भारतीय कानून में गिरफ्तारी के बाद ही नहीं अपितु गिरफ्तारी के पहले भी जमानत दिए जाने के प्रावधान है। दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसी जमानत देने की शक्ति सेशन न्यायालय और उच्च न्यायालय को दी गई है। यह दोनों न्यायालय किसी अपराध में आरोपी को गिरफ्तारी के पूर्व ही जमानत दे सकते हैं।
इस प्रावधान का मूल उद्देश्य असत्य रूप से मुकदमे में फंसाए गए आरोपी को जेल की पीड़ा से बचाना है। अगर न्यायालय किसी मुकदमे में यह पाता है कि अभियुक्त को गलत और असत्य आधारों पर फंसा दिया गया है और मामले में प्रथम दृष्टया कोई आधार दिखाए नहीं देते हैं तब वह जमानत दे सकता है। इस आलेख के अंतर्गत अग्रिम जमानत से संबंधित कानून पर जानकारी प्रस्तुत की जा रही है।
अग्रिम जमानत अत्यधिक प्रचलित शब्द है। इसे 'प्रत्याशित' अथवा 'आशयित' जमानत भी कहा जाता है। अग्रिम जमानत स्वीकार करने की शक्ति केवल-
(i) सेशन न्यायालय एवं
(ii) उच्च न्यायालय को हैं।
यह एक असाधारण शक्ति है, जिसका उपयोग आपवादिक मामलों में किये जाने की अपेक्षा की जाती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 में अग्रिम जमानत के बारे में प्रावधान किया गया है।
उपधारा (1) में यह कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति के पास यह विश्वास करने का कारण है कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है तो वह इस धारा के अन्तर्गत उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय को ऐसा निदेश जारी करने के लिए आवेदन कर सकता है कि ऐसी गिरफ्तारी की दशा में उसे जमानत पर छोड़ दिया जाए और न्यायालय अन्य सभी बातों के साथ-साथ निम्न बातों को ध्यान में रखते हुए या तो प्रार्थनापत्र को तत्काल निरस्त कर सकेगा या अग्रिम जमानत प्रदान करने हेतु एक अन्तरिम आदेश पारित कर सकेगा।
उपधारा (1) से निम्नांकित बातें स्पष्ट होती हैं-
(i) अग्रिम जमानत के लिए आवेदन ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जा सकेगा जिसे किसी अजमानतीय अपराध में गिरफ्तार किये जाने की आशंका हो, तथा
(ii) ऐसा आवेदन उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय में किया जा सकेगा।
आवेदक को गिरफ्तारी का 'भय' होना मात्र पर्याप्त नहीं है, अपितु उसके पास यह विश्वास करने के युक्तियुक्त कारण होने चाहिये कि उसे किसी अजमानतीय अपराध में गिरफ्तार किया जा सकता है।
अभिप्राय यह हुआ कि मात्र गिरफ्तारी के भय के आधार पर अग्रिम जमानत का आदेश नहीं दिया जा सकता। इसके लिए युक्तियुक्त कारण होना अपेक्षित है।
अग्रिम जमानत के प्रार्थनापत्र पर विचार करते समय न्यायालय द्वारा निम्नांकित बिन्दुओं पर विचार किया जायेगा-
(क) आरोप की प्रकृति एवं गंभीरता
(ख) अभियुक्त (आवेदक) का पूर्ण वृतान्त,
(ग) आवेदक के भाग जाने की संभावना, तथा
(घ) आरोप मिथ्या तो नहीं है।
शर्तें -
अग्रिम जमानत के आदेश में न्यायालय द्वारा निम्नांकित शर्तें अधिरोपित की जा सकेंगी-
(i) यह कि आवेदक पुलिस अधिकारी द्वारा अपेक्षा किये जाने पर परिप्रश्नों का उत्तर देने के लिए समय-समय पर उपस्थित होता रहेगा।
(ii) यह कि आवेदक द्वारा साक्षियों को तोड़ने के लिए उन्हें
(क) उत्प्रेरणा;
(ख) धमकी या
(ग) वचन नहीं दिया जायेगा।
(iii) यह कि आवेदक न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना भारत नहीं छोड़ेगा।
(iv) यह कि आवेदक किसी अपराध की पुनरावृत्ति नहीं करेगा, आदि।
भारत छोड़कर विदेश जाने के लिए पर्याप्त कारण होने अपेक्षित है। मात्र इस आधार पर भारत छोड़कर विदेश जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि वह-
(क) विदेश में किसी धर्म का प्रचार करना चाहता है, या
(ख) चिकित्सा कराना चाहता है
किसी शर्त का उल्लंघन किये जाने पर अग्रिम जमानत के आदेश को निरस्त किया जा सकेगा।
अभियोजन पक्ष को सुना जाना
अग्रिम जमानत के प्रार्थना पत्र कोई आदेश पारित करने से पूर्व अभियोजन पक्ष को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना अपेक्षित है। आदेश का स्पष्ट एवं कारणयुक्त होना।
अग्रिम जमानत का आदेश कारण सहित होना चाहिये कोरा आदेश मात्र नहीं। फिर यह सीमित अवधि का होना चाहिये, असीमित अवधि का नहीं है-
स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम मोहम्मद साबिद हुसैन मोहम्मद के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि अग्रिम जमानत का प्रार्थनापत्र स्वीकार किये जाने के कारणों का उल्लेख किया जाना आवश्यक है।
अग्रिम जमानत कब नहीं ली जानी चाहिये जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है- अग्रिम जमानत अनुदत्त करने की शक्ति एक असाधारण शक्ति है, अतः इसका प्रयोग आपवादिक मामलों में हो किया जाना चाहिये।
दहेज हत्या के मामलों में अग्रिम जमानत नहीं दिये जाने की अनुशंसा की गई है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की परिधि में आने वाले मामलों में अग्रिम जमानत नहीं लिये जाने को संवैधानिक ठहराया गया है। इसी प्रकार दो करोड़ के 'कपट' के मामले में अग्रिम जमानत दिये जाने को उचित नहीं माना गया है।
उद्देश्य
वस्तुतः अग्रिम जमानत का मुख्य उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया के दुरूपयोग को रोकना है। यह ऐसे व्यक्तियों को गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान करती है; जो
(i) निर्दोष है;
(ii) तुच्छ आरोप का दोषी है;
(iii) प्रतिष्ठित व्यक्ति है;
(iv) किसी रंजिश अथवा प्रतिशोध का शिकार है अथवा
(v) अपमानित किये जाने के षड्यंत्र का शिकार है, इत्यादि।