शुरुआती पुष्टि के बाद एडवाइजरी बोर्ड के रिव्यू के बिना भी प्रिवेंटिव डिटेंशन बढ़ाया जा सकता है: झारखंड हाईकोर्ट

Update: 2025-11-24 11:08 GMT

झारखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में साफ किया कि एक बार जब एडवाइजरी बोर्ड प्रिवेंटिव-डिटेंशन ऑर्डर को मंज़ूरी दे देता है और राज्य सरकार एक कन्फर्मेटरी ऑर्डर जारी कर देती है तो बाद में एक्सटेंशन के लिए बोर्ड की किसी और मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं होती है।

जस्टिस सुजीत नारायण प्रसाद और जस्टिस अरुण कुमार राय की डिवीजन बेंच ने झारखंड कंट्रोल ऑफ क्राइम्स एक्ट, 2002 के तहत दिए गए प्रिवेंटिव डिटेंशन के ऑर्डर को चुनौती देने वाली रिट याचिका खारिज करते हुए ये बातें कहीं। याचिकाकर्ता को एक्ट की धारा 12(2) के तहत असामाजिक तत्व के रूप में हिरासत में लिया गया था और उसकी हिरासत को समय-समय पर तीन महीने के अंतराल पर बढ़ाया गया। उसने तर्क दिया कि वह असामाजिक तत्व की कानूनी परिभाषा के तहत नहीं आता है और एक्सटेंशन अवैध थे, क्योंकि वे एडवाइजरी बोर्ड की नई मंज़ूरी के बिना जारी किए गए।

हाईकोर्ट ने जांच की कि क्या याचिकाकर्ता झारखंड कंट्रोल ऑफ क्राइम्स एक्ट की धारा 2(d) के तहत असामाजिक तत्व की परिभाषा को पूरा करता है। धारा 2(d)(i) ऐसे व्यक्ति को परिभाषित करती है, जो आदतन IPC के अध्याय XVI या XVII के तहत अपराध करता है, करने की कोशिश करता है या उसमें मदद करता है। विजय नारायण सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए बेंच ने दोहराया कि आदतन के लिए बार-बार लगातार ऐसे काम करने की ज़रूरत होती है, जो निरंतरता दिखाते हैं न कि सिर्फ अलग-अलग घटनाएं हैं।

कोर्ट ने कहा,

इसके अलावा आदतन शब्द का मतलब बार-बार या लगातार है। इसका मतलब है कि एक जैसी बार-बार होने वाली हरकतों को एक साथ जोड़ने वाली निरंतरता की एक कड़ी। आदत का अनुमान लगाने के लिए बार-बार लगातार और एक जैसे लेकिन अलग-अलग व्यक्तिगत और अलग-अलग काम ज़रूरी हैं।”

याचिकाकर्ता के खिलाफ कई सालों से हत्या की कोशिश जबरन वसूली मारपीट और आर्म्स एक्ट के उल्लंघन सहित कई FIR दर्ज थीं, इसलिए कोर्ट ने माना कि आदतन होने की कानूनी शर्त पूरी होती है।

कोर्ट ने कहा कि एडवाइजरी बोर्ड की ज़रूरत सिर्फ प्रिवेंटिव डिटेंशन के शुरुआती चरण में होती है। एक बार जब एडवाइजरी बोर्ड यह राय दे देता है कि हिरासत के लिए पर्याप्त कारण हैं और राज्य सरकार उस राय के आधार पर एक कन्फर्मेटरी ऑर्डर जारी कर देती है तो कानून के अनुसार बोर्ड को मामले की दोबारा समीक्षा करने की ज़रूरत नहीं होती है। इस बिंदु के बाद राज्य एडवाइजरी बोर्ड से नई मंज़ूरी लिए बिना हिरासत बढ़ा सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि बोर्ड का रोल पहले असेसमेंट के बाद खत्म हो जाता है और एक्ट में बाद में एक्सटेंशन के लिए समय-समय पर या बार-बार रिव्यू करने का कोई नियम नहीं है।

कोर्ट ने कहा,

“इसलिए ऊपर की गई चर्चा के आधार पर इस कोर्ट का मानना ​​है कि पेसाला नूकाराजू (सुप्रा) मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक हिरासत की अवधि बढ़ाने के लिए एडवाइजरी बोर्ड की मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं है, जिसमें यह देखा गया कि अगर एक बार एडवाइजरी बोर्ड ने यह राय दी कि संबंधित व्यक्ति को हिरासत में रखने का पर्याप्त कारण है और, उस आधार पर राज्य सरकार ने किसी व्यक्ति को हिरासत की तारीख से अधिकतम बारह महीने की अवधि के लिए हिरासत में रखने का कन्फर्मेटरी आदेश पारित किया तो राज्य सरकार द्वारा हिरासत आदेश के रिव्यू की आवश्यकता नहीं है।”

इन नतीजों के आधार पर हाईकोर्ट ने सभी एक्सटेंशन आदेशों को सही ठहराया और रिट याचिका खारिज की।

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