सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 39, 40, 41 एवं 42 डिक्री के निष्पादन से संबंधित है। यह चारो ही धाराएं लगभग समान प्रावधान करती है। इस आलेख में इन चारों ही धाराओं पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
धारा 39
धारा 38 इस बात का प्रावधान करती है कि डिक्री या तो उस न्यायालय द्वारा निष्पादित की जायेगी जिसने डिक्री पारित किया है या उस न्यायालय द्वारा जिसे डिक्री निष्पादन के लिये भेजी जायेगी, परन्तु ऐसा न्यायालय सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय होना चाहिये। धारा 39 इस बात को उपबन्धित करती है कि किन परिस्थितियों में डिक्री दूसरे न्यायालय में निष्पादन के लिये भेजी जायेगी।
सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय कौन है? धारा 39 के उपबन्धों के अनुसार इस धारा के प्रयोजन के लिये एक न्यायालय को सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय माना जायेगा यदि बाद जिसमें डिक्री पारित की गई है में का धन या विषय-वस्तु का मूल्य (मालियत) डिक्री के अन्तरण के लिये आवेदन दिये जाने के समय इसको सामान्य अधिकारिता को धन सम्बन्धी सीमा यदि कोई हो, से अधिक न हो, इस बात के होते हुये भी कि अन्यथा इसे बाद के विचारण की अधिकारिता नहीं है।
हम उन परिस्थितियों का विवेचन करें जिसमें डिक्री दूसरे न्यायालय को निष्पादन के लिये भेजी जायेगी इससे पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि डिक्री;
(1) उसी अवस्था में अन्तरण की जा सकती है जब डिक्रीदार को ऐसे अन्तरण के लिए विधिक अधिकार प्राप्त हो न कि साम्यिक!, और
(2) धारा के प्रावधान आदेशात्मक (mandatory) नहीं है। डिक्री का अन्तरण न्यायालय के स्वविवेक पर आधारित है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इस धारा के अन्तर्गत किसी लम्बित निष्पादन की कार्यवाही का अन्तरण नहीं किया जा सकता है। डिक्री स्वयं का अन्तरण दूसरे न्यायालय को किया जाना चाहिये।
निष्पादन के लिए डिक्री का अन्य न्यायालय को भेजा जाना डिक्री पारित करने वाला न्यायालय डिक्रीदार के आवेदन पर डिक्री को अन्य सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय को भेज सकेगा
(1) यदि वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध डिक्री पारित की गई है, ऐसे न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर (क) वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या
(ख) कारबार करता है; या
(ग) अभिलाभ के लिये स्वयं काम करता है; अथवा
(2) यदि ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति जो ऐसी डिक्री को तुष्टि के लिये पर्याप्त हो, डिक्री पारित करने वाले न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर नहीं है, और ऐसे अन्य न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर है; अथवा
(3) जहाँ डिक्री ऐसी किसी अचल सम्पत्ति के विक्रय अथवा परिदान का निर्देश देती है जो डिक्री पारित करने वाले न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के बाहर स्थित है; अथवा
(4) जहाँ डिक्री पारित करने वाला न्यायालय किसी अन्य कारण से जिसे वह लेखबद्ध करेगा, यह विचार करता है कि डिक्री का निष्पादन ऐसे अन्य न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिये।
डिक्री बिना डिक्रीदार के आवेदन के भी अन्य न्यायालय को निष्पादन के लिये भेजी जा सकती है। डिक्री पारित करने वाला न्यायालय उसे स्वप्रेरणा से सक्षम अधिकारिता वाले किसी भी अधीनस्थ न्यायालय को निष्पादन के लिये भेज सकता है। यहाँ स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय किसे माना जायेगा।
इस धारा के प्रयोजन के लिये उस न्यायालय को सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय समझा जायेगा, जो डिक्री के अन्तरण के लिए आवेदन करने के समय उस बाद के विचारण करने को अधिकारिता रखता हो जिसमें ऐसी डिक्री पारित की गई थी।
एक साथ निष्पादन (Simultaneous execution)– संहिता में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि एक डिक्री का एक साथ, एक से अधिक न्यायालयों में निष्पादन नहीं किया जा सकता है। किन्तु ऐसे अधिकार का प्रयोग बहुत ही कम परिस्थितियों में किया जाना चाहिये और वह भी डिक्रीदार पर ऐसी शर्त लगाकर कि वह सभी डिक्री में सम्पत्ति की बिक्री एक साथ न करें।
एक डिक्री का निष्पादन उसी सम्पत्ति के विरुद्ध एक से अधिक न्यायालय में नहीं किया जा सकता। अन्तरण का आवेदन-एक डिक्री के निष्पादन हेतु अन्तरण के लिए आवेदन को निष्पादन का आवेदन (धारा 51, आदेश 21, नियम 2, दीवानी प्रक्रिया संहिता के अधीन) नहीं माना जायेगा। ऐसे आवेदन के लिए कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। आवेदन से स्पष्ट रूप से यह विदित होना चाहिये कि आवेदन डिक्री का अन्तरण निष्पादन हेतु चाहता है।
धारा 40
धारा 40 के अन्तर्गत एक डिक्री को किसी अन्य राज्य के न्यायालय को अन्तरित किया जा सकेगा परंतु ऐसा तभी सम्भव है जब दोनों न्यायालय अन्तरित करने वाला और जहाँ डिक्री भेजी जा रही है संहिता के प्रावधानों से विनियमित हों।
जहाँ डिक्री किसी अन्य राज्य में निष्पादन के लिये भेजी जाती है वहाँ वह ऐसे न्यायालय को भेजी जायेगी और ऐसी रीति से निष्पादित की जायेगी जो उस राज्य में प्रवृत्त नियमों द्वारा विहित की जाए।
यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मियाद का कानून (law of limitation) जो अन्तरित की गई डिक्री के निष्पादन में लागू होगा वह अन्तरण करने वाले न्यायालय में प्रवृत्त कानून है, लेकिन प्रक्रिया सम्बन्धी नियम जो डिक्री के निष्पादन को विनियमित (शासित) करते हैं अन्तरिती न्यायालय के राज्य में प्रवृत्त कानून होगा।
धारा 41
निष्पादन कार्यवाही का प्रमाणित किया जाना-वह न्यायालय जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी जाती है ऐसी डिक्री पारित करने वाले न्यायालय को निष्पादन हो गया है। इस तथ्य को प्रमाणित करेगा और जहाँ ऐसा न्यायालय निष्पादन करने में असफल रहता है वहाँ ऐसी असफलता की परिस्थितियों को प्रमाणित करेगा। ऐसा करना अन्तरिती न्यायालय के लिए आवश्यक है। जब अन्तरिती न्यायालय प्रमाण-पत्र भेज देता है तो अन्तरित डिक्री पर उसकी निष्पादन के कार्यवाही को पकड़ (scisin) समाप्त हो जाती है अन्तरिती न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र तब तक नहीं भेज सकता है जब तक निष्पादन की कार्यवाही उसके समक्ष लम्बित है।
इस धारा के अन्तर्गत अन्तरिती न्यायालय प्रमाण-पत्र तभी भेजेगा जब उसने डिक्री का निष्पादन कर दिया है और अगर वह डिक्री का निष्पादन करने में असफल रहता है तो उन परिस्थितियों को प्रमाणित करेगा जिसके कारण डिक्री का निष्पादन नहीं हो सका है प्रमाणित करने का कृत्य विधिक कृत्य है।
जहाँ निष्पादन को कार्यवाही सम्बन्धी आवेदन खारिज कर दिया गया है और ऐसे खारिज करने के आदेश को एक प्रतिलिपि भेज दी गई है, धारा 41 के अन्तर्गत वह अन्तरिती न्यायालय का प्रमाण पत्र नहीं माना जायेगा और इस धारा को मंशा पूरी नहीं होती है भाग 41 के प्रवधान आदेशात्मक है।
धारा 42
धारा 42 के अन्तर्गत न्यायालय को डिक्री के निष्पादन में सम्बन्धित वही शक्तियाँ प्राप्त हैं जो उस न्यायालय को प्राप्त हैं जिसने डिक्री पारित किया था। दूसरे शब्दों में अन्तरिती न्यायालय डिक्री के निष्पादन के लिये उन्हीं शक्तियों का प्रयोग कर सकेगा जो वह न्यायालय करता जिसने डिक्री पारित किया है। अन्तरिती न्यायालय को निष्पादन के लिये सभी अधिकार नहीं प्राप्त है।
अन्तरिती न्यायालय को वही अधिकार प्राप्त हैं जैसे उसे अपने द्वारा पारित डिक्री में होता है। अंतरिती न्यायालय को जो डिक्री निष्पादन के लिये भेजी गई है, उसे निष्पादित करना चाहिये और इस उद्देश्य के लिये उसके पास शक्तियों है, परन्तु ऐसे न्यायालय को डिक्री का निष्पादन अस्वीकार करने का अधिकार नहीं है, सिवाय आदेश 21, नियम 26 में वर्णित परिस्थितियों के अंतरिती न्यायालय सम्पत्ति की बिक्री चाहे ऐसी सम्पत्ति उसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से बाहर हो क्यों न हो, कर सकती है ठीक उसी तरह, जिस तरह अंतरण करने वाला न्यायालय करता है।
अंतरिती न्यायालय ही उस व्यक्ति को जो न्यायालय के आदेशों की अवमानना करते हैं या डिक्री की अवज्ञा करते हैं या उसके निष्पादन में बाधा डालते हैं, दण्डित कर सकेगा ऐसे हो मानों डिक्री उसने हो पारित की हो।
डिक्री के निष्पादन में आवश्यक विलम्ब न हो इसलिये अब धारा 42 में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि अन्तरिती न्यायालय की अधिकार सीमा में या उसकी शक्तियों में निम्रलिखित भी सम्मिलित है-
(1) धारा 39 के अधीन किसी अन्य न्यायालय को निष्पादन के लिये डिक्री भेजने की शक्ति;
(2) धारा 50 के अधीन मृत निर्णीत-ऋणी के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन करने को शक्ति;
(3) डिक्री को कुर्क करने का आदेश देने की शक्ति :
परन्तु अंतरिती न्यायालय को निम्रलिखित शक्तियाँ प्राप्त नहीं हैं :
(1) डिक्री के अंतरिती की प्रेरणा से निष्पादन का आदेश देने की शक्ति;
(2) किसी फर्म के विरुद्ध पारित डिक्री की दशा में आदेश 21 के नियम 50 के उपनियम (1) के खण्ड (ख) या खण्ड (ग) में निर्दिष्ट व्यक्ति से भिन्न किसी व्यक्ति के विरुद्ध ऐसी डिक्री के निष्पादन की इजाजत देने की शक्ति।
अन्तरिती न्यायालय की अधिकारिता निष्पादन के लिये जो डिक्री अंतरिती न्यायालय को भेजी गई है उस पर अंतरिती न्यायालय की अधिकारिता तब तक जारी रहती है जब तक कि निष्पादन की कार्यवाही उससे वापस नहीं ले ली जाती, या अन्तरिती न्यायालय धारा 41 के अन्तर्गत प्रमाण-पत्र नहीं भेज देता।
डिक्री का अन्तरण करने वाले न्यायालय का नियंत्रण-मात्र इस नाते कि निष्पादन की कार्यवाही का अन्तरण अन्य न्यायालय को कर दिया गया है, अंतरण करने वाले न्यायालय का नियंत्रण निष्पादन की कार्यवाही पर से पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो जाता है। दूसरे शब्दों में अन्तरण करने वाले न्यायालय का नियंत्रण फिर भी बना रहता है। अंतरण करने वाले न्यायालय का डिक्री को निष्पादन करने का अधिकार बना रहता है सिवाय उस सीमा के जिसका अंतरण कर दिया गया है।
ऐसे न्यायालय को अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत स्थित सम्पत्ति पर अधिकारिता प्राप्त है। डिक्री के निष्पादन से सम्बन्धित आक्षेपों का या मियाद के प्रश्न से सम्बन्धित आक्षेपों का अवधारण ऐसा न्यायालय कर सकता है। अगर डिक्री के निष्पादन के लिये अन्तरण के पश्चात् निर्णीत-ऋणी की मृत्यु हो जाती है तो वह न्यायालय जिसने डिक्री पारित किया है, उपयुक्त न्यायालय है जो यह आदेश दे सकेगा कि डिक्री का निष्पादन विधिक प्रतिनिधियों के विरुद्ध जारी रखा जाना चाहिये।
यह मात्र एक प्रक्रिया सम्बन्धी प्रश्न है, और अगर अन्तरिती न्यायालय ऐसा आदेश पारित करता है तो वह सिर्फ एक अनियमितता होगी जिसका अभित्यजन किया जा सकता है।