आपराधिक न्यायालय को CrPC की धारा 299 लागू करने से पहले अभियुक्त की फरारी के बारे में पूरी तरह से संतुष्ट होना आवश्यक: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता अभियुक्त के विरुद्ध CrPC 1973 की धारा 299 (अब BNSS की धारा 335) लागू करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि यह प्रावधान केवल जांच अधिकारी के अनुरोध पर आकस्मिक रूप से लागू नहीं किया जा सकता।
अदालत ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने केवल जांच अधिकारी और कांस्टेबल के बयानों के आधार पर कार्रवाई की, जबकि अभियुक्त के फरार होने के पर्याप्त प्रमाण नहीं है और उसकी तत्काल गिरफ्तारी की कोई संभावना नहीं है।
जस्टिस मोहम्मद यूसुफ वानी की पीठ ने ट्रायल कोर्ट के 12.12.2022 के आदेश को रद्द करते हुए याचिकाकर्ता को ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया और स्पष्ट किया कि वह जमानत मांगने के लिए स्वतंत्र होगा, जिस पर ट्रायल कोर्ट को कानून के अनुसार शीघ्र विचार करना चाहिए।
कानून के तहत सख्त सुरक्षा उपायों पर ज़ोर देते हुए न्यायालय ने कहा,
"किसी भी अभियुक्त के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 299 और धारा 335 के अंतर्गत कार्यवाही शुरू करने से पहले किसी भी आपराधिक न्यायालय को इस बात के प्रमाण के बारे में पूरी तरह संतुष्ट होना आवश्यक है कि अभियुक्त फरार है और उसकी तत्काल गिरफ्तारी की कोई संभावना नहीं है।"
न्यायालय ने चिंता व्यक्त की कि आपराधिक न्यायालय अक्सर पुलिस के अनुरोधों पर बिना उचित संतुष्टि के यांत्रिक रूप से कार्य करते हैं।
उन्होंने कहा,
"आपराधिक न्यायालय संबंधित एसएचओ/आईओ के कहने मात्र से भारतीय दंड संहिता की धारा 335 के अनुरूप, पूर्व निरस्त दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 299 के प्रावधानों के अनुसार अभियुक्तों के विरुद्ध कार्यवाही शुरू कर देते हैं।"
न्यायालय ने आगाह किया कि अभियुक्त की अनुपस्थिति में अभियोजन पक्ष के साक्ष्य दर्ज करने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। खासकर जब ऐसे गवाह बाद में मर जाते हैं या क्रॉस एक्जामिनेशन करने में असमर्थ हो जाते हैं।
अदालत ने स्पष्ट किया कि CrPC की धारा 299/BNSS की धारा 335 लागू करने से पहले ट्रायल कोर्ट को जोखिमों के प्रति सचेत रहना चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि फरार होने का निर्णायक सबूत हो और गिरफ्तारी की तत्काल कोई संभावना न हो।