सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 23: आदेश 6 नियम 8 एवं 9 के प्रावधान

Update: 2023-12-08 07:15 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 8 संविदा का प्रत्याख्यान अर्थात उसके नकारे जाने से संबंधित है एवं नियम 9 तात्विक कथनों से संबंधित है। इन दोनों नियमों में यह बताया गया है कि तात्विक कथन कितने करने होंगे एवं संविदा के वाद में नकारा कैसे जाएगा। इस आलेख के अंतर्गत संयुक्त रूप से इन दोनों नियमों पर चर्चा की जा रही है।

नियम-8 संविदा का प्रत्याख्यान - जहां किसी अभिवचन में किसी संविदा का अभिकथन है वहां विरोधी पक्षकार द्वारा किए गए उसके कोरे प्रत्याख्यान का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह केवल अभिव्यक्त संविदा का, जो अभिकथित की गई है, या उन तथ्यों की बातों का, जिनसे वह संविदा विवक्षित की जा सके, प्रत्याख्यान है, न कि ऐसी संविदा की वैधता या विधि की दृष्टि में पर्याप्तता का प्रत्याख्यान।

नियम 8 संविदा के प्रत्याख्यान का स्वरूप निर्धारित करता है। संविदा करने से इन्कार करना उसका प्रत्याख्यान होता है।

प्रत्याख्यान का प्रभाव संविदा के अभिकधन का विरोधी पक्षकार केवल प्रत्याख्यान (इन्कारी) करता है, से यह उस संविदा के केवल तथ्यों का ही प्रत्याख्यान माना जायेगा। यदि संविदा की वैधता या विधि के अनुसार पर्याप्तता को चुनौती देनी है, तो इसका अलग से स्पष्ट अभिवचन अतिरिक्त कथन के रूप में करना होगा।

एक मामले में भाटक (किराया) संदाय न करने के लिए किरायेदारी की बेदखली के वाद में, किरायेदार न्यायालय में किराया जमा करा देने का अभिकथन करता है, परन्तु वादपत्र में उस जमा (निक्षेप) की अवैधता का अभिवचन नहीं किया गया। अतः न्यायालय उस पर विचार नहीं कर सकता। संविदा की अवैधता प्रतिवादी संविदा (करार) की अवैधता का कथन करने का हक़दार नहीं था, क्योंकि उसने लिखित कथन में ऐसा अभिवचन नहीं किया था और इस सम्बन्ध में कोई विवाद्यक नहीं उठाया था।

ऐसा अभिवचन वाद संस्थित किये जाने के अनेक वर्ष बाद (इस मामले में 12 वर्ष पश्चात्) उठाने की अनुमति देना वादी के बहुत अधिक प्रतिकूल होगा। यदि ऐसा अभिवचन समुचित प्रक्रम पर किया जाता, तो वादी उचित उत्तर दे सकता था। वह अपने पक्ष कथन मूल करार के आधार पर करके या भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 65 व 70 के अधीन करके, अपने अभिवचनों में संशोधन कर लेता। यह अभिकथन तथ्य और विधि का मिश्रित अभिवचन है कि भारत शासन अधिनियम 1935 की धारा 175 (3) (भारत की संविधान, अनुच्छेद 299) के उपबंधों का अनुपालन नहीं किया गया था।

संविदा के अवैधता का विनिर्दिष्ट रूप से उसी प्रकार अभिवचन किया जाना चाहिए, जिस प्रकार संविदा से इन्कार करने का अभिवचन किया जाता है। आदेश 6 के नियम में यह उपक्ध है कि जहां किसी अभिवचन में कोई संविदा अभिकधित है, वहां अभिकथित प्रत्येक संविदा से या उन तथ्यों से मात्र इंकार जिनसे यह संविदा विवक्षित हो सकती है, ऐसी संविदा की विधि के अनुसार वैधता या पर्याप्तता से इंकार नहीं है। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 के नियम 2 में यह विहित है कि प्रतिवादी को अपने अभिवचन द्वारा वे सब बातें उठानी चाहिये, जिनसे यह दर्शित होता हो कि वाद चलने योग्य नहीं है या कि संव्यवहार विधि की दृष्टि से शून्य या शून्यकरणीय है।

क्या उक्त करार संविधान के अनुच्छेद 29 की शर्तों को पूरा करता है या नहीं? इस प्रश्न को पहली बार उच्चतम न्यायालय में उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। उच्च न्यायालय को प्रमाण पत्र देते समय ही इस प्रश्न पर विचार नहीं करना चाहिए था। राज्य के कृत्य (Act of State) का अभिवाक् (तर्क) विशेष रूप से प्रतिवाद-पत्र में उठाना आवश्यक है।

संविदा अधिनियम की धारा 10 का विशेष रूप से अभिवचन करना आवश्यक नहीं है, जबकि धारा 10 को जागृत (लागू) करने के लिये आके सभी लक्षण (तत्व) वादपत्र में पहले से ही थे।

एक मामले में वापस देने की प्रसंविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में, वादी ने वादपत्र में प्ररूप 47 तथा 48 के अनुसार संविदा के अपने भाग को पूरा करने के लिए तैयार व इच्छुक होने का वांछित कथन नहीं किया, जो कि ऐसी डिक्री प्राप्त करने के लिए आवश्यक था। अभिनिर्धारित किया गया वादी को कोई अनुतोष नहीं दिया जा सकता।

जब संविदा परिपूर्ण नहीं मछली पकड़ने की नाव के बीमा में अतिरिक्त कवच (कवरेज) की संविदा का प्रश्न उठा। प्रतिवादी ने रु. 150/- अपने कार्यालय में मानसून कवच के लिए प्राप्त किये और रसीद दी और एक माह का प्रीमियम लिया, तो अब प्रतिवादी का यह कथन कि कोई संविदा पूरी नहीं हुई, चल नहीं सकता।

न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता (धारा 20 सि. प्र. सं.) वाद वहां प्रस्तुत किया जा सकता है, जहां वाद-हेतुक (काज ऑफ एक्शन) या उसका कोई अंश उत्पत्र हुआ। संविदा-भंग के मामले में वाद वहां प्रस्तुत किया जा सकता है, जहां संविदा हुई अथवा जहां संविदाकृत कार्य किया जाना था।

अवैध संविदा के बारे में कोई अभिवचन नहीं किया गया, फिर भी न्यायालय उसकी न्यायिक अपेक्षा (ज्यूडिशियल नोटिस) ले सकता है। किसी वाद का निर्णय अभिवचनों के आधार पर ही किया जाना चाहिये। अतः जब वादी के स्वामित्व को लिखित-कथन में प्रश्नगत नहीं किया गया, तो निर्णय इसी आधार पर करना होगा कि वादी स्वामी (मकान मालिक) है।

संविदा भंग की नुकसानी के लिए वाद- वादी द्वारा संविदा के अपने भाग का पालन करने के लिए तैयार और रजामन्द होने संबंधी कथन -ऐसा प्रकथन है, जो विवक्षित है। परन्तु प्रतिवादी को इसे स्पष्ट रूप से अभिवचन में उठाना और विवादित करना होगा।

अवैध संविदा (करार)- भूमि को पिता के नाम इस शर्त पर अन्तरित कि वह अपनी विवाहिता पुत्री का बिना तलाक प्राप्त किए किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह कर दे। ऐसा अंतरण लोकनीति के विरुद्ध होने से लागू नहीं किया जा सकता। ऐसे अवैध करार का अभिवचन नहीं करने पर भी न्यायालय न्यायिक ध्यान दे सकता है।

अभिवचन की आवश्यकता मकान मालिक स्वीकार करता है कि- सम्पत्ति अंतरण अधिनियम द्वारा शासित पट्टे के निष्पादन के समय किरायेदार मासिक किरायेदार था, जो किराया कानून से शासित होता था। बाद में पट्टा लोकनीति के विरुद्ध था, यह निर्णय न्यायोचित है। ऐसे मामले में किरायेदार द्वारा अभिवचन नहीं करना महत्वपूर्ण नहीं है। स्वीकृति करने से दूसरे प्रश्न अपने आप विधि के बिन्दु (प्रश्न) के रूप में अनुसरण करेंगे।

नियम- 9 दस्तावेज के प्रभाव का कथन किया जाना- जहां किसी दस्तावेज की अन्तर्वस्तु तात्विक है यहां उसे सम्पूर्णतः या उसके किसी भाग को उपवर्णित किए बिना उसके प्रभाव को यथासंभव संक्षिप्त रूप में अभिवचन में कथित कर देना पर्याप्त होगा, जब तक कि दस्तावेज के या उसके किसी भाग के यथावत् शब्द ही तात्विक न हों।

किसी प्रलेख (दस्तावेज) के बारे में अभिवचन करना

जब किसी दस्तावेज की अन्तर्वस्तु (भीतरी सामग्री) तात्विक है, तो केवल उसके प्रभाव का संक्षिप्त कथन करना इस नियम के अनुसार पर्याप्त बताया गया है। जैसे—बिक्री के मामले में केवल यही कहना पर्याप्त होगा कि वादी ने विक्रय पत्र दिनांक.... के द्वारा उक्त सम्पत्ति प्रतिवादी से खरीदी। परन्तु केवल यह कहना पर्याप्त नहीं है कि- विक्रय पत्र के अधीन उक्त सम्पत्ति वादी की है। क्योंकि इससे उस दस्तावेज के प्रभाव का कथन नहीं होता। इसी प्रकार जब किसी दस्तावेज या उसके किसी भाग के शब्द ज्यों के त्यों ही तात्विक हो, (जैसे कि-अपमान के मामले में) तो उन शब्दों को अभिवचन में देना आवश्यक होगा।

अभिवचन का उद्देश्य पक्षकारों तथा न्यायालय के मार्गदर्शन के लिए, तात्विक विवादक तथ्यों को सुनिश्चित करना है। परिणामस्वरूप अभिवचनों का कठोरता से, संकीर्णता से या व्याकरण के शब्दार्थ से, अर्थान्वयन नहीं करना है। जहां एक प्रलेख का अभिवचन में प्रसंग दिया गया है और उस पर निर्भर किया गया है तो उस प्रलेख की अन्तर्वस्तु को उस अभिवचन का भाग माना जा सकता है। प्रक्रिया न्याय के हित का सापन होने के लिये वांछित है, न कि उसे शासित करने के लिए। न्यायालय पक्षकारों के बीच सारभूत न्याय के हित के संवर्द्धन में हितबद्ध है, इस प्रकार ऐसा कोई कारण नहीं है कि वे क्यों उन बातों से चर्मबाधित (अत्यधिक कठोर) हो जायें जो प्ररूप से सम्बन्धित हैं, न कि सारतत्व से (इस मामले में किरायेदार को दिए गए नोटिस का प्रश्न विचाराधीन था।

परन्तु नागपुर उच्च न्यायालय का मत इसके विपरीत है कि जहां एक प्रलेख का अभिवचन में प्रसंग दिया गया है, तो उसकी अर्न्तवस्तु को अभिवचन का भाग नहीं समझा जा सकता। सिविल प्रक्रिया संहिता, जो भारत में इस विषय पर विधि है; अभिवचनों के मामले में अत्यधिक कठोर है। किसी ऐसे तथ्य के समर्थन में साक्ष्य को नहीं देखा जा सकता, जिसे स्पष्ट रूप से या आवश्यक विवक्षा से अभिवचन में नहीं कहा गया है। आसाम उच्च न्यायालय ने भी प्रतिवाद पत्र में दिए गए आपत्ति पत्र (प्रोटेस्ट नोट) की अन्तर्वस्तु को "अभिवचनित नहीं" माना है।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने अभिवचन में नहीं दिए गए तथ्यों की पूर्ति के लिए पारा 80 सिविल प्रक्रिया संहिता के नोटिस को वाद पत्र के साथ पढ़ने से मना कर दिया है। सुझाव है कि-ऐसे दस्तावेज, जिनको अभिवचन का अंग बनाया जाना आवश्यक है, उनकी अन्तर्वस्तु को अभिवचन में सम्मिलित करना चाहिये। यदि दस्तावेज बड़ा हो, तो अभिवचन में उसका उल्लेख कर दस्तावेज को उसका उपाबन्ध बनाकर संलग्न कर देना चाहिए।

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