जिला जज की नियुक्ति के लिए एडवोकेट के रूप में लगातार 7 साल की प्रैक्टिस आवश्यक नहीं: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 233(2) के तहत एडिशनल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज के रूप में नियुक्ति के लिए एडवोकेट के रूप में लगातार सात साल की प्रैक्टिस आवश्यक नहीं है।
फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा,
“भारत के संविधान के अनुच्छेद 233(2) के तहत एडवोकेट के रूप में लगातार सात साल की प्रैक्टिस आवश्यक नहीं हैष यह केवल यह निर्धारित करता है कि उम्मीदवार के पास सात साल की प्रैक्टिस होना चाहिए और आवेदन और नियुक्ति की तिथि पर एडवोकेट होना चाहिए।”
चीफ जस्टिस एम.एस. रामचंद्र राव और जस्टिस सत्येन वैद्य की खंडपीठ ने हिमाचल प्रदेश न्यायिक सेवा में प्रतिवादी-एडिशनल डिस्ट्रिक्ट एवं सेशन जज की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला सुनाते हुए ये टिप्पणियां कीं, क्योंकि उनकी वकालत की प्रैक्टिस में रुकावटें आईं थीं।
प्रतिवादी ने लिखित परीक्षा के लिए आवेदन किया और वह योग्य भी था। हालांकि याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी की योग्यता को उसके करियर इतिहास के आधार पर चुनौती दी, जिसमें जिला कानूनी सहायता अधिकारी और मध्य प्रदेश में सिविल जज क्लास-II के रूप में रोजगार शामिल था, जिससे वकील के रूप में उसकी प्रैक्टिस में रुकावटें आईं।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि प्रैक्टिस में रुकावटों के कारण प्रतिवादी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 233(2) के तहत अयोग्य हो गया, जिसके अनुसार किसी वकील के पास इस पद के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए कम से कम सात साल की प्रैक्टिस होनी चाहिए।
याचिकाकर्ता ने धीरज मोर बनाम दिल्ली हाईकोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि निरंतर प्रैक्टिस जरूरी है। इसके अतिरिक्त याचिकाकर्ता ने प्रवीण गर्ग बनाम दिल्ली हाईकोर्ट और अन्य का हवाला दिया, जहां निरंतर प्रैक्टिस की कमी के कारण प्रतिवादी के समान पद के लिए आवेदन खारिज कर दिया गया।
प्रतिवादी ने तर्क दिया कि एडवोकेट के रूप में सक्रिय प्रैक्टिस की उनकी संचयी अवधि कुल मिलाकर सात वर्ष से अधिक है, जो संविधान के अनुच्छेद 233(2) के तहत पात्रता आवश्यकताओं को पूरा करती है। उन्होंने तर्क दिया कि मध्य प्रदेश में जिला कानूनी सहायता अधिकारी और सिविल जज वर्ग-II के रूप में उनकी अस्थायी भूमिकाएं उन्हें अयोग्य नहीं ठहरानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने उन सेवाओं से इस्तीफा दे दिया था और प्रत्येक पद के बाद अपनी वकालत की प्रैक्टिस फिर से शुरू कर दी थी।
न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश न्यायिक सेवा नियम 2004, उद्धृत मिसालों और प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों की जांच की। यह पाया गया कि प्रतिवादी के पास जुलाई 2012 से मार्च 2015, जुलाई 2015 से अप्रैल 2016 और मई 2018 से नवंबर 2022 तक सक्रिय प्रैक्टिस की अवधि थी। ये अवधि संचयी रूप से सात वर्ष से अधिक थी।
इस प्रकार पीठ ने टिप्पणी की,
“भारतीय संविधान का अनुच्छेद 233(2), साधारण रूप से पढ़ने पर इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करता कि उम्मीदवार के पास एडवोकेट के रूप में निरंतर 7 वर्ष की प्रैक्टिस होनी चाहिए। हालांकि उसे एडवोकेट के रूप में न्यूनतम 7 वर्ष की प्रैक्टिस होनी आवश्यक है। नियुक्ति के लिए आवेदन करने की तिथि और अपनी नियुक्ति की तिथि पर भी एडवोकेट के रूप में कार्य करना जारी रखना चाहिए।”
न्यायालय ने दिल्ली हाईकोर्ट के पिछले निर्णय से अपनी असहमति व्यक्त की, जिसमें पात्रता के लिए लगातार सात वर्ष की प्रैक्टिस आवश्यक बताई गई। दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय अनुच्छेद 233(2) की व्याख्या पर आधारित था, जिसमें एडवोकेट के रूप में निर्बाध प्रैक्टिस की आवश्यकता बताई गई।
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि यह व्याख्या सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के साथ असंगत है।
खंडपीठ ने कहा,
“हम उक्त दो निर्णयों के बारे में दिल्ली हाईकोर्ट की समझ के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं, जिसमें वे जोर देते हैं कि एडिशनल जिला जज के रूप में नियुक्त होने के लिए पात्र होने के लिए लगातार 7 वर्ष की प्रैक्टिस होनी चाहिए, जैसा कि याचिकाकर्ता के वकील द्वारा तर्क दिया जा रहा है।”
न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश न्यायिक सेवा नियम, 2004 के नियम 5 के खंड (सी) के तहत "नोट" को भी संबोधित किया। इस नोट में न्यायिक सेवा में बिताए गए समय को सात साल की प्रैक्टिस की आवश्यकता में शामिल करने की अनुमति दी गई थी।
न्यायालय ने इस प्रावधान को खारिज कर दिया, क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या के साथ असंगत था।
खंडपीठ ने आगे कहा,
"वकील के रूप में 7 साल की प्रैक्टिस के अनुभव के लिए न्यायिक सेवा में प्राप्त अनुभव को बराबर/संयुक्त नहीं किया जा सकता है।"
अंततः न्यायालय ने न्यायिक नियुक्ति के लिए प्रतिवादी की पात्रता बरकरार रखी।
केस टाइटल: संदीप शर्मा बनाम माननीय हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट और अन्य