[Senior Citizens Act] बैंक बच्चों द्वारा लोन पर चूक के मामले में गिफ्ट डीड रद्द करने का आदेश रद्द करने की मांग कर सकता है: कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में सहायक आयुक्त हसन द्वारा पारित एक आदेश रद्द किया. जो माता-पिता और सीनियर सिटीजन के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम 2007 के प्रावधानों के तहत पारित किया गया। उक्त आदेश में वृद्ध पिता द्वारा अपने बच्चों के पक्ष में निष्पादित गिफ्ट डीड रद्द कर दी गई।
यह आदेश बैंक द्वारा दायर याचिका पर पारित किया गया, जिससे बच्चों ने उपहार के रूप में प्राप्त संपत्ति को गिरवी रखकर लोन लिया और बाद में पुनर्भुगतान में चूक की।
जस्टिस एम जी एस कमल ने कहा कि मामले की विशिष्ट तथ्यों की स्थिति के तहत यह न्यायालय इस विचार पर है कि याचिकाकर्ता-बैंक रिट याचिका को बनाए रखने का हकदार है। खासकर तब जब उसे व्यापक जनहित में उसके द्वारा दी गई लोन राशि की वसूली करने की आवश्यकता हो।
न्यायालय ने इस मामले में अपवाद बनाया, क्योंकि अधिनियम के प्रावधानों में याचिकाकर्ता-बैंक जैसे निकाय द्वारा अपील दायर करने का प्रावधान नहीं था, जिसका कारण मामले में पूरी तरह से अलग और विशिष्ट है।
उन्होंने कहा,
"अधिनियम 2007 पीड़ित व्यक्ति शब्द को परिभाषित नहीं करता है। इस प्रकार परिस्थितियों में याचिकाकर्ता-बैंक के पास अधिनियम 2007 के तहत किसी भी उपाय का सहारा लेने की कोई संभावना नहीं है। इसलिए याचिकाकर्ता-बैंक के पास उपलब्ध एकमात्र विकल्प भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने असाधारण क्षेत्राधिकार का आह्वान करते हुए इस न्यायालय का दरवाजा खटखटाना है।"
पूरा मामला
एक्सिस बैंक ने मीर अनासर अली और एक अन्य को 18 लाख रुपये का लोन दिया, जिन्होंने अपने पिता मीर जौहरी अली द्वारा उन्हें गिफ्ट में दी गई संपत्ति को गिरवी रख दिया था। उक्त गिफ्ट डीड बिना किसी शर्त के पूर्ण था। उन्होंने पुनर्भुगतान में चूक की। बाद में बैंक को तीसरे पक्ष से पता चला कि पिता और पुत्र ने याचिकाकर्ता के अधिकारों को हराने और धोखा देने के इरादे से एक-दूसरे के साथ मिलीभगत करके बैंक ने 05.06.2014 की उक्त उपहार डीड को गुप्त रूप से रद्द करवा लिया था।
बैंक ने तर्क दिया कि सहायक आयुक्त ने अधिनियम 2007 की धारा 23 के तहत अपनी शक्तियों के कथित प्रयोग में आपत्तिजनक आदेश पारित करने में घोर गलती की। प्रावधान केवल तभी लागू किया जा सकता है, जब गिफ्ट डीड में एक विशिष्ट शर्त हो कि हस्तांतरिती हस्तांतरक को बुनियादी सुविधाएं और भौतिक आवश्यकताएं प्रदान करेगा। यदि ऐसा हस्तांतरिती हस्तांतरक की सुविधाओं और भौतिक आवश्यकताओं को बनाए रखने या प्रदान करने से इनकार करता है तो संपत्ति का हस्तांतरण लाभार्थी द्वारा धोखाधड़ी या जबरदस्ती या अनुचित प्रभाव से किया गया माना जाएगा और हस्तान्तरणकर्ता के विकल्प पर इसे शून्य घोषित किया जाएगा।
इसके अलावा, प्रतिवादी नंबर 1 द्वारा पारित गलत आदेश के मद्देनजर गिफ्ट डीड रद्द करने से याचिकाकर्ता-बैंक के हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, क्योंकि इसने प्रतिवादी नंबर 3 और 4 को अग्रिम राशि वसूलने के लिए बंधक के रूप में याचिकाकर्ता-बैंक के अधिकार को छीन लिया।
यह भी दावा किया गया कि सहायक आयुक्त के पास इस प्रकार के गिफ्ट डीड रद्द करने का कोई अधिकार नहीं था। प्रतिवादी नंबर 2 (पिता) के पास एकमात्र विकल्प सिविल न्यायालय के समक्ष कार्यवाही शुरू करना था।
अंत में उन्होंने कहा कि चूंकि अधिनियम, 2007 के तहत याचिकाकर्ता बैंकों के लिए अपील दायर करने के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है, इसलिए उनके पास वर्तमान रिट याचिका दायर करके इस न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है।
निष्कर्ष:
अदालत ने मामले के अभिलेखों अधिनियम 2007 के उद्देश्य और प्रयोजन जो अनिवार्य रूप से उन बुजुर्ग व्यक्तियों को त्वरित और सस्ते उपचार प्रदान करना है, जिनकी देखभाल उनके परिवारों द्वारा नहीं की जा रही है और अधिनियम में प्रासंगिक प्रावधानों का अध्ययन किया।
यह देखते हुए कि अधिनियम 2007 के तहत गठित न्यायाधिकरण को अधिनियम की धारा 23 के तहत विचाराधीन लेनदेन को शून्य घोषित करने का अधिकार तभी प्राप्त होगा, जब उसके तहत निर्दिष्ट शर्तें पूरी हों।
इसने नोट किया कि गिफ्ट डीड में कोई विशेष शर्त नहीं है कि प्रतिवादी नंबर 3 पुत्र और हस्तांतरिती होने के नाते प्रतिवादी नंबर 2 को बुनियादी सुविधाएं और बुनियादी शारीरिक आवश्यकताएं प्रदान करेगा।
इसके अलावा पिता विषयगत संपत्ति की पूरी सीमा का पूर्ण स्वामी होने का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि प्रतिवादी नंबर 2 की मालिक अहमदी बेगम (पत्नी) की मृत्यु के बाद। बच्चे, क्रमशः पक्षों पर लागू उत्तराधिकार के कानून के अनुसार विषयगत संपत्ति में एक विशिष्ट हिस्से के हकदार बन गए।
फिर अदालत ने कहा कि जैसा कि ऊपर देखा गया, आरोपित आदेश बिना किसी कारण के जितना संभव था, उतना ही रहस्यमय है। प्रतिवादी नंबर 1-सहायक आयुक्त ने न तो मामले के तथ्यों का उल्लेख किया और न ही उन्होंने अधिनियम 2007 की धारा 23 के प्रावधानों का उल्लेख किया, जिसके तहत उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने का औचित्य सिद्ध होता है। इस बारे में भी कोई चर्चा नहीं है कि प्रतिवादी नंबर 2 ने प्रतिवादी संख्या 1 के हस्तक्षेप के लिए कोई मामला बनाया या नहीं। आरोपित आदेश बिना अधिकार क्षेत्र के होने के कारण मनमाना और विकृत है, इसलिए इसे बरकरार नहीं रखा जा सकता।
विदा लेने से पहले न्यायालय ने 2007 के अधिनियम के दुरुपयोग की चिंता जताई। न्यायालय ने कहा कि हालांकि अधिनियम, 2007 का उद्देश्य महान और प्रशंसनीय है, लेकिन इसका जानबूझकर कई बार दुरुपयोग किया गया। चूंकि अधिनियम, 2007 के तहत परिकल्पित प्रक्रिया संक्षिप्त और सरल प्रकृति की है, इसलिए यहां तक कि महत्वपूर्ण प्रकृति के विवाद जिन्हें अन्यथा सक्षम अधिकार क्षेत्र वाले सिविल न्यायालय द्वारा सामान्य कानून के तहत निपटाया जाना चाहिए, उन्हें भी तत्काल मामले में परिणामों की परवाह किए बिना अत्यधिक लापरवाही से निपटाया जा रहा है।
केस टाइटल: एक्सिस बैंक लिमिटेड और सहायक आयुक्त एवं अन्य