केवल संपत्ति का स्पष्ट विवरण न होना या वसीयत करने वाले की मृत्यु वसीयत के तुरंत बाद होना वसीयत को अमान्य नहीं कर सकता: झारखंड हाईकोर्ट

Update: 2025-04-19 06:01 GMT
केवल संपत्ति का स्पष्ट विवरण न होना या वसीयत करने वाले की मृत्यु वसीयत के तुरंत बाद होना वसीयत को अमान्य नहीं कर सकता: झारखंड हाईकोर्ट

झारखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में दिए गए एक निर्णय में स्पष्ट किया कि वसीयत के निष्पादन को लेकर संदेह केवल अस्पष्ट दावों पर आधारित नहीं हो सकता।

कोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति की वसीयत को इस आधार पर अमान्य नहीं ठहराया जा सकता कि वसीयतकर्ता की मृत्यु वसीयत के तुरंत बाद हो गई या वसीयत में संपत्ति का विस्तृत विवरण नहीं दिया गया।

जस्टिस गौतम कुमार चौधरी ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा,

“कौन-सी परिस्थितियाँ संदेहास्पद मानी जाएंगी, इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता, न ही पूरी तरह सूचीबद्ध किया जा सकता है। यह प्रत्येक मामले में तथ्यात्मक प्रश्न होता है। किसी वसीयत में संपत्ति का विस्तृत विवरण न होना मात्र संदेह का कारण नहीं बन सकता। गवाहों का यह बयान कि वसीयतकर्ता पिछले छह महीनों से बीमार थीं और घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं, किसी भी मेडिकल दस्तावेज़ से सिद्ध नहीं होता।”

उन्होंने आगे कहा,

जब यह कहा गया कि वसीयतकर्ता की देखभाल उत्तरदाताओं द्वारा की जा रही थी तो उनके द्वारा इलाज संबंधी दस्तावेज़ प्रस्तुत किए जा सकते थे। केवल इस आधार पर कि वसीयतकर्ता की मृत्यु वसीयत के एक महीने के भीतर हो गई, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वसीयत के समय वह मानसिक या शारीरिक रूप से असमर्थ थीं।”

यह निर्णय सीताराम गोस्वामी द्वारा एक निचली अदालत द्वारा भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 276 के अंतर्गत प्रोबेट याचिका खारिज किए जाने के विरुद्ध दायर की गई विविध अपील में दिया गया।

अपीलकर्ता ने दावा किया कि राधा देब्या, जो उनकी पितामह की बहन थीं, उन्होंने 03.09.2004 को उनके पक्ष में अपनी अंतिम रजिस्टर वसीयत की थी। उनकी मृत्यु 26.09.2004 को हो गई। वसीयत से संबंधित भूमि वर्ष 1968 में खरीदी गई।

प्रोबेट आवेदन का विरोध करते हुए उत्तरदाताओं ने कहा कि वसीयतकर्ता पिछले कई महीनों से बीमार थीं और वसीयत निष्पादन के समय मानसिक व शारीरिक रूप से अयोग्य थीं। उन्होंने यह भी आपत्ति की कि वसीयतकर्ता को संपत्ति देने का अधिकार नहीं था।

हाईकोर्ट ने इन आपत्तियों को खारिज करते हुए कहा,

“प्रोबेट कोर्ट को यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता कि वसीयतकर्ता के पास संपत्ति का स्वामित्व था या नहीं। उसका अधिकार केवल यह देखने तक सीमित होता है कि वसीयतकर्ता द्वारा प्रस्तुत वसीयत वास्तव में उसकी अंतिम वसीयत थी या नहीं।”

यदि वसीयत में भूमि का विवरण संक्षिप्त है। फिर भी जब वसीयत संपत्ति के पूरे हिस्से को लेकर है तो प्रोबेट याचिका को इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने Jaswant Kaur बनाम Amrit Kaur (1977) केस पर भरोसा करते हुए कहा कि वसीयत सिद्ध करने की प्रक्रिया अन्य दस्तावेजों की तुलना में अलग नहीं होती, सिवाय इसके कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 और साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 में वसीयत के लिए विशेष प्रावधान हैं।

कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि संदेहास्पद परिस्थितियाँ मौजूद हों तो वसीयत प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को उन सभी संदेहों को स्पष्ट रूप से दूर करना होता है।

कोर्ट ने यह भी कहा,

हालाँकि वसीयत पंजीकृत है लेकिन फिर भी उसे प्रोबेट कराने की आवश्यकता है। वसीयत का पंजीकरण केवल यह धारणा उत्पन्न करता है कि उसका विधिवत निष्पादन हुआ है।”

अंततः कोर्ट ने प्रोबेट याचिका को खारिज करने के निचली अदालत के आदेश को निरस्त करते हुए प्रोबेट प्रदान करने का निर्देश दिया।

कोर्ट ने आदेश दिया,

“प्रस्तुत वसीयत, जो दिनांक 03.09.2004 को राधा देब्या उर्फ कुसुम देब्या द्वारा निष्पादित व पंजीकृत की गई थी, उस पर विधिवत मुहर के साथ प्रोबेट जारी किया जाए। याचिकाकर्ताओं-नियोजकों को वसीयत की प्रति के साथ प्रोबेट प्रदान किया जाए और इसके लिए आवश्यक कोर्ट फीस का भुगतान किया जाए।”

टाइटल- सीताराम गोस्वामी बनाम शांति देवी एवं अन्य

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