क्या यौन अपराधों में सजा कम करने के लिए समझौते को मान्यता दी जा सकती है?
यौन अपराधों में समझौते का मूलभूत प्रश्न (Fundamental Issue of Compromise)
State of Madhya Pradesh v. Madanlal (2015) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि क्या यौन अपराधों में सजा कम करने के लिए समझौते (Compromise) को मान्यता दी जा सकती है।
इस निर्णय में, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यौन अपराध (Sexual Offense), जो किसी महिला की गरिमा (Dignity) और शारीरिक स्वतंत्रता (Bodily Autonomy) का उल्लंघन करता है, में समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने यह फैसला दिया कि ऐसा करना न केवल पीड़िता के अधिकारों (Victim's Rights) का हनन है बल्कि सार्वजनिक हित (Public Interest) के खिलाफ भी है।
मुख्य प्रावधानों पर कोर्ट का विचार (Key Provisions Considered by the Court)
इस मामले में, भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 376 और धारा 354 पर विचार किया गया। धारा 376, जो बलात्कार (Rape) से संबंधित है, के अंतर्गत कठोर दंड का प्रावधान है, जिसमें अपराध की गंभीरता को देखते हुए आजीवन कारावास भी हो सकता है।
दूसरी ओर, धारा 354 का उपयोग तब होता है जब बलात्कार का अपराध सिद्ध न हो पाए, लेकिन महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने का कृत्य सिद्ध हो। इस धारा के तहत सजा अपेक्षाकृत कम होती है।
इस मामले में, न्यायालय ने विचार किया कि क्या साक्ष्य (Evidence) इस मामले में धारा 376 के तहत दंडनीय अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त थे या आरोपी को धारा 354 के तहत दंडित करना चाहिए। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी सवाल उठाया कि क्या ऐसे मामलों में समझौता करना न्यायोचित है।
यौन अपराधों में समझौता: कोर्ट का तर्क (Analysis of Compromise in Sexual Offenses: Court's Rationale)
कोर्ट ने कहा कि यौन अपराध केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक विवाद नहीं होते, बल्कि ये समाज के खिलाफ अपराध माने जाते हैं।
कोर्ट ने कई पुराने मामलों का उल्लेख करते हुए यह रुख अपनाया कि यौन अपराधों में किसी प्रकार का समझौता, चाहे वह पीड़िता (Victim) और आरोपी के बीच सहमति से हो, अस्वीकार्य है।
इस मामले में कोर्ट ने विशेष रूप से Shimbhu v. State of Haryana (2014) का संदर्भ दिया, जिसमें कहा गया था कि समझौते का प्रस्ताव देना या इसे मान्यता देना पीड़िता के अधिकारों और न्याय के साथ अन्याय करने के समान है।
Shimbhu v. State of Haryana मामले में कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि बलात्कार जैसे अपराधों में किसी प्रकार के समझौते का प्रस्ताव भी अस्वीकार्य है, क्योंकि ऐसे अपराध केवल पीड़िता के खिलाफ नहीं होते, बल्कि ये समाज और महिलाओं की गरिमा के खिलाफ भी होते हैं।
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यौन अपराधों में समझौता केवल पीड़िता पर दबाव बढ़ाने का एक माध्यम हो सकता है और न्यायपालिका (Judiciary) को किसी भी प्रकार के बाहरी दबाव से दूर रहना चाहिए।
अन्य प्रासंगिक निर्णयों का अध्ययन (Study of Other Relevant Judgments)
Baldev Singh v. State of Punjab (2011)
इस मामले में Baldev Singh v. State of Punjab में अदालत ने विशेष परिस्थितियों के चलते समझौते को मान्यता दी थी, लेकिन कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह एक अपवाद (Exception) था और इसे आम निर्णय की तरह नहीं देखा जा सकता।
इस मामले में, आरोपी और पीड़िता ने समझौता कर लिया था और दोनों की शादी हो चुकी थी, इसलिए अदालत ने सजा में कुछ रियायत दी थी। लेकिन कोर्ट ने यह भी बताया कि ऐसे मामलों को सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता, और यह विशिष्ट परिस्थितियों में ही मान्य है।
कोर्ट ने इस फैसले का उल्लेख कर यह स्पष्ट किया कि ऐसे निर्णय केवल अपवाद के रूप में लिए जा सकते हैं और इसे एक मिसाल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
Ravindra v. State of Madhya Pradesh (2015)
इसी प्रकार, Ravindra v. State of Madhya Pradesh मामले में कोर्ट ने समझौते को ध्यान में रखते हुए सजा में कुछ राहत दी थी, लेकिन यह भी एक पुराना मामला था और दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हो चुका था।
लेकिन कोर्ट ने यह भी ध्यान दिलाया कि ऐसा निर्णय केवल असाधारण परिस्थितियों में लिया गया था और इसे एक साधारण प्रक्रिया नहीं माना जा सकता।
गरिमा को प्राथमिकता देना: न्यायपालिका की जिम्मेदारी (Upholding Dignity Over Leniency: Judicial Responsibility)
कोर्ट ने यह भी कहा कि यौन अपराध महिला की गरिमा (Dignity) और आत्म-सम्मान (Self-Respect) के खिलाफ हैं, और न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह इस अधिकार की रक्षा करे।
State of Madhya Pradesh v. Madanlal के मामले में, कोर्ट ने इस बात पर बल दिया कि ऐसे मामलों में समझौता करने का मतलब समाज में महिलाओं के अधिकारों को कमजोर करना है।
कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीश का कर्तव्य है कि वह न्याय को निष्पक्षता (Objectivity) और निष्प्रभाविता (Impartiality) के साथ देखे, ताकि किसी भी प्रकार का बाहरी दबाव और पूर्वाग्रह न्याय में हस्तक्षेप न करे।
कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसी स्थिति में न्यायाधीशों को सुनिश्चित करना चाहिए कि न्याय न केवल निष्पक्ष हो बल्कि उसे निष्पक्षता के साथ भी दिखना चाहिए।
कोर्ट ने Amar Singh v. Balwinder Singh मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि न्यायाधीश को सभी साक्ष्यों का संपूर्ण और निष्पक्ष तरीके से परीक्षण करना चाहिए और पक्षपात (Bias) से मुक्त रहना चाहिए। कोर्ट ने इस बात पर बल दिया कि न्याय के नाम पर किसी भी प्रकार की कमजोरी या दबाव को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
यौन अपराधों पर सख्त रुख
इस निर्णय के माध्यम से कोर्ट ने यह संदेश दिया कि यौन अपराधों के मामलों में समझौते की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में अपराध की गंभीरता (Severity of the Offense) किसी भी प्रकार के निजी समझौते से अधिक महत्वपूर्ण होती है।
State of Madhya Pradesh v. Madanlal (2015) में न्यायालय का यह निर्णय इस बात पर बल देता है कि महिला की गरिमा का संरक्षण (Protection of Dignity) न्यायपालिका का कर्तव्य है और इस पर किसी भी प्रकार का समझौता करना गलत है।
अदालत ने इस बात को रेखांकित किया कि किसी भी प्रकार का समझौता समाज के मूल्यों (Societal Values) और पीड़िता के अधिकारों के खिलाफ है।