वित्तीय बाधाएं समान पेंशन लाभ के संवैधानिक अधिकार को प्रभावित नहीं कर सकतीं: केरल हाईकोर्ट
केरल हाईकोर्ट के जज जस्टिस हरिशंकर वी. मेनन की एकल न्यायाधीश पीठ ने फैसला सुनाया कि 2006 से पहले के असम राइफल्स रिटायर कर्मचारी 2006 के बाद के रिटायर कर्मचारियों के समान संशोधित पेंशन लाभ के हकदार हैं।
न्यायालय ने भारत संघ के वित्तीय बाधाओं का तर्क खारिज किया, जिसमें कहा गया कि मौद्रिक विचार मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को उचित नहीं ठहरा सकते।
सुप्रीम कोर्ट के उदाहरणों का अनुसरण करते हुए न्यायालय ने 2006 की कट-ऑफ तिथि को मनमाना और अनुच्छेद 14 का उल्लंघनकारी पाया, क्योंकि पेंशन एक सतत अधिकार है जिसे केवल रिटायर तिथि के आधार पर विभेदित नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता असम राइफल्स के सभी पूर्व अधिकारी जो 1995 और 2000 के बीच रिटायर हुए थे, ने 2006 में लागू पेंशन योजना संशोधनों से लाभ उठाने की मांग की। इन संशोधनों ने रिटायर लोगों को उच्च पेंशन लाभ की पेशकश की लेकिन सरकार ने उन्हें केवल भावी रूप से लागू किया 2006 से पहले रिटायर लोगों को छोड़कर।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि इस मनमानी कट-ऑफ तिथि ने संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के उनके अधिकार का उल्लंघन किया, क्योंकि उन्होंने 2006 के बाद रिटायरमेंट लोगों के समान परिस्थितियों में काम किया था।
भारत संघ ने कहा कि पेंशन संशोधनों का उद्देश्य पूर्वव्यापी रूप से लागू होना नहीं था। सरकार ने तर्क दिया कि 2006 से पहले रिटायर हुए लोगों को संशोधित लाभ देने से उन पर काफी वित्तीय बोझ पड़ेगा और पेंशन योजना में पूर्वव्यापी समायोजन करने का कोई कानूनी आधार नहीं है।
तर्क
याचिकाकर्ताओं ने अपने वकील के माध्यम से तर्क दिया कि 2006 से पहले और 2006 के बाद रिटायर हुए लोगों के बीच का अंतर मनमाना था। अनुच्छेद 14 के तहत समान व्यवहार के सिद्धांत का उल्लंघन करता था। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि दोनों समूहों ने समान परिस्थितियों में समान क्षमता में काम किया। उन्हें समान पेंशन लाभ से वंचित करने का कोई वैध कारण नहीं था।
यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसपीएस वेंस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि पेंशनभोगियों को केवल रिटायरमेंट की तारीख के आधार पर अलग-अलग वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि पेंशन एक सतत अधिकार है। इसे सभी रिटायर लोगों पर समान रूप से लागू किया जाना चाहिए।
प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि पेंशन योजनाएं वैधानिक प्रावधानों द्वारा शासित होती हैं। संशोधनों को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि पेंशन समायोजन सरकार की वित्तीय क्षमता के अधीन है। रिटायर लोगों के व्यापक समूह को लाभ प्रदान करने से राजकोष पर असंगत वित्तीय बोझ पड़ेगा।
न्यायालय का तर्क
न्यायालय ने पाया कि सरकार का तर्क - वित्तीय बाधाएं- याचिकाकर्ताओं को उनके अधिकारों से वंचित करने का वैध औचित्य नहीं था। इसने नोट किया कि वित्तीय विचारों का उपयोग मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को उचित ठहराने के लिए नहीं किया जा सकता। जबकि सरकार ने तर्क दिया कि संशोधनों को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने से वित्तीय तनाव पैदा होगा, न्यायालय ने माना कि यह तर्क संवैधानिक अधिकारों के संदर्भ में अस्थिर था।
वास्तव में यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसपीएस वेन्स में सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की थी कि पेंशन दान का विषय नहीं है बल्कि एक अधिकार है। समान स्थिति वाले व्यक्तियों के बीच विभेदकारी व्यवहार केवल रिटायरमेंट की तिथि के आधार पर स्वाभाविक रूप से अन्यायपूर्ण था।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि याचिकाकर्ताओं ने 2006 के बाद रिटायर हुए लोगों के समान परिस्थितियों में काम किया। उनके साथ अलग व्यवहार करने का कोई उचित आधार नहीं था। 2006 की कट-ऑफ तिथि को मनमाना माना गया, खासकर तब जब पेंशन लाभ रिटायर लोगों को उनकी रिटायरमेंट की तिथि की परवाह किए बिना समर्थन देने के लिए होते हैं।
न्यायालय ने डी.एस. नाकारा बनाम भारत संघ का भी हवाला दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पेंशन योजनाओं में कोई भी कृत्रिम विभाजन, जब तक कि स्पष्ट और तर्कसंगत कारणों से उचित न हो, समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
इसके अलावा न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को खारिज कर दिया कि पेंशन संशोधन स्वभाव से ही संभावित थे।
जस्टिस मेनन ने बताया कि पेंशन योजनाओं को प्रभावित करने वाले विधायी संशोधनों को इस तरह से लागू किया जाना चाहिए, जो समानता को बनाए रखे, खासकर जब समूहों के बीच अंतर मनमाने कट-ऑफ तिथि पर आधारित हो।
न्यायालय ने यह भी नोट किया कि वित्तीय निहितार्थ हमेशा नीति-निर्माण में चिंता का विषय होते हैं, लेकिन वे संवैधानिक दायित्वों को खत्म नहीं कर सकते। इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ता 2006 के बाद सेवानिवृत्त होने वाले लोगों के समान पेंशन लाभ के हकदार हैं।
उन्हें ये लाभ न देना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था। सरकार का वित्तीय बाधाओं पर भरोसा इस भेदभावपूर्ण व्यवहार को उचित ठहराने के लिए अपर्याप्त था।