The Indian Contract Act में एजेंसी के कॉन्ट्रैक्ट में एजेंट का प्राधिकार
इस एक्ट में एजेंट का प्राधिकार दो तरह से होता
अभिव्यक्त, विविक्षित
प्राधिकार जब अभिव्यक्त होता है जबकि वह लिखित या मौखिक शब्दों द्वारा किया जाता है और वह भी विकसित होता है जबकि उसका अनुमान मामले की परिस्थितियों पर आधारित होता है।
हरिचरण बनाम तारा प्रसन्ना 1925 कोलकाता 541 के प्रकरण में कहा गया है इस संबंध में यह साबित किया जाना आवश्यक होता है कि यदि अ और ब के मध्य कोई संविदा की जाती है जिससे स नामक व्यक्ति मध्य में अभिकर्ता था तो उसे एक अभिकर्ता की हैसियत से अपने कार्यों का संपादन करना चाहिए।
जब किसी व्यक्ति के आचरण एवं मामले की परिस्थितियों से यह स्पष्ट होता है कि कोई दूसरा व्यक्ति उसका अभिकर्ता है तो उनके मध्य विवक्षित अभिकरण का निर्माण हो जाता है चाहे भले ही उसने वास्तव में उस दूसरे व्यक्ति को अभिकर्ता के रूप में नियुक्त किया हो।
प्राधिकार उस स्थिति में विवक्षित माना जाता है जबकि उसका अनुमान मामले की परिस्थितियों पर आधारित होता है। विवेक चित अधिकरण का सृजन विबंध के आधार पर भी माना जाता है। यदि मालिक अपने आचरण से यह व्यक्त शब्दों द्वारा अभिकर्ता के साथ संविदा करने वाले व्यक्ति को यह विश्वास करने के लिए प्रेरित करता है कि उक्त प्रकार का व्यवहार करना अभिकर्ता के अधिकार क्षेत्र के भीतर है तो वह उक्त संव्यवहार से आबद्ध हो जाएगा। ऐसी स्थिति में एक विधिमान्य अभिकरण का सृजन हो जाएगा।
सुशील चंद्र बनाम गोरी शंकर 1917 (39) इलाहाबाद के मामले में कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि दलाल वाणिज्यिक अभिकर्ता की भांति होता है। इसका कार्य वाणिज्यिक अभिकर्ता के समांतर है जिसके अंतर्गत वह अभिकर्ता काटन के विक्रय के संदर्भ में अपने कृत्यों का निष्पादन करता है उसका प्रमुख कार्य इस बात की स्थापना करनी है कि 2 पक्षकारों के मध्य संविदात्मक संवाद स्थापित हो।
कमीशन अभिकर्ता वह व्यक्ति होता है जो बाजार में वस्तुओं का क्रय विक्रय करता है। वह नियोजक की ओर से स्वयं अपने नाम से ऐसा करता है उसकी स्थिति एक दलाल की स्थिति से भिन्न होती है। जहां कमीशन एजेंट स्वयं के नाम पर कोई संविदा करता है तो ऐसी स्थिति में वह उक्त संविदा के संदर्भ में व्यक्तिगत रूप से दायित्वधीन होगा।
भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 183 अभिकर्ता कौन नियोजित कर सकता है इस संदर्भ में उल्लेख कर रही है। यह धारा उपबंधित करती है कि वह व्यक्ति जो विधि के अनुसार वयस्क हो, एक स्वस्थ मस्तिष्क की क्षमता का हो अभिकर्ता नियोजित कर सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मालिक को संविदा करने में सक्षम होना चाहिए उसे वयस्कता की आयु का होना चाहिए और वह स्वस्थचित होना चाहिए पागल व्यक्ति एजेंसी की संविदा नहीं कर सकता है। यह कहा जा सकता है कि यह धारा अभिकर्ता नियोजन करने में सक्षम व्यक्तियों का उल्लेख करती है, कौन व्यक्ति एजेंसी कर सकता है उसकी क्षमता का उल्लेख यह धारा कर रही है।
महेंद्र प्रताप सिंह बनाम पदम कुमारी देवी एआईआर 1973 इलाहाबाद 143 के प्रकरण में कहा गया है कि मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ व्यक्ति कोई मुख्तारनामा का निष्पादन नहीं कर सकता है और उक्त आधार पर कार्य करने का दावा नहीं किया जा सकता।
जहां भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 183 अभिकर्ता नियुक्त करने वाले की क्षमता के संदर्भ में उल्लेख कर रही है वहीं पर भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 184 अभिकर्ता कौन हो सकता है इस संदर्भ में उल्लेख कर रही है अर्थात धारा 184 अभिकर्ता की क्षमता के संदर्भ में उल्लेख कर रही है।
इस धारा से यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि कौन व्यक्ति अभिकर्ता हो सकता है। कोई भी अवयस्क व्यक्ति भी अभिकर्ता नियुक्त हो सकता है। इसके अनुसार जहां मालिक एवं तीसरे व्यक्ति के बीच का संबंध है कोई व्यक्ति अभिकर्ता हो सकता है किंतु कोई भी व्यक्ति जो स्वास्थ्यचित न हो यदि आवश्यक हो तो ऐसी स्थिति में वह अपने कृत्यों के लिए अपने मालिक के प्रति उत्तरदायीं न होगा, इस प्रकार यदि आवश्यक अभिकर्ता नियुक्त किया जाता है तो वह अपने मालिक को अपने कृत्यों के लिए तीसरे व्यक्ति को उत्तरदायीं तो बना सकता है परंतु वह स्वयं अपने मालिक के साथ की गई अभिकरण संविदा के आधार पर कोई दायित्व नहीं करेगा।
भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 185 इस बात का उल्लेख करती है कि किसी भी अधिकरण के सृजन के लिए कोई प्रतिफल आवश्यक नहीं होता है अर्थात अभिकरण की संविदा बगैर प्रतिफल के भी की जा सकती है। किसी अभिकरण की संविदा में किसी प्रकार के प्रतिफल की कोई आवश्यकता नहीं होती है। जबकि संविदा विधि के आधारभूत सिद्धांतों के अंतर्गत किसी भी वैध संविदा के लिए वैध प्रतिफल की आवश्यकता होती है परंतु धारा 185 अभिकरण की संविदा को इस आधारभूत सिद्धांत से मुक्त करती है।