सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 26: संहिता में गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 55, 56, 58 सिविल मामलों में गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान करती है। इस आलेख में इन तीनों महत्वपूर्ण धाराओं पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है जिससे गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान पूरी तरह स्पष्ट हो सके।
धारा 55
धारा 55 निर्णीत-ऋणी के निष्पादन में गिरफ्तारी और निरोध से सम्बन्धित उपबन्ध करती है। इस धारा के अनुसार निर्णीत-ऋणी को डिक्री के निष्पादन के किसी भी समय और किसी भी दिन गिरफ्तार किया जा सकेगा और यथासाध्य शीघ्रता से न्यायालय के समक्ष लाया जायेगा। परन्तु ऐसो गिरफ्तारी और निरोध कुछ शर्तों और सीमाओं के अधीन होगी और वे शर्तें धारा 55 में दो गई हैं।
जहां न्यायालय ने वित्तीय दायित्व अधिरोपित किया है, वहां उसका प्रवर्तन गिरफ्तारी और निरोध से हो सकता है। डिक्री-धन की अदायगी में निर्णीत-ऋणी द्वारा साधारण सी भूल (simple default) उसके बन्दी बनाये जाने के लिये पर्याप्त कारण नहीं है।
जहाँ किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का वर्ग, जिसको गिरफ्तारी से लोगों को खतरा या असुविधा पैदा हो सकती है, वहाँ उस व्यक्ति या व्यक्तियों के वर्ग को गिरफ्तारी के लिये राज्य सरकार सरकारी गजट में अधिसूचना जारी कर विशेष प्रक्रिया को व्यवस्था कर सकती है और गिरफ्तारी उसी प्रक्रिया के अधीन होगा अन्य के नहीं।
दिवालिया घोषित किये जाने के लिए आवेदन- जहाँ कोई निर्णीत-ऋणी धन के संदाय के लिए डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तार किया जाता है और न्यायालय के समक्ष लाया जाता है वहाँ न्यायालय उसे यह बतायेगा कि वह दिवालिया घोषित किये जाने के लिये आवेदन दे सकता है।
यदि निर्णीत-ऋणी दिवालिया घोषित किये जाने के लिये अपना आशय प्रगट करता है और न्यायालय को समाधानप्रद प्रतिभूति इस बात के लिये देता है कि वह ऐसा आवेदन एक मास के भीतर करेगा और बुलाये जाने पर निष्पादन न्यायालय में उपस्थित होगा, वहाँ न्यायालय उसे गिरफ्तारी से छोड़ सकेगा और यदि वह ऐसे आवेदन करने और उपसंजात होने में असफल रहता है तो न्यायालय डिक्री के निष्पादन में या तो प्रतिभूति प्राप्त करने का या उस व्यक्ति को सिविल कारागार को सुपुर्द किये जाने का निर्देश दे सकेगा
धारा 56
धारा 56 में सिविल प्रक्रिया संहिता संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से संशोधन किया गया है और न्यायालय को यह अधिकार (विवेकीय अधिकार) प्रदान किया गया है कि वह इस बात का निर्णय का सके कि किसी धन के संदाय की डिक्री के निष्पादन में किसी व्यक्ति को कितने दिन सिविल कारागार में रखा जा सकता है।
संशोधन के माध्यम से अब यह भी उपबन्ध किया गया कि किसी भी व्यक्ति को अधिक से अधिक माह से ज्यादा सिविल कारागार में नहीं रखा जा सकता अगर डिक्री की धनराशि पाँच हजार रुपये से ज्यादा है। अगर डिक्री धनराशि दो हजार रुपये से ज्यादा नहीं है तो डिक्री के निष्पादन में किसी को सिविल कारागार में निरोध नहीं किया जा सकेगा।
ऐसी व्यवस्था इसलिये की गई है कि गरीब ऋणी को परेशान न किया जा सके। जहाँ डिक्री दो हजार रुपये से अधिक किन्तु पाँच हजार से अनधिक धनराशि का संदाय करने के लिये है वहाँ छः सप्ताह से अधिक के लिये किसी को निरुद्ध नहीं किया जायेगा।
यह धारा इस बात का भी उपबन्ध करती है कि किसी व्यक्ति को जो कारागार में है उसको अवधि समाप्त होने से पहले कब छोड़ा जा सकता है? वे आधार निम्र हैं-
(1) उसके निरोध के वारण्ट में वर्णित रकम का सिविल कारागार के भारसाधक (officer incharge of civil prison) को संदाय कर दिय जाने पर; अथवा
(2) उसके विरुद्ध डिक्री के अन्यथा पूर्ण रूप से तुष्ट हो जाने पर, अथवा
(3) जिस व्यक्ति के आवेदन पर वह ऐसे निरुद्ध किया गया था उसके अनुरोध पर; अथवा
(4) जिस व्यक्ति के आवेदन पर उसे निरुद्ध किया गया था उसके द्वारा जीवन निर्वाह भत्ते का संदाय करने का लोप किये जाने पर।
यहाँ यह जान लेना अति आवश्यक है कि इस धारा के अधीन निरोध से छोड़ा गया निर्णीत-ऋणी अपने छोड़े जाने के कारण ही अपने ऋण से मुक्त नहीं हो जायेगा ऋण तो उसके कन्धों पर रहेगा ही, उसे केवल यह लाभ होगा कि वह जिस डिक्री के निष्पादन में सिविल कारागार में निरुद्ध किया गया था, उसके निष्पादन में पुन: गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा।
इस धारा के अधीन पुनः गिरफ्तारी से उन्मुक्ति का जो उपबन्ध है वह इस आधार पर नहीं कि निर्णीत-ऋणी पहले गिरफ्तार हुआ था बल्कि इस आधार पर कि यह कारागार में रहा है।
निरोध की अवधि-सिविल कारागार में निरोध की अवधि निम्न प्रकार की होगी-
(1) जहाँ डिक्री पाँच हजार रुपये से अधिक धनराशि का संदाय करने के लिये है यहाँ तीन मास से अधिक अवधि के लिये नहीं। डिक्री के निष्पादन में जहाँ निर्णीतऋणी को एक माह के लिये सिविल कारागार में भेज दिया गया है। ऐसे एक माह व्यतीत होने पर परन्तु छूटने से पहले उसे दो माह के लिये निष्पादन न्यायालय के आदेश से, कारागार भेज दिया जाता है, वहाँ अभिनिर्धारित किया गया कि ऐसा आदेश वैध है।
(2) जहाँ डिक्री दो हजार रुपये से अधिक किन्तु पाँच हजार रुपये से अनधिक राशि का संदाय करने के लिये है वहाँ छः सप्ताह से अधिक अवधि के लिये नहीं।
जहां न्यायालय ने किसी के ऊपर वित्तीय दायित्व सौंपा है, वहां उसका प्रवर्तन गिरफ्तारी और निरोध से हो सकता है।
धारा 58
धारा 58 के अधीन निर्णीत-ऋणी को उन चार आधारों पर उसके निरोध की अवधि पूर्ण होने के पहले भी छोड़ा जा सकता है। यह धारा रुग्णता (बीमारी) के आधार पर छोड़े जाने की व्यवस्था करती है। धारा 58 के उपबन्ध मानवीय मूल्यों को ध्यान में रखकर बनाये गये हैं। अगर निर्णीत-ऋणी गम्भीर बीमारी से पीड़ित है तो न्यायालय उसे निरोध से छोड़कर नैतिक जिम्मेदारी से बच सकता है, अन्यथा उसे कारागार में भेजने से अगर कुछ हो जाता है, तो उसकी जिम्मेदारी किसकी होगी।
धारा के उपबन्ध से स्पष्ट है उसकी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यहाँ ध्यान देना आवश्यक है कि इस धारा के अधीन (रुग्णता के आधार पर) छोड़े गये व्यक्ति को पुनः गिरफ्तार किया जा सकता है परन्तु शर्त यह कि सिविल कारागार में उसके निरोध की कुल अवधि की धारा 58 द्वारा विहित अवधि से अधिक नहीं होगी। दूसरे शब्दों में दुबारा निर्णीत-ऋणी को जितने अवधि के लिये कारागार में भेजा जा रहा है उसमें से वह अवधि जो वह प्रथम बार कारागार में रहा है, घटा दी जायेगी।