क्या सांसद/विधायक वकालत कर सकते हैं, जानिए अधिवक्ता अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट का विचार
वकालत पेशे से जुड़ा हर व्यक्ति यह मानता और महसूस करता है कि वकील, मुखर प्रकृति के होते हैं और वे अपनी तार्किक सोच के लिए दुनियाभर में जाने जाते हैं। कानून की शिक्षा ग्रहण करने के पश्च्यात, उन्हें कानून को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।
अंतत: देश को कानून के शासन के अनुसार ही चलना होता है। यही कारण है कि हमारे संसद में और विभिन्न राज्यों के विधायी सदनों में हमे तमाम कानून के जानकार एवं वकील, सदस्य के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं, कानून बनाना विधायिका का कार्य है और इसमें वकीलों का सीधे तौर पर तो कोई हस्तक्षेप नहीं होता है, लेकिन हाँ, यदि हम संसद/विधानसभाओं/विधानपरिषदों में मौजूद तमाम सदस्यों को देखें तो हम यह पाएंगे कि उनमे से कई सदस्यगण या तो वकालत कर चुके हुए होते हैं या उन्होंने कानून की शिक्षा ले रखी होती है। आजादी से लेकर अबतक, संसद और प्रत्येक राज्य के विधायी सदनों के सदस्यों के शैक्षिक एवं उनके पेशे को देखकर यह बात साबित भी की जा सकती है।
हम यह भी जानते हैं कि जब भी कोई कानून, विधायिका द्वारा बनाया जाता है, तो उससे पहले जब उसकी ड्राफ्टिंग होती है या उसपर आंतरिक चर्चा होती है तो उसमे भी कानून के जानकर/वकीलों द्वारा (या सदन के सदस्यों के रूप में, कमिटी सदस्य के रूप में या अन्यथा) एक अहम् भूमिका निभाई जाती है एवं उनकी भी राय ली जाती है जिससे वह कानून बेहतर से बेहतर हो सके।
यहाँ यह सवाल अवश्य उठता है कि जब कानून बनाने की प्रक्रिया एवं उसे पारित करने में वकालत पेशे से जुड़े व्यक्तियों की भी एक अहम् भूमिका होती है तो क्या हमारे संसद एवं विधानसभा/विधानपरिषद् सदस्यों को, किसी सदन का हिस्सा होते हुए वकालत करने की अनुमति दी जानी चाहिए?
यह सवाल इसलिए बेहद अहम् है क्योंकि जहाँ एक ओर जनप्रतिनिधि होने के नाते एक व्यक्ति को सरकारी फण्ड से वेतन/भत्ता प्राप्त होता है और उसका ज्यादातर समय जनप्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते हुए बीतता है, वहीँ दूसरी ओर अधिवक्ता अधिनियम, 1961, एक वकील से यह अपेक्षा रखता है कि वह इस पेशे के प्रति पूर्णकालिक संलग्नता बनाये रखे और जब वो कहीं और से वेतन प्राप्त कर रहा हो तो वह वकील के तौर पर अदालत में प्रैक्टिस न करे। इस लेख में हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्या एक सांसद या विधायक को वकालत करने की अनुमति है।
वकालत पेशा: एक पूर्णकालिक गतिविधि?
जैसा कि हम अनुभव करते हैं, वकालत का पेशा एक पूर्णकालिक गतिविधि है। यह जगजाहिर है कि एक वकील को हर अगले दिन, अदालत में बहस के लिए अपने मामलों को तैयार करने के लिए हर रोज काफी मेहनत करनी पड़ती है। जब वकील अदालतों में अपने मुवक्किल के लिए पेश होते हैं तो यह प्रतिदिन किसी परीक्षा से गुजरने जैसा होता है।
अदालत में घंटों की मेहनत के बाद वकीलों को अपने या अपने सीनियर के चैंबर में भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। वकील को अपने क्लाइंट की दिक्कतों/समस्याओं को सुनना और सुलझाना होता है, उसकी काउन्सलिंग करनी पड़ती है और नए मुवक्किलों की परामर्श के लिए भी स्वयं उपलब्ध होना पड़ता है।
एक वकील के रूप में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को जारी रखने एवं अपने क्लाइंट के हितों को सर्वोपरि रखने के लिए वकीलों को अपने पेशे पर पूरा ध्यान और समय देने की आवश्यकता होती है। अपने कानूनी पेशे के अलावा अन्य महवपूर्ण चीज़ों पर ध्यान देने से निश्चित रूप से एक वकील की पेशेवर क्षमता और विशेषज्ञता पर प्रभाव पड़ता है।
बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स क्या कहता है?
यह निर्विवाद है कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिवक्ताओं के नामांकन और अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण के सम्बन्ध में नियमों और शर्तों को विनियमित करने का कार्य और कर्तव्य दिया गया है। गौरतलब है कि वकीलों के लिए वकील के तौर पर बने रहने के लिए जिन शर्तों/प्रतिबंधों को लागू किया जाना है, वे उचित होने चाहिए।
जैसा कि हम जानते हैं, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार भी, किसी भी व्यक्ति को किसी भी पेशे को अपनाने के लिए दिया गया अधिकार, अपने आप में एक पूर्ण अधिकार नहीं होता है और इस अधिकार के उपयोग पर उचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।
हालाँकि यह जरुरी है कि यह प्रतिबंध, स्पष्ट रूप से या तो अधिवक्ता अधिनियम, 1961 या उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के तहत होने चाहिए (एवं ये अनुचित नहीं होने चाहिए)। उक्त अधिनियम का अध्याय IV, एक व्यक्ति के एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के अधिकार से संबंधित है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49, उप-धारा (1) (ए) से (जे) में निर्दिष्ट मामलों के तहत अपने कार्यों के निर्वहन के लिए नियम बनाने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिकार देती है।
बार काउंसिल, पहले ही उक्त अधिनियम की धारा 16 (3) और 49 (1) (जी) के तहत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, वकीलों द्वारा अन्य व्यवसाय/पेशे को अपनाने पर प्रतिबंध के बारे में नियम तैयार कर चुकी है। उक्त नियमों के भाग VI में सेक्शन VII, हमारे आज के लेख के विषय से संबंधित है, जिसका नियम 49 यह कहता है कि, कोई एडवोकेट, अगर वह प्रैक्टिस कर रहा है, तो उसको उस दौरान किसी लाभ के पद (वेतन प्राप्त होने वाली नौकरी) पर आसीन नहीं होना चाहिए।
रूल 49 - एक अधिवक्ता किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं होगा, इसलिए जब तक वह इस तरह के किसी भी रोजगार को जारी रखता है, और इस तरह के रोजगार लेने पर, वह व्यक्ति/अधिवक्ता उस बार काउंसिल को यह तथ्य बताएगा जिसके रोल के अंतर्गत उसका नाम मौजूद है और वह अधिवक्ता के रूप में अभ्यास करना तबतक बंद कर देगा, जब तक कि वह ऐसे रोजगार में रहना जारी रखता है।
दरअसल यह नियम, वकालत पेशे के प्रति वकीलों का सम्पूर्ण ध्यान एवं समर्पण सुनिश्चित करने और अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए लागू किया गया है, ताकि वकील, अदालत के एक अधिकारी के रूप में अपनी भूमिका को असल मायनों में पूरा कर सकें और न्याय के प्रशासन में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकें। और इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि यह नियम, किसी भी तरह से मनमाना है या यह वकीलों पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है।
डॉक्टर हनिराज एल. चुलानी बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा 1996 SCC (3) 342 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि एक व्यक्ति, जो एक वकील होने के योग्य है, उसे वकील के रूप में प्रैक्टिस करने की इजाजत उन मामलों में नहीं दी जा सकती जहाँ वह पूर्णकालिक या अंशकालिक सेवा या रोजगार में है।
हालांकि, बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स का नियम 49 वहां लागू होता है, जहां एक वकील, किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी होता है। स्पष्ट रूप से, विधायकों या सांसदों को पूर्ण वेतनभोगी कर्मचारियों की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। हम इस बात को लेख में आगे समझेंगे।
सांसदों एवं विधायकों के कार्य की प्रकृति
सांसदों और विधायकों का कार्य अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण होता है; वे संसद और विधानसभाओं/विधानपरिषदों के पूर्णकालिक होते सदस्य हैं। उन्हें सदन की कार्यवाही में भाग लेना होता है, अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों से मिलना होता है, और लोगों के मुद्दों से जूझना पड़ता है।
उनके काम को सुविधाजनक बनाने के लिए, उन्हें एक बंगला और एक कार, एक कार्यालय और वेतन भी दिया जाता है जिससे वे अपना कार्य बेहद सुचारू ढंग से कर सकें।
जैसा कि हमने जाना, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम 49 में यह कहा गया है कि कोई भी पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी, चाहे वह निगम का हो, निजी फर्म का हो या सरकार का हो, कानून की अदालत के समक्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर सकता है।
कोई भी लोक सेवक, किसी अन्य पेशे/व्यवसाय में संलग्न नहीं हो सकता है और निश्चित रूप से वह लोक सेवा में रहते हुए वकील के रूप में अपनी सेवाएं नहीं दे सकता है।
एम. करुणानिधि बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1979) 3 SCC 431 के मामले में 5 न्यायाधीशों वाली बेंच ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि सांसद और विधायक, जनता के सेवक हैं (हालांकि नियोक्ता-कर्मचारी संबंध उनके लिए लागू नहीं होंगे)। दरअसल श्री करुणानिधि ने उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोप से सम्बंधित इस मामले में यह तर्क दिया था कि वह एक लोक सेवक नहीं थे।
सांसदों/विधायकों/एमएलसी की स्थिति, सदन (संसद/राज्य विधायी सदन) के सदस्य की होती है। सिर्फ यह तथ्य कि वे The Salary, Allowances and Pension of Members of Parliament Act, 1954 के तहत या उक्त अधिनियम के तहत बनाए गए संबंधित नियमों के तहत, अलग-अलग भत्तों के तहत वेतन प्राप्त करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार और विधायकों/सांसदों के बीच नियोक्ता और कर्मचारी (Employer-Employee) के संबंध का निर्माण हो जाता है।
भले ही उनके द्वारा प्राप्त भुगतान को वेतन का नाम दिया जाता हो। वास्तव में, विधायकों/सांसदों को लोक सेवक माना जाता है, लेकिन उनकी स्थिति सुई जेनेरिस है और निश्चित रूप से वे किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या इस तरह के कंसर्न के पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी में से एक नहीं बन जाते है (इसलिए बार काउंसिल रूल्स का रूल 49 उनपर लागू नहीं हो सकता है)।
इसके अलावा सदन के अध्यक्ष द्वारा विधायकों/सांसदों के खिलाफ अनुशासनात्मक या विशेषाधिकार कार्रवाई शुरू की जा सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में माना जा सकता है।
क्या विधायक एवं सांसद को वकालत करने की है अनुमति?
हालाँकि, इस सवाल का जवाब शायद आपको अबतक मिल गया होगा, लेकिन फिर भी यदि एक वाक्य में कहना हो तो हम यह कह सकते हैं कि सांसदों एवं विधायकों को वकालत करने से रोकने के सम्बन्ध में कोई भी नियम मौजूद नहीं है। अर्थात, वे बिना रोक-टोक वकालत कर सकते हैं।
इसके अलावा वर्ष 2018 में अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ [WRIT PETITION (CIVIL) NO।95 OF 2018] के मामले में अदालत ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अंतर्गत ऐसा कोई सीधा प्रावधान/नियम नहीं है जो यह सुझाव दे सके कि चुने गए जनप्रतिनिधियों, सांसदों/विधायकों/ एमएलसी पर एक वकील बने रहने के सम्बन्ध में कोई प्रतिबंध लगाया गया है।
अदालत ने यह भी कहा कि जब ऐसा कोई नियम/प्रावधान अधिनियम में मौजूद नहीं है तो न्यायालय द्वारा, जनप्रतिनिधियों को उस समय के दौरान जब वे सांसद/विधायक/एमएलसी हैं, अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने से वंचित नहीं किया जा सकता है।
जैसा कि डॉ. हनिराज एल चुलानी के मामले में अदालत द्वारा कहा गया है, यह बार काउंसिल ऑफ इंडिया का कर्त्तव्य है कि वे अपनी नियमावली के अंतर्गत उचित प्रतिबंधों को जगह दें। आज तक, चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर वकालते प्रैक्टिस करने पर प्रतिबंधित लगाने के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया है, इसलिए उनपर अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने पर कोई रोक नहीं है। यह हम यह भी कह सकते हैं कि हमारी संसद एवं राज्यों के विधायी सदन, विभिन्न प्रतिभाओं, विभिन्न अनुभवों और विभिन्न व्यावसायिक कौशल द्वारा समृद्ध होने के हकदार हैं।