राज्य को बिना कारण बताए विलंबित अपील दायर करने का अधिकार नहीं, उसके कामकाज में तत्परता अपेक्षित: जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट
जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में इस बात पर जोर दिया कि सरकारी विभाग, अपनी जटिल प्रकृति के बावजूद, देरी को माफ करने के मामले में विशेष रियायत के हकदार नहीं हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल सद्भावनापूर्ण और अनजाने में की गई देरी को ही माफ किया जा सकता है, और राज्य को अपने कामकाज में तत्परता और प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करना चाहिए।
गंदेरबल के विद्वान सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित बरी करने के फैसले के खिलाफ अपील दायर करने में देरी को माफ करने की मांग करने वाले राज्य की ओर से एक आवेदन को खारिज करते हुए, जस्टिस संजय धर ने कहा,
"...आवेदक/अपीलकर्ता बरी करने के फैसले के खिलाफ अपील दायर करने में 927 दिनों की देरी को ठीक से समझाने में असमर्थ रहा है। यद्यपि न्यायालय राज्य और उसके पदाधिकारियों के मामले में अपील दायर करने में देरी को माफ करने के मामले में आम तौर पर नरम रुख अपनाते हैं, राज्य के कामकाज की अवैयक्तिक प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, फिर भी राज्य के पास देरी के कारणों को ठीक से बताए बिना देरी से अपील दायर करने का निहित अधिकार नहीं है।”
पृष्ठभूमि
यह मामला जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश द्वारा सत्र न्यायाधीश, गंदेरबल द्वारा 25 सितंबर 2018 को पारित किए गए बरी करने के फैसले के खिलाफ अपील से उपजा है, जिसमें मोहम्मद यासीन मीर शामिल हैं।
श्री सतिंदर सिंह काला (एएजी) द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए अपीलकर्ता ने मीर की बरी के खिलाफ अपील दायर करने में 927 दिनों की देरी को माफ करने के लिए अदालत से अनुमति मांगी। देरी प्रशासनिक और प्रक्रियात्मक गलतियों के साथ-साथ कोविड-19 महामारी के प्रभाव से हुई।
अपीलकर्ता ने प्रस्तुत किया कि देरी न तो जानबूझकर की गई थी और न हीं इरादतन। उन्होंने देरी के लिए अपील दायर करने के लिए मंजूरी प्राप्त करने की समय लेने वाली आंतरिक प्रक्रियाओं को जिम्मेदार ठहराया, जिसमें मंजूरी आदेश गलत हो गया और गलत अधिकारी को भेज दिया गया। जून 2021 में एक समीक्षा बैठक के दौरान ही गलती सामने आई। उन्होंने यह भी दावा किया कि कोविड-19 महामारी ने अपील दायर करने के उनके प्रयासों में और देरी की।
प्रतिवादी के वकील श्री उमर राशिद वानी ने आवेदन का विरोध करते हुए तर्क दिया कि देरी अक्षम्य थी और जब तक महामारी हुई, तब तक सीमा अवधि समाप्त हो चुकी थी।
न्यायालय की टिप्पणियां
जस्टिस धर ने दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत परिस्थितियों की गहन जांच की। न्यायालय ने स्वीकार किया कि अपील दायर करने की अनुमति वास्तव में जनवरी 2019 में दी गई थी, लेकिन अपीलकर्ता को इसे गलत जगह भेजने के लिए दोषी ठहराया।
कोर्ट ने कहा, "तथ्य यह है कि अपीलकर्ता-राज्य के अधिकारियों/कर्मचारियों ने विधि विभाग द्वारा दी गई अनुमति को ट्रैक नहीं किया, जो अपीलकर्ता-राज्य के पदाधिकारियों की ओर से लापरवाही और उचित परिश्रम की कमी के बारे में बहुत कुछ कहता है... इससे पता चलता है कि आवेदक/अपीलकर्ता-यूटी ने न केवल बरी किए जाने के फैसले के खिलाफ अपील के उपाय को आगे बढ़ाने में लापरवाही की, बल्कि मामले से निपटने में भी उदासीनता का दोषी था"।
न्यायालय ने चीफ पोस्ट-मास्टर जनरल बनाम लिविंग मीडिया इंडिया लिमिटेड (2012) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि सरकारी विभागों का अपने कर्तव्यों को लगन और प्रतिबद्धता के साथ निभाने का विशेष दायित्व है। इस बात पर जोर दिया गया कि कानून सभी पर समान रूप से लागू होता है, और राज्य अपनी नौकरशाही प्रक्रियाओं के आधार पर तरजीही व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकता।
जबकि न्यायालय ने मंजूरी की तारीख तक की देरी के बारे में कुछ समझ व्यक्त की, उसने नोट किया कि इसके बाद, बाद की देरी के लिए कोई उचित स्पष्टीकरण नहीं था। जस्टिसधर ने इस बात पर जोर दिया कि हर देरी को केवल इसलिए माफ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि आवेदक राज्य है। सरकारी अधिकारी, अपनी अवैयक्तिक प्रकृति के बावजूद, किसी भी देरी के लिए उचित औचित्य प्रदान किए बिना अनिश्चित काल तक अपील दायर करने के हकदार नहीं हैं, पीठ ने रेखांकित किया।
इसके अलावा, न्यायालय ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि महामारी ने अपील दायर करने में बाधा डाली, यह कहते हुए कि अपीलकर्ता महामारी शुरू होने से बहुत पहले मंजूरी आदेश से अनजान था, और इस प्रकार महामारी देरी के लिए अप्रासंगिक थी।
अंततः, हाईकोर्ट ने देरी की माफी के लिए आवेदन को खारिज कर दिया। नतीजतन, बरी किए जाने के खिलाफ अपील भी खारिज कर दी गई।
केस टाइटल: यूटी थ्रू पुलिस स्टेशन गंदेरबल बनाम मोहम्मद यासीन मीर
साइटेशन: 2024 लाइव लॉ (जेकेएल) 266