नाबालिग लड़के को 'प्रेरित' कर प्रवेश कराने वाली महिला पर लगेगा यौन उत्पीड़न का आरोप : कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि कोई महिला किसी नाबालिग लड़के को अपने साथ यौन प्रवेश (Penetration) के लिए प्रेरित या नियंत्रित करती है तो यह कृत्य बाल लैंगिक अपराध संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) की धारा 3 के अंतर्गत भेदनात्मक यौन उत्पीड़न (Penetrative Sexual Assault) माना जाएगा।
जस्टिस एम. नागप्रसन्ना ने यह कहते हुए 52 वर्षीय महिला के खिलाफ दर्ज POCSO केस रद्द करने से इनकार करते हुए कहा,
"धारा 3 की भाषा 'A Person' (कोई भी व्यक्ति) से शुरू होती है, जो जेंडर-न्यूट्रल है। इसका उद्देश्य केवल पुरुष को नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति को आरोपी बनाने का है, जो बच्चे को इस कृत्य के लिए मजबूर या प्रेरित करता है।"
मामले में शिकायत है कि महिला ने 14 वर्षीय लड़के को अपने साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए प्रेरित किया। आरोप है कि लड़के ने अपनी इच्छा से नहीं बल्कि महिला के दबाव और प्रलोभन में आकर यह किया।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 3 का वाक्यांश “Make the child to do so with her or any other Person” इस परिस्थिति को पूरी तरह शामिल करता है।
अदालत ने कहा कि यह तर्क देना कि कानून केवल पुरुष पर लागू होता है, एक संकीर्ण और तकनीकी व्याख्या होगी, जो विधायिका के उद्देश्य के विपरीत है।
आगे कहा गया,
"POCSO का मकसद शारीरिक भिन्नताओं की औपचारिकता नहीं बल्कि बच्चों को यौन शोषण से सुरक्षा देना है।"
अदालत ने टेक्सास टेक यूनिवर्सिटी के रिसर्च पेपर का हवाला देते हुए कहा,
"लड़के और पुरुष भी यौन शोषण के शिकार हो सकते हैं। चाहे वह समान जेंडर के हाथों हो या विपरीत जेंडर के हाथों।"
याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि यौन संबंध में पुरुष सक्रिय और महिला निष्क्रिय पक्ष होती है। अदालत ने इसे पुरातनपंथी और रूढ़िवादी धारणा बताते हुए खारिज कर दिया।
कहा गया,
"यह दृष्टिकोण आज की आधुनिक सोच में कोई स्थान नहीं रखता। कानून दोनों लिंगों पर समान रूप से लागू होता है।"
आरोपी की यह दलील भी अदालत ने ठुकरा दी कि “आघात की स्थिति में शारीरिक उत्तेजना (Erection) संभव नहीं होती।
अदालत ने कहा,
"आघात मनोवैज्ञानिक अवधारणा है, जबकि उत्तेजना जैविक। कई बार शरीर मनोवैज्ञानिक प्रभाव के बावजूद प्रतिक्रिया करता है। अंत में अदालत ने कहा कि यह मामला गहन तथ्यों से जुड़ा है। इसे केवल एक आदेश से समाप्त नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में मुकदमा चलना अनिवार्य है। आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने का अवसर ट्रायल के दौरान ही मिलेगा।"