सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 22 वाद के पक्षकारों की मृत्यु, विवाह और दिवाला है। किसी वाद में पक्षकारों की मृत्यु हो जाने या उनका विवाह हो जाने या फिर उनके दिवाला हों जाने की परिस्थितियों में वाद में क्या परिणाम होगा यह इस आदेश में बताया गया है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 22 के नियम 11 के प्रावधानों पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-11 आदेश का अपीलों को लागू करना-इस आदेश को अपीलों को लागू करने में जहां तक हो सके, "वादी" शब्द के, अन्तर्गत अपीलार्थी, "प्रतिवादी" शब्द के अन्तर्गत प्रत्यर्थी और "वाद" शब्द के अन्तर्गत अपील समझी जाएगी।
नियम 11 के अनुसार, आदेश 22 के नियम अपीलों को भी, जहाँ तक हो सके लागू होंगे, जैसा बताया गया है।
आदेश 22 अपीलों पर लागू होता है-
एक मामले में एक भागीदार द्वारा भागीदारी के विघटन और लेखाओं के लिए वाद-अपील के लम्बित रहने के दौरान प्रत्यर्थियों में से एक की मृत्यु-मृत प्रत्यर्थी के विधिक वारिसों को निर्धारित समय के भीतर अभिलेख पर नहीं लाया जाना- अपील समाप्त हो जाएगी।
इस मामले में छपरा इलैक्ट्रिक सप्लाई वर्क्स नामक भागीदारी को क्रय करने के लिए और उसका कारबार चलाने के लिए कुछ भागीदार एक भागीदारी में सम्मिलित हुए। 22 मई, 1954 को एक भागीदार पारसनाथ प्रसाद ने भागीदारों के विघटन और लेखाओं के पेश किए जाने के लिए 1954 में बाद संख्या 68 फाइल किया। इस वाद में शेष भागीदार या उनके वारिस पक्षकार बनाए गए। भागीदारी में वादी का एक आने का हिस्सा था और प्रतिवादी 1 से 9 का 15 आने का हिस्सा था।
वाद संस्थित किए जाने पर प्रतिवादी संख्या 12 से 14 को (जिनमें इस मामले से सम्बन्धित प्रतिवादी संख्या 13 जगदीश नारायण भी सम्मिलित था) इस आधार पर पक्षकार बना लिया गया कि वादी पारसनाथ प्रसाद एक अविभक्त हिन्दू कुटुम्ब का कर्ता था और प्रतिवादी कुटुम्ब के सदस्य होने के नाते वादी के भागीदारी के एक आने के हिस्से में हकदार थे। उपर्युक्त वाद के लम्बित रहने के दौरान मुरली प्रसाद ने, जो 1954 के बाद संख्या 68 में प्रतिवादी संख्या 8 था, एक वाद (1956 का वाद संख्या 94) इस बात की घोषणा किए जाने के लिए फाइल किया कि वह उस विद्युत उपक्रम (अन्डरटेकिंग) का, जो भागीदारी नहीं है, एकमात्र अनुज्ञप्तिधारी (साइसेन्सी) और स्वामी है।
इस कारण उस उपक्रम के सरकार द्वारा अधिग्रहण किए जाने के परिणामस्वरूप सरकार जो धन देगी यह उस धन को प्राप्त करने के लिए हकदार है। इस वाद में उपक्रम के भागीदार भी पक्षकार थे। 1954 के बाद संख्या 68 में प्रतिवादी संख्या 12 से 14 को पक्षकार नहीं बनाया गया था। न्यायालय ने 1954 के वाद संख्या 68 में एक मूल डिक्री पारित की और वादी और प्रतिवादी 1 से 9 तथा 12 से 14 के शेयरों की घोषणा करते हुए भागीदारी विघटित कर दी। 1956 का वाद संख्या 94 नामंजूर कर दिया गया।
उन डिक्रियों के विरुद्ध मुरली प्रसाद ने पटना उच्च न्यायालय के समक्ष दो अपीलें फाइल की। उच्च न्यायालय ने भागीदारी के विघटन के लिए वाद (1954 का वाद संख्या 68) खारिज कर दिया और 1956 के बाद संख्या 94 में डिक्री कर दी। उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपीलों में 1954 के वाद संख्या 68 के 13वें प्रतिवादी को प्रत्यर्थी के तौर पर पक्षकार बनाया गया। अपीलों के लम्बित रहने के दौरान उसकी मृत्यु हो गई और विहित परिसीमा कालावधि के भीतर उसके विधिक प्रतिनिधियों के नाम अभिलेख पर नहीं लाए गए। प्रत्यर्थी मुरली प्रसाद की दलील यह थी कि मृत प्रत्यर्थी जगदीश नारायण के विरुद्ध अपीलों का उपशमन हो गया है और अपीलार्थी का यह कहना था कि अपीलों का उपशमन नहीं हुआ है। अपील नामंजूर करते हुए कहा गया-
सिविल प्रक्रिया के आदेश 22 के नियम 11 के साथ पठित नियम 4(3) में यह वर्णित है कि मृत प्रत्यर्थी के विरुद्ध अपील का उपशमन (समाप्ति) तब हो जाता है जब उसके वारिसों या विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिए आवेदन विधि द्वारा परिसीमित समय के भीतर नहीं किया जाता। उन परिस्थितियों का सर्वांगपूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता जिनमें ऐसे मामलों में अपील में कार्यवाही नहीं की जा सकती।
न्यायालय अपील में तब कार्यवाही नहीं करेंगे जब (क) अपील के सफल होने पर न्यायालय ऐसे विनिश्चय पर पहुंचे जो उस विनिश्चय के विरुद्ध है जो अपीलार्थी और मृत प्रत्यर्थी के बीच किया गया था और इसलिए इससे न्यायालय ऐसी डिक्री पारित करने की ओर अग्रसर होगा जो उस डिक्री के विरुद्ध होगी जो उसी विषय वस्तु की बाबत अपीलार्थी और मृत प्रत्यर्थी के बीच अन्तिम हो गई है; (ख) जब अपीलार्थी केवल उन्हीं प्रत्यर्थियों के विरुद्ध आवश्यक अनुतोष के लिए न्यायालय के समक्ष अनुयोजन नहीं कर सकता था जो तब भी न्यायालय के समक्ष थे; और (ग) जब उत्तरजीवी प्रत्यर्थियों के विरुद्ध डिक्री यदि अपील सफल हो जाती है, अप्रभावी होगी अर्थात् वह सफलतापूर्वक निष्पादित नहीं की जा सकती। ये तीनों कसौटियाँ एक साथ लागू रहने के लिए नहीं है। यदि इनमें से एक भी कसौटी पूरी हो जाती है तो न्यायालय अपील खारिज कर सकता है।
बहुत पहले 1887 में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि भागीदारों के लेखाओं के लिए ऐसा वाद, जिसमें आवश्यक प्रतिवादी-पक्षकार को सम्मिलित न किया गया हो, खारिज कर दिया जाएगा। लेखाओं के लिए वाद फर्म के केवल कुछ भागीदारों के बीच नहीं चलाया जा सकता किन्तु प्रत्येक भागीदार को पक्षकार बनाया जाना चाहिये। यह बात ऐसी अपील को लागू होती है, जो भागीदार के विघटन और लेखाओं के वाद से उद्भूत होती है। भागीदारों में से एक भागीदार के विधिक प्रतिनिधियों के अभिलेख पर न होने पर न्यायालय को कोई विकल्प नहीं है और अपीलें पूर्णतया निरर्थक हैं।
लापरवाही का दोषी नहीं-
विचारण-न्यायालय ने शाश्वत-व्यादेश के एक वाद को खारिज कर दिया, जिसे अपीलीय न्यायालय ने पलटकर वाद को डिक्रीत कर दिया। द्वितीय-अपील के लम्बित रहने के दौरान विभिन्न दिनांकों को प्रत्यर्थियों में से तीन की मृत्यु हो गई। इनकी मृत्यु की सूचना अपीलार्थी के काउन्सेल को नहीं दी गई।
लगभग छः वर्ष बाद प्रतिवादी अपीलार्थी ने विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित करने और अपील के उपशमन को अपास्त करने के लिए उच्च न्यायालय में आवेदन पेश किया, जिसे उच्च न्यायालय ने नामंजूर कर दिया और अपील को उपशमन के कारण खारिज कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं दिया गया है कि अपीलार्थी किसी प्रकार की लापरवाही (लेचेज) का दोषी था या उसने प्रतिस्थापन के लिए आवेदन करने में जानबूझ कर कोई देरी की।
अपील का उपशमन नहीं - प्रथम प्रत्यर्थी ने प्रत्यर्थी संख्या 2 से 4 के विरुद्ध डिक्री प्राप्त की। प्रार्थी (अपीलार्थी) निर्णीत-ऋणी की प्रतिभूति का वारिस है और डिक्री ऋण की तुष्टि करने के अपने दायित्व का विरोध कर रहा है। उच्च न्यायालय के समक्ष अपनी अपील में उसने उन निर्णीत-ऋणियों के विरुद्ध कोई अनुतोष (रिलीफ) की मांग नहीं की जो अपने दायित्व को अलग से चुनौती दे रहे थे। अपील के लम्बित रहते समय के भीतर न्यायालय के यह ध्यान में लाया गया कि-निर्णीत ऋणियों में से एक की मृत्यु हो गई है।
अपीलार्थी ने प्रतिभूति के अन्य विधिक प्रतिनिधियों के साथ मिलकर उस मृत निर्णीत ऋणी के वारिसों और विधिक प्रतिनिधियों के प्रत्यास्थान के लिए आवेदन प्रस्तुत किया। परन्तु डिक्रीदार ने तर्क दिया कि यह आवेदन समय के भीतर पेश नहीं किए जाने के कारण अपील का उपशमन हो गया है। उच्च न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार कर लिया, परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि- इस मामले में मृत-निर्णीत ऋणी के वारिसों को प्रत्यास्थापन आवश्यक नहीं था, क्योंकि अपीलार्थी उस मूल निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध कोई अनुतोष नहीं चाह रहा था, जो कि एक प्रारूपिक-प्रत्यर्थी था। अतः मृतक निर्णीत ऋणी को समय के भीतर प्रत्यास्थापित करने में अपीलार्थी के असफल रहने से अपील का उपशमन नहीं हुआ।
मृत व्यक्ति के विरुद्ध अपील- एकमात्र अपीलार्थी की मृत्यु की जानकारी न होने पर अपील का निपटारा परिसीमा कालावधि के समाप्त होने के पहले किया गया। परिसीमा कालावधि समाप्त होने के पहले सुनवाई करने की न्यायालय को अधिकारिता नहीं है। केवल इस कारण से कि अपील में सुनवाई हो चुकी है, वारिसों का अपील में प्रतिस्थापित किए जाने का और आगे कार्यवाही करने का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता है।
जब उपशमन नहीं होगा - एक द्वितीय अपील के दौरान प्रत्यर्थी संख्या 3 की मृत्यु हो गई और विधिक प्रतिनिधियों के प्रत्यास्थापन के लिए आवेदन मृत्यु से 90 दिन बाद पर आवेदन के लिए विहित दिनांक से 60 दिन बाद प्रस्तुत किया गया, जिसे नामंजूर कर दिया गया। अपीलार्थी ने इस आदेश को चुनौती नहीं दी और उच्च न्यायालय ने अपील को उपशमित (अबेटेड) कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने अपील में संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन सारवान् न्याय करने के लिए ऐसी प्रक्रियात्मक तकनीकियों को बाधा नहीं माना और अपील को प्रत्यास्थापन के लिए आवेदन को नामंजूर करने के विरुद्ध भी अपील मानकर स्वीकार कर लिया। इस मामले में कुछ दिनों की देरी थी, पर उसका संतोषजनक स्पष्टीकरण दिया गया था। एक बार जय प्रत्यास्थापन स्वीकार कर लिया गया, तो दूसरा आदेश पुनर्जीवित नहीं हो सकता और अपील का उपशमन नहीं होगा।
मृत्यु का समाचार - एक मामले में द्वितीय अपील के दौरान एक प्रत्यर्थी की मृत्यु हो गई। फिर एक दूसरे प्रत्यर्थी की भी मृत्यु हो गई। इस पर अपीलार्थी ने दूसरे प्रत्यर्थी के विधिक-प्रतिनिधियों के नामों का पता लगाने की कोशिश की, तब उसे पहले मृत-प्रत्यर्थी की मृत्यु का पता चला। इस पर आदेश 22 के नियम 1(3) के अधीन उपशमन को (यदि कोई हो, तो) अपास्त करने, देरी माफ करने और पहले मरने वाले प्रत्यर्थी के विधिक प्रतिनिधियों को प्रत्यास्थापित करने के लिए आवेदन फाइल किया गया।
उच्च न्यायालय को देरी से आवेदन करने के लिए दिये गये कारणों पर संतोष नहीं हो सका और प्रत्यर्थियों के तर्कों को स्वीकार कर लिया गया कि मृतक प्रत्यर्थी एक प्रसिद्ध नागरिक था और उसकी मृत्यु का समाचार भी समाचारपत्रों में छपा था। प्रत्यर्थी के मरने के स्थान पर अपीलार्थी बार-बार आता जाता रहता है। अतः यह मान लिया जाय कि अपीलार्थी को उक्त प्रत्यर्थी की मृत्यु का पता था। इस पर उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी को जानकारी होना मानकर यह निश्चय किया कि- अपीलार्थी देरी की माफी के लिए पर्याप्त कारण दर्शित करने में असफल रहा और देरी की माफी के लिए इस प्रकार कोई मामला नहीं बन सका ।
उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में अपील स्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि वादकार (लिटिगेन्ट्स) के लिए यह धारणा नहीं बनाई जा सकती कि वह समाचार पत्र पढकर प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों के मृत्यु संबंधी कालम से प्रमुख नागरिकों की मृत्यु के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
यह एक स्पष्ट व सीधासादा मामला था, फिर भी उच्च न्यायालय ने ऐसा विचित्र निर्णय दिया जिसे उच्चतम न्यायालय को सही करना पड़ा।
विभाजन के वाद में डिक्री का पुनरीक्षण नहीं - पक्षकारों के बीच इस विवाद का निपटारा कि एक प्रतिवादी की मृत्यु पर उसके भाग को प्राप्त करने के लिए कौन हकदार है, यह एक प्रारंभिक डिक्री है, जो अपील योग्य है। अतः उसका पुनरीक्षण चलने योग्य नहीं है।
एक मामले में प्रतिवादी संख्या 6, 10 और 11 की मृत्यु हो जाने के पश्चात् प्रतिस्थापन आवेदन के फाइल न किये जाने से द्वितीय अपील का उपशमन नहीं हुआ, क्योंकि वे रीतितः पक्षकार थे।
प्रति अपील में पक्षकारों का प्रतिस्थापन-प्रति अपील का उपशमन - प्रतिकर (मुआवजा) संबंधी एक वाद में निचले न्यायालय की डिक्री के विरुद्ध राज्य सरकार तथा दावेदारों द्वारा प्रति अपीलें की गई। दावेदारों में से एक की मृत्यु हो गई। दावेदारों द्वारा अपने अपील अभिलेख में मृतक दावेदार के विधिक प्रतिनिधियों को लाया गया, परन्तु ऐसा करने में राज्य सरकार द्वारा व्यतिक्रम किया गया। दावेदारों ने इस तथ्य के बारे में कोई आक्षेप नहीं किया और कार्यवाहियों को चलने दिया।
उच्च न्यायालय में अपील खारिज किए जाने पर उच्चतम न्यायालय में यह अभिवचन किया कि चूंकि राज्य सरकार अपनी प्रति अपील में मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को उसकी (दावेदार की) मृत्यु के 90 दिनों के भीतर अभिलेख पर लाने में असफल रही, अतः प्रति अपील का स्वतः उपशमन हो गया। उक्त अभिवाकू (कथन) ग्राह्य नहीं है, क्योंकि विधिक प्रतिनिधियों ने उक्त तथ्य पर प्रत्याक्षेप नहीं किया था। चूंकि प्रत्याक्षेप और प्रति अपील में कोई अन्तर नहीं है। अतः उसका उपशमन नहीं हो सकता।