किसी अपराधी ठहराए गए व्यक्ति को भर्त्सना(Condemn) पर भी छोड़ा जा सकता है। न्याय व्यवस्था को इस तरह बनाया गया है कि अपराधी को सज़ा नहीं दी जाए बल्कि सुधारा जाए लेकिन ऐसा सुधार यह सुधार केवल छोटे मामलों में और ऐसे अपराध जिन्हें कोई व्यक्ति प्रथम दफा करता है तब ही संभव है। अभ्यस्त अपराधियों के लिए इस प्रकार के सुधारात्मक विचार को नहीं रखा जाता है। इस सिद्धांत को यहां पर नहीं माना जाता है या फिर गंभीर प्रकृति के अपराधों के मामले में सुधार के विचार को दरकिनार कर दिया जाता है तथा अपराधी को दंडित किया जाता है।
इस संबंध में अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 के साथ ही BNSS की धारा 401 का भी उल्लेख है। BNSS की धारा 401 इस संदर्भ में संपूर्ण उल्लेख करती है कि किसी अपराधी को परिवीक्षा पर या फिर भर्त्सना के पश्चात कब छोड़ा जा सकता है।
BNSS की धारा 401 निम्न परिस्थितियों में किसी अपराधी को सदाचरण की परिवीक्षा पर या फिर भर्त्सना के पश्चात छोड़ देने का आदेश देने हेतु कोर्ट को सशक्त करती है। कोर्ट के पास में यह अधिकार विवेक के अधीन रहता है। कोई भी अपराधी अधिकार पूर्वक कोर्ट से सदाचरण की परिवीक्षा पर या फिर भर्त्सना के पश्चात छोड़ देने हेतु मांग नहीं कर सकता। जिन परिस्थितियों में छोड़ा जा सकता है वह परिस्थितियां निम्न है-
जब कोई व्यक्ति जो 21 वर्ष से कम आयु का नहीं है केवल जुर्माने से या 7 वर्ष या उससे कम अवधि के कारावास से दंडित अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है।
जब कोई व्यक्ति जो 21 वर्ष से कम आयु का है या कोई स्त्री ऐसे अपराध के लिए जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है दोषसिद्ध की जाती है।
जब अपराधी के ऊपर पूर्व कोई दोषसिद्धि नहीं हुई है।
यह तीन शर्ते BNSS की धारा 401 के अंतर्गत किसी सिद्धदोष अपराधी को सदाचरण की परिवीक्षा पर या फिर भर्त्सना के पश्चात छोड़ देने का आदेश देने हेतु कोर्ट को सशक्त करती है।
कोई व्यक्ति यदि 21 वर्ष से अधिक उम्र का है और पूर्व दोषसिद्ध नहीं किया जाता है और उसने पहले कोई अपराध नहीं किया है जिसमें उसको दोषसिद्धि हुई हो तो ऐसी दशा में वह किसी ऐसे अपराध में जिसमें 7 वर्ष तक के कारावास का उपबंध है सिद्धदोष किया जाता है तो इस परिस्थिति में कोर्ट अपने विवेक के आधार पर उसकी आयु, उसकी शील को ध्यान में रखते हुए सदाचरण की परिवीक्षा और केवल भर्त्सना पर छोड़ सकती है।
कोई व्यक्ति 21 वर्ष से कम उम्र का है अथवा वह स्त्री है तो ऐसी परिस्थिति में उसे मृत्यु या आजीवन कारावास के दंड से कम दंड वाले अपराध में सिद्धदोष होने पर भी सदाचरण की परिवीक्षा और भर्त्सना के पश्चात छोड़ दिए जाने की शक्ति कोर्ट को दी गयी है। यहां पर 21 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को मृत्युदंड और आजीवन कारावास के सिवाय सभी प्रकार के अपराध में छोड़ दिए जाने का प्रावधान कर दिया गया है, यही नियम स्त्रियों के संबंध में भी है।
इस धारा के अधीन अपराधी को कारावास में रखे जाने के बजाय परिवीक्षा पर छोड़ देने की व्यवस्था है। इस धारा के अधीन कतिपय परिस्थितियों में कोर्ट सिद्धदोष अभियुक्त को सदाचरण की परीक्षा पर छोड़ सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सोमभाई बनाम गुजरात राज्य के बाद में अभियुक्त द्वारा अंधाधुन गति से वाहन चलाए जाने के कारण एक 10 वर्षीय बालिका की मृत्यु कारित हो गयी थी। कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि ऐसी परिस्थिति में किसी अभियुक्त को सिद्धदोष होने पर केवल सदाचरण की परिवीक्षा के आधार पर छोड़ देना उचित नहीं है।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम शीलन देवी 1986 के मामले में एक महत्वपूर्ण बात कही गयी है। BNSS की धारा 401 के अनुसार ऐसे सभी अपराधों के अभियुक्तों को जिनके लिए 2 वर्ष से अधिक कारावास की सजा या जुर्माने के दंड का प्रावधान है परिवीक्षा पर छोड़े जाने का लाभ दिया जा सकता है बशर्ते कि उनकी पूर्व दोषसिद्धि नहीं हुई हो तथा उनके अपराध का स्वरूप गंभीर न हो।
अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 तथा BNSSकी धारा 401 के अंतर्गत दोनों में से किसे उपयोग में लिया जाए इस हेतु सुप्रीम कोर्ट में छन्नी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में बहस हुई।
इस पर कोर्ट ने कहा कि साधारण खंड अधिनियम (जनरल क्लॉज़स एक्ट) धारा 8(1) में स्पष्ट लेख है कि जहां अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 लागू नहीं किया गया हो वहां दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के उपबंध लागू होंगे। इसका सीधा अर्थ है कि जिस भू प्रदेश में अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 लागू हो वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के उपबंध लागू नहीं होंगे।
पहले सीआरपीसी लागू थी इसलिए धारा 360 में अपराधी परिवीक्षा के प्रावधान थे।
सुरेंद्र कुमार बनाम राजस्थान राज्य के एक मामले में यह कहा गया है कि इस धारा के आज्ञापक उपबंध के अनुसार जहां अपराध 7 वर्ष या इससे कम अवधि के कारावास से अथवा केवल जुर्माने से दंडित नहीं हो तथा अभियुक्त की आयु 21 वर्ष से कम हो ऐसे अभियुक्त को परिवीक्षा का लाभ दिया जाना चाहिए।
ओमप्रकाश बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 323 के अंतर्गत दोषसिद्धि की दशा में अभियुक्त को जेल भेजने के बजाय उसे परीक्षा का लाभ देकर छोड़ा जाना उचित होगा।
कैलाश बनाम हरियाणा राज्य के वाद में पंजाब हाई कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 तथा परिवीक्षा अधिनियम 1958 की धारा 34 के उपबंधों से यह स्पष्ट है कि परिवीक्षा का लाभ ऐसे दोषसिद्ध अभियुक्त को नहीं दिया जा सकता है जिसका अपराध 10 वर्ष से अधिक कारावास से दंडनीय हो, अभियुक्त की अपील निरस्त कर दी गयी।
रमेश दास बनाम रघुनाथ तथा अन्य सुप्रीम कोर्ट के नवीन प्रकरण में अभियुक्त कि भारतीय दंड संहिता की धारा 326 के अपराध के लिए दोषसिद्धि हुई तथा उसे 5 वर्ष के कारावास से दंडित कर आदेशित किया गया कि वह अपराध के कारण जख्मी हुए दो पीड़ितों को क्रमश बीस हजार तथा पांच हजार जुर्माने के रूप में भुगतान करें। इस दंड के विरुद्ध अभियुक्त ने पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर की जबकि राज्य ने दंड में वृद्धि के लिए अपील की थी।
हाई कोर्ट ने राज्य की अपील खारिज कर दी तथा अभियुक्त को धारा 360 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत परिवीक्षा पर छोड़े जाने का निर्णय दिया तथा जुर्माने की राशि में वृद्धि कर दी।
हाईकोर्ट ने उक्त आदेश के विरुद्ध अपील में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय किया कि धारा 326 एवं 149 भारतीय दंड संहिता का अपराध आजीवन कारावास से दंडनीय होने के कारण इस प्रकरण में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 की परिवीक्षा संबंधी प्रावधान लागू नहीं होते है। अपितु इसमें अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 के उपबंधों के आधार पर विचार किया जाना चाहिए था। अतः हाई कोर्ट के आदेश को अपास्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रकरण को हाई कोर्ट के पुनः विचारार्थ लौटा दिया।
BNSS की धारा 401 के अंतर्गत और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 के अंतर्गत यदि कार्यवाही की जा सकती थी और अभियुक्त को परिवीक्षा पर छोड़ा जा सकता या भर्त्सना के पश्चात छोड़ा जा सकता था पर नहीं छोड़ा गया तथा धारा 401 की कार्यवाही नहीं की गयी तो कोई कार्यवाही नहीं किए जाने के अपने कारणों को अभिलिखित करना होगा। कोर्ट ऐसी कार्यवाही नहीं किए जाने के अपने कारणों को अपने निर्णय में अभिलिखित करेगा।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम लाड सिंह के वाद में विनिश्चय किया गया है कि धारा 360 (CRPC) तथा अपराधी परिवीक्षा अधिनियम के उपबंधों में कोई विरोधाभास नहीं है बल्कि धारा 360 (CRPC) परिवीक्षा अधिनियम के उपबंध की पूरक है। इस धारा के उपबंधों की प्रकृति आज्ञापक होने के कारण कोर्ट द्वारा इसका अनुपालन किया जाना अनिवार्य है।