राज्य अपनी वित्तीय जिम्मेदारियों से नहीं बच सकता: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने ठेकेदार को बकाया भुगतान के साथ ब्याज देने का आदेश दिया
जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने अहम फैसले में कहा कि राज्य अपनी वित्तीय जिम्मेदारियों से नहीं बच सकता और अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे ठेकेदार को वर्ष 2017 से लंबित 97.87 लाख की राशि 6% ब्याज सहित अदा करें।
जस्टिस वसीम सादिक नरगल ने यह आदेश मेसर्स सेंट सोल्जर इंजीनियर एंड कॉन्ट्रैक्टर प्राइवेट लिमिटेड की याचिका पर सुनवाई के दौरान पारित किया। अदालत ने टिप्पणी की कि प्रशासनिक देरी या धन की कमी का बहाना बनाकर स्वीकृत भुगतान को रोकना मनमाना और असंवैधानिक है।
मामला उस समय शुरू हुआ, जब याचिकाकर्ता को डेहरा कैंप से निकोवाल साईं तक पाँच किलोमीटर सड़क पर प्रीमिक्स कार्पेट बिछाने का ठेका मिला। शुरुआत में इसकी लागत 50.33 लाख तय हुई थी लेकिन बाद में कार्य का दायरा बढ़ाकर 50 मिमी बिटुमिन मैकाडम और 25 मिमी ओजीपीसी सतह शामिल की गई, जिससे लागत बढ़कर 2.37 करोड़ हो गई। ठेकेदार ने वर्ष 2017 में काम पूरा कर लिया और इसे विभाग ने प्रमाणित भी किया। फिर भी 97.87 लाख का भुगतान 2018 और 2020 में बिलों की पुष्टि के बावजूद नहीं किया गया।
सरकार ने भुगतान न करने के लिए सीमाबद्धता का हवाला दिया। हालांकि, अदालत ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि जब राज्य स्वयं देयता को स्वीकार कर चुका है और कार्य का लाभ उठा रहा है तो तकनीकी कारणों से भुगतान से मुकरा नहीं जा सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि कार्य पूरा होने के बाद राज्य पर इसे भुगतान करने का बाध्यकारी दायित्व बनता है।
जस्टिस नरगल ने इस बात पर चिंता जताई कि ऐसे विवाद बार-बार सामने आते हैं। ठेकेदारों को अपने वैध बकाए के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। उन्होंने कहा कि शासन की गरिमा केवल नियम बनाने में नहीं बल्कि समय पर जिम्मेदारियों को निभाने में है और राज्य को आदर्श वादी पक्षकार के रूप में कार्य करना चाहिए।
अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 300A का हवाला देते हुए कहा कि स्वीकृत बकाया रोकना समानता के अधिकार का उल्लंघन है। व्यक्ति को बिना वैध प्राधिकरण के संपत्ति से वंचित करना है और यह आजीविका छीनने के बराबर आर्थिक कठिनाई उत्पन्न करता है। अदालत ने के.टी. प्लांटेशन प्रा. लि. बनाम कर्नाटक राज्य और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रमन आयरन फाउंड्री जैसे फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि ठेकेदार का भुगतान संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकार है और इसमें देरी होने पर ब्याज का भुगतान अनिवार्य है।
अदालत ने न केवल ठेकेदार को चार सप्ताह के भीतर बकाया राशि ब्याज सहित देने का आदेश दिया बल्कि मुख्य सचिव को यह भी निर्देश दिया कि मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) बनाई जाए, जिससे भविष्य में अंतिम बिल जमा होने के 60 दिनों के भीतर भुगतान सुनिश्चित हो। अदालत ने चेतावनी दी कि यदि लापरवाही के कारण भुगतान में देरी होती है तो ब्याज की भरपाई जिम्मेदार अधिकारियों के वेतन से की जाएगी और जानबूझकर भुगतान रोकने वाले विभागों पर भारी लागत भी लगाई जा सकती है।
अंत में जस्टिस नरगल ने टिप्पणी की कि संवैधानिक शासन राज्य को नौकरशाही बहानों के पीछे छिपकर ठेकेदारों को उनके वैध अधिकारों से वंचित करने की अनुमति नहीं देता। उन्होंने कहा कि अच्छे शासन का सार समय पर दायित्व निभाने में है, न कि ठेकेदारों को लम्बे समय तक मुकदमेबाजी में उलझाने में।