोका जा सके।

धारा के अनुसार जहाँ कोई सम्पत्ति किसी न्यायालय की अभिरक्षा में नहीं है और एक से अधिक न्यायालयों को डिक्रियों के निष्पादन में कुर्क की गयी है, वहाँ ऐसी सम्पत्ति को वह न्यायालय प्राप्त और आप्त (receive and realize) करेगा और उसके सम्बन्ध में किसी दावे का या उसकी कुर्की के सम्बन्ध में किसी आक्षेप का अवधारण करेगा, जो सबसे ऊंची श्रेणी का है या जहाँ ऐसे सभी न्यायालय बराबर के श्रेणी के हैं, वहाँ जिसकी डिक्री के अधीन सम्पत्ति सबसे पहले कुर्क की गयी थी।

इस तरह धारा के अधीन ऊँची श्रेणी के न्यायालय को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि यह विक्रय आगम (sale proceed) का विभाजन करे ऐसा करके यह वास्तव में न केवल अपनी डिक्री का निष्पादन करता है बल्कि निचली श्रेणी के न्यायालयों की डिक्री का निष्पादन करता है, हालांकि ऐसा करने के लिये आवेदन उसे न देकर निचली श्रेणी के न्यायालयों को आस्तियों (assets) की प्राप्ति ने पहले दिये गये हैं।

धारा 64

किसी डिक्री के निष्पादन में अगर किसी सम्पत्ति की कुर्की कर दी गयी है तो कुर्कों के पश्चात् ऐसी सम्पत्ति का प्राइवेट अन्तरण या उसमें के हित का अन्तरण शून्य होगा। ऐसा उपबन्ध इसलिये किया गया है कि डिक्रीधारी के साथ किये जाने वाले धोखे को रोका जा सके और कुर्क कराने वाले ऋणदाता के अधिकार को सुरक्षित किया जा सके।

लेकिन धारा 64 (2) के प्रावधानों के अनुसार यदि कुर्क की गई सम्पत्ति के बारे में पहले से अन्तरण या परिदान के लिये काई रजिस्ट्रीकृत संविदा है, और कुर्की के बाद विक्रय संविदा निष्पादित की जाती है तो वह विधि सम्मत होगी। यदि ऐसी संविदा अरजिस्ट्रीकृत (अपंजीकृत) है, और विक्रय भी संविदा कुर्की के बाद निष्पादित की जाती है तो वह विधि सम्मत नहीं है। ऐसे विक्रय को संरक्षण नहीं दिया जायेगा। इस तरह धारा 64 (2) के प्रावधानों में कोई असंदिग्धता या अस्पष्टता नहीं है।

अन्य संक्रामण (alienation) के विरुद्ध निषेध को प्रभावी बनाने के लिये और धारा 64 के अधीन कुर्क की गई सम्पत्ति के वैयक्तिक अंतरण को अवैध करने के लिये यह आवश्यक है कि सम्पत्ति की कुर्की अवश्य की जा चुकी हो। धारा 64 को प्रभावी बनाने के लिये केवल यह तथ्य कि सम्पत्ति को कुर्क किये जाने के लिये एक आदेश पारित कर दिया गया है, पर्याप्त नहीं है। आदेश तो एक प्रारम्भ है न कि अन्त। जब तक कुर्की के लिये संहिता की सभी आवश्यकतायें पूरी नहीं कर ली जाती धारा 64 के उपबन्ध प्रवर्तनीय नहीं होंगे।

धारा 64 के अन्तर्गत "प्राइवेट अन्तरण" के अन्तर्गत बन्धकी (जिसे विक्रय का अधिकार प्राप्त है) द्वारा विक्रय या अन्तरण नहीं सम्मिलित है।

एक बार जहाँ कुर्की की जा चुकी है वहाँ कुर्क की गई सम्पत्ति या उसमें के किसी हित का ऐसी कुर्की के प्रतिकूल प्राइवेट अन्तरण या सम्पत्ति का परिदान और किसी ऋण, लाभांश या अन्य धन का ऐसो कुर्की के प्रतिकूल निर्णीत ऋणी को संदाय कुर्की के अधीन सभी दावों के मुकाबले में शून्य होगा।

यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि कुर्की के अधीन प्रवर्तनीय सभी दावों के अन्तर्गत आस्तियों के आनुपातिक वितरण (rateable distribution of assets) के दावे भी शामिल हैं।

निष्पादन के आवेदन के खारिज किये जाने से पूर्व कुर्कीकृत सम्पत्ति का विक्रय शून्य है। उच्चतम न्यायालय ने यस० जी० फिल्म्स एक्सचेंज लि० बनाम बृजनाथ सिंह जी नामक वाद में अपने निर्णय के माध्यम से कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 64 वास्तव में एक प्रकार से, इस धारा को परिस्थितियों के अनुसार विचाराधीन वाद (lis pendens) के सिद्धान्त को लागू करती है।

निर्णय के पूर्व कुर्की

संहिता के आदेश 38 के अनुसार सम्पत्ति निर्णय से पूर्व भी कुर्क को जा सकती है। परन्तु जहाँ तक कुर्की के पश्चात् सम्पत्ति के अन्तरण का प्रश्न है, धारा 64 के निर्णय के पूर्व कुर्की और निर्णय के पश्चात् कुर्की में कोई अन्तर नहीं करती है।

कुर्की का प्रभाव

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है सम्पत्ति के कुर्की का प्रभाव यह होता है कि उस सम्पत्ति के प्राइवेट अन्तरण को रोक दिया जाता है। कुर्की हो जाने से कुर्क की गई सम्पत्ति में डिक्रीधारी को कोई स्वत्व, भार, धारणाधिकार (lien) पूर्विकता या अग्रता (priority) नहीं प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में कुर्की केवल दूसरे व्यक्ति के हाथों में अन्तरित करने से रोकती है और कुर्क करने वाले ऋणदाता को कोई अधिकार नहीं प्रदान करती है।

कुर्की के पूर्व विक्रय के करार द्वारा सृजित संविदात्मक दायित्व सम्पत्ति के स्वत्व के सम्बन्ध में है जबकि कुर्की केवल निर्णीत-ऋणी के अधिकार हक और हित का है, इसलिये विक्रय कुर्की पर अभिभावी होता है।

कोई प्राइवेट अन्तरण उन संव्यवहारों को नहीं हटाता, जो किसी भी प्रकार निष्पादन करने वाले ऋणदाता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालते हैं। वह बिल्कुल शून्य नहीं होता है। बल्कि वह ऐसी शर्तो के अधीन होता है जो कुर्की के अनुसार की जा सकती है। कुर्की के दौरान किया गया अन्तरण केवल कुर्की करने वाले ऋणदाता के खिलाफ प्रवर्तनीय नहीं होता है।

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