आखिर कब एक वकील की लापरवाही (Negligence), पेशेवर कदाचार (Professional Misconduct) की श्रेणी में आती है?

"एक कानूनी पेशेवर द्वारा अपने पेशे के अभ्यास में नैतिक अवगुण (moral delinquency) के बगैर केवल लापरवाही ( negligence) किया जाना, पेशेवर कदाचार (professional misconduct) की श्रेणी में नहीं आता है।"

Update: 2019-06-17 07:50 GMT

गलती करना मानव का स्वभाव है। यहां तक कि एक अच्छी तरह से योग्य, अनुभवी पेशेवर भी कभी-कभी गलतियों या निर्णय की त्रुटियों के लिए प्रवण होता है।

क्या पेशेवर लापरवाही (professional negligence) के सभी मामले, पेशेवर कदाचार (professional misconduct) के मामले माने जा सकते हैं?

  • इस तरह के कठोर मानक का पेशेवरों की क्षमताओं पर प्रभाव पड़ता है, जिससे वे असुरक्षित और भयभीत हो जाते हैं। हालाँकि, कुछ मूलभूत नियमों में छूट देने से क्लाइंट्स के अधिकारों को प्रभावित करने वाले मानकों और जवाबदेही में कमी आ सकती है।
    इसलिए, न्यायालयों ने इस संबंध में एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है।
    यह निर्धारित करने के लिए कि किसी पेशेवर ने लापरवाही की है या नहीं, उसे उस पेशे में साधारण कौशल का प्रयोग करने वाले एक साधारण सक्षम व्यक्ति की तरह आंका जाना चाहिए। प्रत्येक पेशेवर के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह उस क्षेत्र में, जिसमे वह कार्यशील है, विशेषज्ञता के उच्चतम स्तर का अधिकारी हो जाये (देखें: जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2005) 6 SCC 1)
    एक पेशेवर को निम्नलिखित 2 निष्कर्षों में से एक के आधार पर लापरवाही के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है:
    या तो वह उस क्षेत्र में अपेक्षित कौशल नहीं रखती थी, जिस क्षेत्र में कौशल रखने का उसने दावा किया था, या
    • उसने दिए गए मामले में उचित योग्यता एवं कौशल के साथ कार्य नहीं किया, जो कौशल उसके पास था (देखें: सीबीआई बनाम वी. के. नारायण राव (2012) 9 SCC 512)
      कदाचार होने के लिए, लापरवाही (Negligence) को नैतिक अधमता (moral turpitude) या अवगुण (delinquency) के साथ जोड़ा जाना चाहिए

      सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 'पी' एक अधिवक्ता AIR 1963 SC 1313 के मामले में, 'लापरवाही' (negligence) और 'घोर लापरवाही' (gross negligence) के बीच अंतर बताया।
      उस मामले की प्रमुख बातें, जहां न्यायालय एक अधिवक्ता ऑन रिकॉर्ड की ओर से किये गए कथित कदाचार के मामले पर विचार कर रहा था:
      मानव से जुड़े सभी मामलों में निर्णय की त्रुटि को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता है।
  • केवल लापरवाही का मतलब यह नहीं होगा कि अधिवक्ता ने 'पेशेवर कदाचार' (professional misconduct) किया है।
  • 'कदाचार' (misconduct) बनने के लिए लापरवाही के साथ-साथ कार्य में नैतिक अधमता (moral turpitude) या अवगुण (delinquency) शामिल होना चाहिए।
  • अभिव्यक्ति 'नैतिक अधमता या अवगुण' को एक व्यापक रूप से देखा और समझा जाना चाहिए।
  •  जहाँ भी अधिवक्ता का आचरण ईमानदारी के विपरीत है, या अच्छी नैतिकता का विरोध करता है या अनैतिक है, उसे नैतिक अधमता में शामिल किया जा सकता है।
  • एक मामले में, ग्राहक के हितों की जानबूझकर उपेक्षा को एक ऐसे कदाचार के रूप में देखा जा सकता है जो एक व्यक्ति को अधिवक्ता बनने से अयोग्य करार दे सकता है।
    अनुपयुक्त कानूनी सलाह हमेशा कदाचार नहीं है

    पी. डी. खांडेकर बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा AIR 1984 SC 110 में, सुप्रीम कोर्ट कदाचार के निष्कर्षों पर 2 अधिवक्ताओं पर लगायी गयी सजा के खिलाफ चुनौती से निपट रहा था।

    उन पर 2 मामलों में अनुपयुक्त कानूनी सलाह देने का आरोप लगाया गया था। एक मामले में, उन्होंने कथित तौर पर एक पुरुष और महिला को यह सलाह दी थी कि उनका पुनर्विवाह केवल एक हलफनामे में यह पुष्टि करके संभव है, कि उन्होंने अपने संबंधित पति-पत्नी को तलाक दे दिया है। एक अन्य मामले में, एक महिला ने उनकी कथित सलाह पर काम किया कि एक हलफनामे (Affidavit) के जरिए अचल संपत्ति को उपहार (Gift) स्वरुप दिया जा सकता है।
    मामले पर फैसला करते हुए, शीर्ष अदालत ने यह देखा:
    अनुपयुक्त कानूनी सलाह देने और गलत कानूनी सलाह देने के बीच भारी अंतर है। एक कानूनी पेशेवर द्वारा अपने पेशे के अभ्यास में नैतिक अवगुण के बगैर केवल लापरवाही किया जाना, पेशेवर कदाचार की श्रेणी में नहीं आता है।
    न्यायालय ने अनुशासनात्मक समिति (Disciplinary Committee) के तथ्यात्मक निष्कर्षों से अपनी सहमति व्यक्त की कि अधिवक्ताओं ने अनुपयुक्त कानूनी सलाह दी थी। हालाँकि, यह अपने आप में उनके खिलाफ लगाये गए कदाचार के आरोप का समर्थन नहीं करेगा, क्योंकि ऐसा कोई भी साक्ष्य मौजूद नहीं था कि उन्होंने नैतिक अधमता (Moral Turpitude) के साथ काम किया हो, अदालत ने आगे जोड़ा।
    "ऐसा प्रतीत होता है कि इस बात के प्रचुर प्रमाण थे जिसके आधार पर अनुशासनात्मक समिति ने गलत कानूनी सलाह देने के लिए अपीलार्थी और अगवाने को दोषी ठहराया, लेकिन इस बात पर काफी संदेह है कि क्या ऐसे सबूतों के आधार पर पेशेवर कदाचार के आरोप का समर्थन किया जा सकता है। मौजूदा मामले में, यह बिल्कुल भी निश्चित नहीं है कि यह सख्त सटीकता के साथ कहा जा सकता हो कि अपीलकर्ता नैतिक अधमता का दोषी था या कोई नैतिक दोष था जो उसका हिस्सा था
    ", दंड के आदेश को रद्द करते हुए शीर्ष अदालत ने अवलोकन किया।"
    महज लापरवाही पेशेवर कदाचार नहीं है

    एक मामले में, एक क्लाइंट ने अपने अधिवक्ता को NI अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज करने के लिए एक डिसऔनर्ड चेक सौंपा। अधिवक्ता ने इस मामले में धारा 420 IPC के तहत धोखाधड़ी के लिए शिकायत दर्ज करना बेहतर समझा, और इसलिए धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष एक याचिका दायर की।
    क्लाइंट ने यह कहते हुए बार काउंसिल का दरवाजा खटखटाया कि अधिवक्ता NI अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज करने में विफल रहा और उसे चेक वापस नहीं किया। अधिवक्ता ने कहा कि उन्होंने चेक वापस कर दिया था और उन्होंने यह सोचा था कि धारा 420 IPC के अंतर्गत शिकायत दर्ज करना, NI अधिनियम की तुलना में एक बेहतर कानूनी उपाय है।
    बार काउंसिल की अनुशासन समिति ने अधिवक्ता को कदाचार के लिए दोषी ठहराया। यह देखा गया कि अधिवक्ता को ग्राहक से पावती रसीद प्राप्त करनी चाहिए थी यदि उसने चेक वापस कर दिया था।
    अनुशासन समिति के निष्कर्षों को एक तरफ रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिवक्ता के कृत्य को "घोर लापरवाही" नहीं कहा जा सकता है।
    "वर्तमान अपीलकर्ता के कृत्य को घोर लापरवाही के दायरे में नहीं माना जा सकता है। यह केवल लापरवाही का मामला होगा।
    दिए गए आदेश में, जैसा कि हम नोटिस कर रहे हैं, अपीलकर्ता पर इस बात को लेकर दोष मढ़ा गया है कि उसने अपने क्लाइंट से पावती प्राप्त नहीं की। उन्होंने स्पष्टीकरण दिया है कि उन्होंने पुलिस को चेक दिया था। उस संबंध में कोई विरोधाभास प्रतीत नहीं हुआ है। इसके अलावा, अधिवक्ता द्वारा घोर लापरवाही पर विचार-विमर्श का कोई स्पष्ट विश्लेषण नहीं किया गया है
    ," कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला (कथिरा कुंजु टी. ए. बनाम जैकब मैथ्यूज
    AIR 2017 SC 1041)।
    त्रुटिपूर्ण कानूनी राय (erroneous legal opinion) के लिए कोई आपराधिक दायित्व नहीं

    एक मामले में, सीबीआई ने एक बैंक के एक पैनल अधिवक्ता को भ्रष्टाचार के एक ऐसे मामले में आरोपी के रूप में नामित किया था, जिसमे बैंक अधिकारियों के खिलाफ अवैध परितोषण (illegal gratification) को स्वीकार करने के बाद ऋण की अनियमित मंजूरी के माध्यम से बैंक को धोखा देने का मामला दर्ज किया गया था। यह आरोप लगाया गया था कि अधिवक्ता, जिन्होंने दस्तावेजों का पुनरीक्षण किया था, वो इमारतों के स्वामित्व विवरण में अनियमितताओं को इंगित करने और बिल्डरों द्वारा प्राप्त किए गए भवन निर्माण अनुमतियों में दोषों का पता लगाने में विफल रहे थे।
    उच्च न्यायालय द्वारा धारा 482 सीआरपीसी के तहत उनके खिलाफ कार्यवाही को रद्द कर दिया गया था। इसके खिलाफ सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
    शीर्ष अदालत ने कहा कि अधिवक्ता की ओर से की गयी गलतियों का मतलब यह नहीं होगा कि उसने बैंक को धोखा देने के लिए अन्य आरोपियों के साथ साजिश रची थी।
    "एक अधिवक्ता के खिलाफ दायित्व केवल तब उत्पन्न होता है जब वकील बैंक को धोखा देने की योजना में एक सक्रिय भागीदार था। दिए गए मामले में, यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है कि [वकील] मूल षड्यंत्रकारियों का उत्प्रेरण या उनकी सहायता कर रहा था।
    "
    सीबीआई की अपील को यह देखते हुए खारिज कर दिया गया:
    "यह संदेह से परे है कि एक वकील क्लाइंट के हितों के लिए एक 'अप्रतिष्ठित वफादारी' देता है और यह वकील की जिम्मेदारी है कि वह इस तरीके से कार्य करे जो क्लाइंट के हित को आगे बढ़ाए। केवल इसलिए कि उसकी राय स्वीकार्य नहीं हो सकती है, उसके खिलाफ आपराधिक अभियोजन नहीं चलाया जा सकता, विशेषकर तब जब स्पष्ट साक्ष्य का अभाव हो, जिससे यह साबित हो सके कि वह अन्य षडयंत्रकारियों के साथ जुड़ा हुआ है। ज्यादा से ज्यादा, वह सकल लापरवाही या पेशेवर कदाचार के लिए उत्तरदायी हो सकता है यदि ऐसा स्वीकार्य साक्ष्य के साथ स्थापित किया गया है, लेकिन उसे IPC की धारा 420 और 109 के तहत अपराध के लिए अन्य षड्यंत्रकारियों के साथ उचित और स्वीकार्य सम्बन्ध के आभाव में दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह आगे स्पष्ट किया गया है कि अगर अन्य षड्यंत्रकारियों के साथ मिलकर संस्था को नुकसान पहुँचाने का कोई सम्बन्ध या सबूत है, तो निस्संदेह, अभियोजन प्राधिकरण उस वकील के खिलाफ आपराधिक मुकदमे के तहत आगे बढ़ने के हकदार है। इस तरह की ठोस सामग्री की यहाँ उत्तरदाता के मामले में कमी है।" (सीबीआई बनाम वी. के. नारायण राव (2012) 9 SCC 512)

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