क्या वकीलों को है विरोध प्रदर्शन या न्यायालय का बहिष्कार करने का अधिकार?
न्यायालय, न्याय का एक ऐसा मंदिर है जहाँ एक हर कोई अपने विवाद को सुलझाने/निपटाने के लिए आता है। वकील एवं न्यायिक अधिकारी ऐसे लोगों को न्याय दिलाने में एक अहम् भूमिका निभाते हैं। यह भी अपेक्षा की जाती है कि जब कोई व्यक्ति न्याय पाने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाए तो हमे उसके लिए ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए जहाँ वो बिना किसी झंझट एवं परेशानी के अपने विवाद का निपटारा कर सके। हालाँकि, अक्सर ही हम देखते हैं की वकीलों द्वारा हड़ताल बुलाई जाती है, जहाँ वे सभी प्रकार के न्यायिक कार्य से विरत रहते हैं। इसके चलते न्याय के मंदिर में न केवल समय का, बल्कि आम-जन के पैसों का नुकसान भी होता है।
हड़ताल के चलते न्यायिक कार्य से विरत रहने का निर्देश कई बार, बार एसोसिएशन की ओर से दिया जाता है, और कई बार वकीलों के एक विशेष समूह के द्वारा हड़ताल का आह्वान किया जाता है। दोनों ही मामलों में न्यायिक कार्यों में बाधा पहुँचती है एवं आम-जन को मुश्किल का सामना करना पड़ता है। अक्सर ऐसा होता है कि एक गरीब व्यक्ति, सुदूर गाँव से नियत तारीख पर अदालत आता है और वहां उसको पता चलता है कि अदालत में वकीलों द्वारा हड़ताल बुलाई गयी है, इसलिए उसका कार्य नहीं हो सकेगा। ऐसे व्यक्ति को न केवल मानसिक कष्ट पहुँचता है, बल्कि उसके वक्त और पैसे, दोनों की बर्बादी भी होती है।
ऐसे करोड़ों लोग हैं जिन्हें वकीलों द्वारा बुलाई गयी हड़ताल के चलते मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जहाँ करोड़ों मुक़दमे हमारे देश की अदालतों में लंबित हों, वहां वकीलों का अनुचित प्रकार से हड़ताल पर जाना, बहुत ही निराशाजनक है। मुश्किलें तब और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं जब वकीलों द्वारा अपनी माँगों को लेकर न्यायालय का बहिष्कार किया जाता है, ऐसे मामलों में न्यायिक अधिकारी भी बेबस हो जाता है और वह हड़ताल/बहिष्कार को ख़त्म करने को लेकर ज्यादा कुछ नहीं कर पाता है।
हालाँकि, इसमें कोई दो राय नहीं है की वकीलों के भी अपने मुद्दे होते हैं, जिसके लिए वे हड़ताल पर जाने का फैसला लेते हैं। लेकिन यह जरुर है की चूँकि वकीलों का पेशा ऐसा है जो यदि कार्यशील न रहे तो न्यायिक कार्य ठप हो जाता है, इसलिए उनका अनुचित प्रकार से हड़ताल पर जाना न्यायिक प्रक्रिया पर बेहद नकारात्मक प्रभाव डालता है। हाँ, वकीलों को अपनी वाजिब मांगों/मुद्दों को लेकर विरोध प्रदर्शन करने का हक अवश्य है, जिसपर हम आगे चर्चा भी करेंगे लेकिन वह किस प्रकार का विरोध होगा यह भी हम आगे लेख में जानेंगे। हम यह भी समझेंगे कि वे अपनी शिकायतों का निवारण किस फोरम में जाकर कर सकते हैं। इसके अलावा इस लेख में हम समझेंगे कि वकीलों द्वारा बुलाई जाने वाली हड़ताल एवं न्यायालय के बहिष्कार किये जाने को लेकर क्या है कानून।
कुछ मामले जिनको लेकर वकील हड़ताल पर जाते हैं
हड़ताल पर जाने के तमाम कारण होते हैं जिनमे से ज्यादातर अनुचित प्रतीत होते हैं। उदहारण के लिए पाकिस्तान स्कूल में बम विस्फोट, श्रीलंका के संविधान में संशोधन, अंतरराज्यीय नदी जल विवाद में संशोधन, अधिवक्ता की हत्या/हमला, नेपाल में भूकंप, अपने निकट संबंधियों की मृत्यु पर शोक स्टेट, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा आंदोलनों का नैतिक समर्थन, भारी बारिश, या कुछ धार्मिक अवसरों जैसे श्राद्ध, अग्रसेन जयंती, आदि पर या यहाँ तक कि कवि सम्मेलन के लिए भी हमारे देश में वकीलों द्वारा हड़ताल बुलाई गई है/जाती है। इसके अलावा एक मुख्य समस्या जो उभर कर आती है वो है वकीलों द्वारा न्यायालय या किसी विशेष न्यायिक अधिकारी का बहिष्कार किया जाना, इसके चलते भी अदालत का काफी समय बर्बाद होता है और न्यायिक अधिकारी एवं वकीलों के बीच दूरी भी बढती है जिन्हें आमतौर पर समन्वय के साथ मिलकर कार्य करना चाहिए।
न्यायपालिका, लोकतंत्र का एक स्तम्भ है जहां वकील-गण, अदालतों के अधिकारी के तौर पर कार्य करते हैं जिनकी न केवल अदालत के प्रति, अपने क्लाइंट के प्रति बल्कि समाज के प्रति भी कुछ जिम्मेदारियां होती हैं। इन जिम्मेदारियों का प्रदर्शन, लोगों को न्याय देने में एक अहम् भूमिका निभाते समय प्रभावी ढंग से करने की आवश्यकता होती है।
न्याय प्राप्त करना हम सभी का मूलभूत अधिकार है और ऐसा करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य 1994 SCC (3) 569 में भी अभिनिर्णित किया गया, जहाँ यह कहा गया कि 'स्पीडी ट्रायल' का अधिकार, जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अनिवार्य हिस्सा है।
हालाँकि हाल के वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जब वकीलों ने हड़ताल और विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया। इनमे से एक प्रमुख कारण, बार और बेंच के बीच संघर्ष है। शीर्ष न्यायालयों द्वारा सुनाये गए विभिन्न निर्णयों के बावजूद, वकीलों ने हड़ताल पर जाना जारी रखा है। जो वकील कानूनी मूल्यों के रक्षक होने चाहिए थे, उन्होंने स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को धता बताकर अदालत के भरोसे को कई बार तोड़ा है। इन तमाम संघर्षों के बीच न्याय पाने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति असली पीड़ित है, जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अपने मौलिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है।
क्या वकीलों को न्यायालय का बहिष्कार करने का है अधिकार?
तार्किक यही लगता है कि यदि कोई वकील किसी विशेष अदालत में पेश नहीं होना चाहता है, और वह भी उचित कारणों के चलते तो पेशेवर शिष्टाचार यही कहता है कि उसे उस अदालत में चल रहे अपने क्लाइंट के मामले से हट जाना चाहिए ताकि वह पक्षकार किसी दूसरे वकील को मामले में संलग्न कर सके। लेकिन अपने मुवक्किल के ब्रीफ/मामले को अपने पास रखना और उसी समय उस अदालत में पेश होने से परहेज करना, वह भी किसी विशेष कारण - जैसे वकील की कुछ व्यक्तिगत असुविधा के कारण नहीं, बल्कि एक स्थायी प्रक्रिया के रूप, अपने आप में अव्यवसायिक है।
वकीलों के किसी भी संघ द्वारा दिए गए हड़ताल के आह्वान या अदालतों के सामान्य या किसी विशेष अदालत के बहिष्कार के निर्णय के कारण कोई भी न्यायालय, किसी मामले को स्थगित करने के लिए बाध्य नहीं है। अदालत के कामकाज के घंटों के दौरान न्यायिक कार्यों के साथ आगे बढ़ना हर अदालत का एकमात्र कर्तव्य है और यदि एक वकील या वकीलों का समूह अदालत का बहिष्कार नियत रूप से कर रहा है तो अदालत उस मामले के साथ बिना वकीलों की उपस्थिति में आगे बढ़ सकती है। किसी भी अदालत को दबाव की रणनीति या बहिष्कार करने की घटना का समर्थन किसी भी तरह से नहीं करना चाहिए - महाबीर प्रसाद सिंह बनाम जैक एविएशन प्राइवेट लिमिटेड (1999) 1 SCC।
कोलूटूमोट्टल रजाक बनाम केरल राज्य (2000) 4 SCC 465 के मामले में, एक वकील कोर्ट में उपस्थित नहीं हुए, क्योंकि अधिवक्ताओं ने हड़ताल का आह्वान किया था। अब चूंकि अपीलार्थी जेल में बंद था, इसलिए अदालत ने यह कहा कि मामले के स्थगन को उचित नहीं ठहराया जाएगा। न्यायालय ने यह माना कि इस मामले को स्वयं देखना न्यायालय का कर्तव्य है।
आर्टिकल 19 के तहत वकीलों द्वारा हड़ताल का अधिकार
संवैधानिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार हड़ताल करते हुए अपनी बात रखने का अधिकार, संविधान के भाग III द्वारा प्रदान किया गया है, जो कि 19 (c) की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत है, जहां एक समान हित रखने वाले लोगों का समूह एक साथ आ सकता है और अपने अधिकारों की मांग कर सकता है।
हालाँकि, अनुच्छेद 19 के तहत संघ की स्वतंत्रता एक पूर्ण अधिकार नहीं है, इस पर कुछ उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। इसलिए कानूनी पेशे में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या वकीलों को हड़ताल का आह्वान करने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने अपने विभिन्न फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि वकीलों की हड़ताल गैरकानूनी है और हड़ताल पर जाने की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए।
एक मुकदमे में पक्षकारों को त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है। जैसा कि हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1980) 1 SCC 81: (AIR 1979 1979 1360) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया है कि त्वरित न्याय पाने का अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अभिन्न और आवश्यक हिस्सा है। वकीलों द्वारा हड़ताल पर जाना, पक्षकारों के उपर्युक्त मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा और इस तरह के उल्लंघन की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
अगर यह मान भी लिया जाये कि वकील, संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) द्वारा गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने मौलिक अधिकार के प्रयोग में हड़ताल के माध्यम से अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं तो भी इस अनुच्छेद के तहत उनका यह अधिकार वहां समाप्त हो जाएगा जहाँ इस अधिकार के प्रयोग से किसी अन्य व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन होने का खतरा है। इस तरह की सीमा अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अधिकार के अभ्यास में अंतर्निहित है।
इसलिए, मुकदमे के त्वरित निपटारे के वादियों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हुए वकील हड़ताल पर नहीं जा सकते हैं। और जैसा कि एक्स कप्तान हरीश उप्पल बनाम भारत संघ (2003) 2 SCC 45 के मामले में कहा गया है, किसी भी पेशे का अभ्यास करने का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (जी) द्वारा गारंटीकृत है, इसके अंतर्गत किसी भी तरह के पेशे को बंद करने का अधिकार भी शामिल हो सकता है, लेकिन इसके अंतर्गत अदालत में वकालत करते हुए किसी अदालत के सामने उपस्थित होने से बचने या इंकार करने का कोई अधिकार शामिल नहीं होगा।
विरोध जताने के लिए क्या करें वकील?
हुसैन बनाम भारत संघ 2017 (5) SCC 702 के मामले में अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वकीलों की हड़ताल और उनके द्वारा अदालत का बहिष्कार किया जाना पूर्ण रूप से अवैध है और यह वो समय है जब हम कानूनी बिरादरी समाज के लिए अपने कर्तव्य का एहसास करें जोकि सबसे महत्वपूर्ण है। कृष्णकांत ताम्रकार बनाम मध्य प्रदेश राज्य AIR 2018 SC 3635 के मामले में भी कहा गया कि हर हड़ताल से, न्यायिक प्रणाली, विशेषकर न्याय कि मांग करने वाले लोगों को अपूरणीय क्षति होती है। उन्हें न्याय तक पहुंच के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। करदाताओं का पैसा न्यायिक और सार्वजनिक समय खो जाने के कारण बर्बाद हो जाता है।
एक्स कप्तान हरीश उप्पल बनाम भारत संघ (2003) 2 SCC 45 के मामले में अदालत ने यह माना है कि वकीलों को हड़ताल पर जाने या बहिष्कार का आह्वान करने का कोई अधिकार नहीं है, वे टोकन हड़ताल पर भी नहीं जा सकते हैं। हाँ, अगर उन्हें किसी प्रकार का विरोध करना है और यदि ऐसा करना आवश्यक है, तो वे केवल प्रेस स्टेटमेंट, टीवी साक्षात्कार, कोर्ट परिसर के बाहर बैनर और/या तख्तियां लेकर, काले या सफेद या किसी भी रंग के कपड़े पहने हुए, शांतिपूर्ण विरोध मार्च आदि जैसे कार्य कर सकते हैं।
इसके अलावा अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 7 के खंड (d) के अंतर्गत वकीलों के अधिकारों, विशेषाधिकारों, और उनके हितों की रक्षा की जिम्मेदारी 'बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया' को दी गयी है, इसलिए वकीलों की शिकायतों की सुनवाई की जानी चाहिए और कौंसिल द्वारा आगे के कदम उठाए जाने चाहिए, ताकि उन मुद्दों से निपटा जा सके जिसका वे सामना कर रहे हैं। भारत के विधि आयोग की 266वीं रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि प्रत्येक जिला मुख्यालय पर, जिला न्यायाधीश एक न्यायिक अधिकारी की अगुवाई में एक 'अधिवक्ता शिकायत निवारण समिति' का गठन कर सकते हैं जो दिन प्रतिदिन के मामलों से निपटेगी, और बड़ी संख्या में अधिवक्ताओं के सुचारू कामकाज से जुडी शिकायतों को सुन सकेगी।
इस संबंध में, उच्च न्यायालय, अधिवक्ताओं की शिकायतों के निवारण के लिए संविधान के अनुच्छेद 235 के तहत अपनी शक्ति के अभ्यास में एक परिपत्र जारी कर सकता है जो वकीलों कि दक्षता में सुधार करने में मदद करेगा। यदि किसी न्यायिक अधिकारी के खिलाफ कुछ शिकायत है, तो सम्बंधित बार, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष शिकायत उठा सकता है। इन सुझावों को ध्यान में रखते हुए अधिवक्ताओं की शिकायतों को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
अंत में, हाल ही में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने ईश्वर शांडिल्य बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य के मामले में कहा की वकीलों द्वारा अदालतों में हड़ताल करना/अदालत के बहिष्कार का सहारा लेना अवैध है और यह भी एक कदाचार है, जिसके लिए स्टेट बार काउंसिल और इसकी अनुशासन समितियों द्वारा अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है।
अदालत ने आगे कहा कि
"विरोध के अन्य तरीके, जो अदालती कार्यवाही में बाधा नहीं डालते हैं या न्याय को गति देने के लिए मुकदमों के मौलिक अधिकारों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं करते हैं, उनका सहारा लिया जा सकता है। एक उचित कारण के मामले में, अधिवक्ता जिला न्यायाधीश या उच्च न्यायालय में अपना प्रतिनिधित्व देकर अपनी बात कह सकते हैं।
विरोध करना यदि बहुत आवश्यक हो तो प्रेस में बयान देने, टीवी साक्षात्कार, बैनर और/या अदालत परिसर के बाहर तख्तियां, काले या सफेद या किसी भी रंग के मेहराब पहने हुए, शांतिपूर्ण विरोध मार्च जैसे अन्य तरीकों का सहारा लिया जा सकता है। जहां बार और/या बेंच की गरिमा, अखंडता और स्वतंत्रता दांव पर है, ऐसी स्थिति में सिर्फ एक दिन के लिए काम से दूर रहा जा सकता। इसके लिए बार के अध्यक्ष को पहले मुख्य न्यायाधीश या जिला न्यायाधीश से परामर्श करना चाहिए और इस बारे में मुख्य न्यायाधीश या जिला न्यायाधीश का निर्णय अंतिम होगा।"