झारखंड हाईकोर्ट ने दिवंगत CISF कर्मी की बर्खास्तगी को अनिवार्य सेवानिवृत्ति में बदला, विधवा की याचिका आंशिक रूप से स्वीकार
दुर्व्यवहार के आरोप में सेवा से बर्खास्त किए गए एक दिवंगत CISF कर्मी की विधवा की याचिका पर आंशिक राहत देते हुए झारखंड हाईकोर्ट ने कहा कि जब सबसे गंभीर आरोप सिद्ध नहीं हुआ तो सेवा से बर्खास्तगी की सजा अनुपातहीन है।
न्यायालय ने यह भी माना कि अब विधवा को दोबारा अनुशासनात्मक कार्यवाही की ओर लौटाना अनुचित होगा।
जस्टिस आनंदा सेन ने यह फैसला जयंती देवी उर्मालिया की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया।
याचिकाकर्ता ने अपने दिवंगत पति संतोष उर्मालिया, जो CISF के कर्मी थे, की बर्खास्तगी को चुनौती दी थी और पारिवारिक पेंशन व अन्य बकाया राशि की मांग की थी।
अदालत ने कहा,
“यह एक दुर्लभ मामला है, क्योंकि याचिकाकर्ता के पति का निधन हो चुका है। विधवा को अनुशासनात्मक प्रक्रिया में वापस भेजना उचित नहीं होगा। अतः बर्खास्तगी की सजा को अनिवार्य सेवानिवृत्ति में परिवर्तित किया जाता है।”
याचिकाकर्ता के पति की पोस्टिंग CISF यूनिट, BCCL धनबाद में थी और 16 जून, 1997 को जेल भेजे जाने के बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया। 13 अक्टूबर, 1997 को उनके खिलाफ चार आरोपों के साथ आरोपपत्र जारी हुआ और विभागीय जांच शुरू हुई। जांच अधिकारी बदले गए और जनवरी 1999 में रिपोर्ट दी गई।
याचिकाकर्ता के पति ने 17 फरवरी 1999 को विस्तृत जवाब दाखिल किया। आरोप लगाया कि उन्हें मुख्य गवाहों की जांच करने का अवसर नहीं मिला। 10 मार्च, 1999 को उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। उनकी अपील 11 मई 2000 को खारिज कर दी गई।
हालांकि 4 नवंबर, 1998 को उन्हें आपराधिक मामले में बरी कर दिया गया, क्योंकि अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध नहीं कर सका।
पहले याचिकाकर्ता ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की थी, जिसे 2014 में केवल तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने झारखंड हाईकोर्ट में वर्तमान याचिका दायर की।
अदालत ने कहा,
“आरोपों से स्पष्ट है कि दूसरा आरोप सबसे गंभीर था। यह आरोप आपराधिक मामले में सिद्ध नहीं हो पाया, इसलिए इसे हटा दिया जाना चाहिए। यदि यह आरोप हटता है तो अन्य आरोपों के आधार पर बर्खास्तगी की सजा अत्यधिक और असंगत होगी।”
विभागीय आरोपों में कहा गया कि उन्होंने ड्यूटी नहीं की, 11 पिस्टन चोरी करने का आरोप था, 36 दिन की गैरहाजिरी और पहले के अनुशासनहीन व्यवहार में सुधार न होना। कोर्ट ने माना कि सबसे गंभीर आरोप (दूसरा) आपराधिक ट्रायल में साबित नहीं हुआ।
याचिकाकर्ता की विधवा ने तर्क दिया कि विभागीय जांच निष्पक्ष नहीं थी, जांच अधिकारी बिना कारण बदले गए और उनके पति को बचाव गवाह प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी गई।
उन्होंने धनबाद के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पति की बरी होने पर भी भरोसा किया।
प्रतिवादी पक्ष ने कहा कि याचिकाकर्ता के पति बिना अनुमति के अनुपस्थित थे और चोरी के सामान के पास छिपे हुए पाए गए थे। इसलिए जांच प्रक्रिया और सजा उचित थी।
कोर्ट ने स्पष्ट किया,
“आपराधिक मामले में बरी होने से विभागीय जांच स्वतः ही प्रभावित नहीं होती, क्योंकि दोनों में प्रमाण का मानक अलग होता है। आपराधिक मामले में दोष सिद्ध करना संदेह से परे होना चाहिए, जबकि विभागीय जांच में संभाव्यता के आधार पर आरोप सिद्ध हो सकते हैं।”
लेकिन चूंकि संबंधित कर्मी का निधन हो चुका है, कोर्ट ने कहा कि अब अनुशासनात्मक अधिकारी को मामला वापस नहीं भेजा जा सकता। लेकिन कोर्ट के पास सजा को संशोधित करने का अधिकार है।
अंततः कोर्ट ने कहा,
“उत्तरदाता संख्या 4 द्वारा पारित आदेश संख्या 38 दिनांक 10.03.1999 और अपीलीय आदेश संख्या 2608 दिनांक 11.05.2000 को संशोधित किया जाता है। यह रिट याचिका आंशिक रूप से स्वीकार की जाती है और सजा को अनिवार्य सेवानिवृत्ति में परिवर्तित किया जाता है।”
केस टाइटल: जयंती देवी उर्मालिया बनाम भारत संघ (सचिव के माध्यम से)