क्या बैंक किसी Borrower को Fraud घोषित करने से पहले उसका पक्ष सुने बिना निर्णय ले सकते हैं?

Update: 2025-04-26 11:09 GMT
क्या बैंक किसी Borrower को Fraud घोषित करने से पहले उसका पक्ष सुने बिना निर्णय ले सकते हैं?

State Bank of India v. Rajesh Agarwal नामक ऐतिहासिक निर्णय में, जो 27 मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाया गया, एक महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न पर विचार किया गया कि क्या किसी Borrower (उधारकर्ता) को Fraudulent (धोखाधड़ी करने वाला) घोषित करने से पहले उसे सुनवाई का अवसर (Right to be Heard) देना ज़रूरी है या नहीं।

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि Reserve Bank of India (RBI) की Master Directions on Frauds, 2016 को संविधान की मूल भावना और न्यायसंगत प्रक्रिया (Fair Procedure) के अनुसार पढ़ा जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि Borrower को “Fraudulent” घोषित करना गंभीर नागरिक परिणाम (Civil Consequences) उत्पन्न करता है, इसलिए यह आवश्यक है कि Audi Alteram Partem (दूसरे पक्ष को सुनने का सिद्धांत) का पालन किया जाए और Borrower को अपना पक्ष रखने का उचित मौका दिया जाए।

RBI की Master Directions और बैंकिंग धोखाधड़ी की प्रक्रिया (Legal Framework Governing Bank Fraud Classification)

RBI ने Banking Regulation Act, 1949 की Section 35A के तहत Master Directions on Frauds जारी किए हैं। इसका उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली में धोखाधड़ी की शीघ्र पहचान, रिपोर्टिंग और रोकथाम सुनिश्चित करना है। Chapter VIII विशेष रूप से Loan Frauds से संबंधित है, जिसमें Early Warning Signals (पूर्व चेतावनी संकेत), Red-Flagged Account (संदिग्ध खाता), Forensic Audit (वित्तीय जांच) और अंतिम रूप से खाते को Fraudulent घोषित करने की प्रक्रिया शामिल है।

Master Directions के अनुसार, एक बार खाता Fraud घोषित हो जाने पर उस Borrower को कम से कम पाँच वर्षों तक किसी भी Financial Institution से ऋण नहीं मिल सकता (Clause 8.12)। हालांकि, इन निर्देशों में Third Party को तो सुनवाई का अधिकार मिलता है, परंतु Borrower को सुनवाई का कोई स्पष्ट अधिकार नहीं दिया गया है।

Natural Justice और Audi Alteram Partem का सिद्धांत (The Principle of Audi Alteram Partem in Administrative Law)

Audi Alteram Partem का मतलब होता है – “दूसरे पक्ष को भी सुना जाए।” यह Natural Justice (प्राकृतिक न्याय) का एक मूल सिद्धांत है, जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को बिना सुने दंडित नहीं किया जा सकता। यह सिद्धांत केवल न्यायालयों (Courts) तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रशासनिक निर्णयों (Administrative Decisions) में भी लागू होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि Borrower को Fraudulent घोषित करना उसके Fundamental Rights (मौलिक अधिकारों) को प्रभावित करता है, जैसे कि Reputation (प्रतिष्ठा), Livelihood (रोज़गार) और Credit Access (ऋण प्राप्ति)। Court ने Maneka Gandhi v. Union of India, Mohinder Singh Gill v. Chief Election Commissioner, और D.K. Yadav v. JMA Industries जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि जब किसी निर्णय के कारण व्यक्ति के अधिकार प्रभावित हों, तब Natural Justice अनिवार्य हो जाता है।

Willful Defaulters और Fraudulent Borrowers के साथ भेदभाव (Contrasting Treatment of Willful Defaulters and Fraudulent Borrowers)

Court ने यह भी इंगित किया कि जिन Borrowers को Willful Defaulter घोषित किया जाता है, उन्हें Show Cause Notice (कारण बताओ नोटिस), जवाब देने का अवसर और Reasoned Order (युक्तियुक्त आदेश) दिया जाता है, जैसा कि State Bank of India v. Jah Developers में स्पष्ट किया गया है।

जबकि Fraudulent Borrowers को ऐसा कोई Procedural Protection (प्रक्रियात्मक सुरक्षा) नहीं दी जाती, जो असमान व्यवहार (Discriminatory Treatment) है, जबकि दोनों ही स्थितियों में परिणाम लगभग समान होते हैं – जैसे कि बैंकिंग प्रणाली से बहिष्करण और छवि को हानि।

Natural Justice का मौन रूप से बहिष्कार नहीं किया जा सकता (No Implied Exclusion of Natural Justice)

RBI और बैंकों का तर्क था कि धोखाधड़ी की रिपोर्टिंग में जल्दी आवश्यक होती है, इसलिए पूर्व सुनवाई नहीं दी जा सकती। लेकिन कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया और Swadeshi Cotton Mills v. Union of India और Mangilal v. State of MP जैसे फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि जब तक किसी कानून या निर्देश में Natural Justice को स्पष्ट रूप से हटाया न गया हो, तब तक इसे मौन रूप से नकारा नहीं जा सकता।

Court ने यह स्पष्ट किया कि Fraud घोषित करने का निर्णय एक ऐसा प्रशासनिक कार्य है जो Borrower के अधिकारों को सीधे प्रभावित करता है, इसलिए इस प्रक्रिया में न्याय की बुनियादी बातें (Basic Fairness) शामिल होनी चाहिए।

Master Directions पर Audi Alteram Partem का अनुप्रयोग (Application of Audi Alteram Partem to Master Directions)

Supreme Court ने कहा कि भले ही Master Directions में Borrower को सुनवाई का अधिकार नहीं लिखा हो, लेकिन ऐसे निर्णय जो उसके जीवन, प्रतिष्ठा और व्यापारिक अधिकारों को प्रभावित करते हों, उनमें यह सिद्धांत स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है।

कोर्ट ने कहा कि Fraud घोषित करने से पहले Borrower को Forensic Audit Report की एक कॉपी दी जानी चाहिए और उसे उसका उत्तर देने का पूरा अवसर मिलना चाहिए। इससे प्रक्रिया पारदर्शी (Transparent) बनती है और एकपक्षीय निर्णयों (One-sided Decisions) से बचा जा सकता है।

संवैधानिक अधिकारों पर प्रभाव (Constitutional Implications)

Court ने यह स्पष्ट किया कि Borrower को बिना सुने Fraud घोषित करना Articles 14 और 21 का उल्लंघन है। Article 14 समानता का अधिकार देता है और किसी भी Arbitrary Action (मनमानी कार्रवाई) को रोकता है। Article 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें सम्मानपूर्वक जीवन और व्यवसाय का अधिकार भी शामिल है।

कोर्ट ने यह चेतावनी दी कि किसी Borrower को सुने बिना उसका खाता Fraud घोषित करना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि न्याय के सिद्धांतों के भी विरुद्ध है।

Public Interest और Fairness का संतुलन (Balancing Public Interest and Fairness)

Supreme Court ने माना कि Banking Fraud से निपटना एक Public Interest (जनहित) का विषय है और RBI का उद्देश्य Banking प्रणाली की सुरक्षा करना है। लेकिन Court ने यह भी स्पष्ट किया कि Public Interest का मतलब यह नहीं है कि Natural Justice को दरकिनार कर दिया जाए।

कोर्ट ने संतुलन स्थापित करते हुए कहा कि धोखाधड़ी से लड़ने और Borrowers के अधिकारों की रक्षा – दोनों लक्ष्य एक साथ पूरे किए जा सकते हैं, यदि प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी हो।

State Bank of India v. Rajesh Agarwal का यह निर्णय एक महत्वपूर्ण संविधानिक दिशा निर्धारित करता है। Court ने यह साफ कर दिया कि Master Directions भले ही Borrowers को सुनवाई का अधिकार न दें, लेकिन संविधान और न्याय के सिद्धांत यह आवश्यक बनाते हैं कि Fraud घोषित करने से पहले Borrower को Forensic Audit Report दी जाए और उसे अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर मिले।

इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि आर्थिक नीतियों और बैंकिंग रेग्युलेशन के मामले में भी Rule of Law और Natural Justice सर्वोपरि रहें। अब यह स्पष्ट हो गया है कि कोई भी Borrower केवल एकतरफा रिपोर्ट के आधार पर “Fraudulent” नहीं घोषित किया जा सकता। न्याय व्यवस्था का मूल यही है – “जिसे दोषी ठहराया जा रहा हो, उसे पहले सुना जाना चाहिए।”

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